Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 2 मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.
BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 2 मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ
Bihar Board Class 11 Psychology मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ Text Book Questions and Answers
प्रश्न 1.
वैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य क्या होते हैं?
उत्तर:
अनुभवों, व्यवहारों तथा मानसिक प्रक्रियाओं के माध्यम से अर्जित ज्ञान को मानव-हित में अधिक-से-अधिक उपयोगी स्वरूप प्रदान करना ही वैज्ञानिक जाँच का सार्थक लक्ष्य होना चाहिए। वैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य करने के क्रम में प्राप्त सिद्धांतों एवं नियमों के माध्यम से मानव को सुखमय जीवन प्रदान किया जा सकता है।
वैज्ञानिक जाँच के माध्यम से वांछनीय के पाने के लिए निम्नांकित चरणों में सम्पूर्ण प्रक्रिया को समाप्त किया जाता है –
- वर्णन
- पूर्वकथन
- व्याख्या
- नियंत्रण और
- अनुप्रयोग
1. वर्णन:
किसी निर्धारित विषय से सम्बन्धित समस्याओं से जुड़ी सभी सूचनाओं का सही रूप से संग्रह किया जाता है। चूँकि व्यक्ति के बदलने से व्यवहार बदल जाता है। अर्थात् व्यवहार और अनुभवं अनगिनत होते हैं। शोधकर्ता प्राप्त सूचनाओं के आधार पर व्यवहार और अनुभव का वर्णन उपस्थित करता है।
उदाहरणार्थ विद्यार्थियों के शैक्षणिक विकास चाहने वाले को पता लगाना होता है कि उपस्थिति, वर्ग-कार्य, गृह-कार्य समय और योजना का कार्यान्वयन आदि विद्यार्थी के लिए कितना उचित या अनुचित होता है। विद्यार्थियों से जुड़ी आदतों, नियमों, व्यवहारों, विचारों को प्रतिशत रूप में प्रस्तुत करके उनका अध्ययन किया जाता है। प्रस्तुत विवरण में व्यवहार विशेष का उल्लेख आवश्यक होता है, जो उसको समझने में सहायता करता है।
2. पूर्वकथन:
वैज्ञानिक जाँच के प्रथम चरण (वर्णन) से प्राप्त जानकारियों के आधार पर से जुड़े अन्य व्यवहारों, घटनाओं अथवा गोचरों से सम्बन्ध के सूक्ष्म अध्ययन से पता किया जा सकता है कि परिणाम अच्छा होगा या बुरा, दोषरहित व्यवहार के लिए क्या परिवर्तन करना। चाहिए। समय, आदत, योजना, स्थिति में से किस दशा में अंतर लाने की गुंजाइश तथा आवश्यकता है।
उदाहरणार्थ, समय और कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए यदि कोई छात्र अध्ययन के लिए अच्छी व्यवस्था के अधीन जिज्ञासु बनकर पढ़ता है तो विश्वास से कहा जा सकता है कि वह परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करेगा। अधिक-से-अधिक लोगों का प्रेक्षण किए जाने पर पूर्वकथन के सत्य प्रमाणित होने की आशा बढ़ जाती है।
3. व्याख्या:
प्रदत्त सूचनाओं के आधार पर प्रस्तुत किये गये पूर्वकथन के कारणों तथा सत्य होने की आशा पर आवश्यक ध्यान दिया जाता है। किसी भी व्यवहार के कारणों तथा प्रेरक कारकों के लक्ष्यों का अध्ययन करके पता लगाने का प्रयास किया जाता है कि पूर्वकथन कितना प्रतिशत सही होगा। उदाहरणार्थ, भय या दंड से प्रभाव छात्र परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करेगा ही, इसमें संदेह है। पूर्वकथनों की व्याख्या करने अथवा पहचान करने में कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करना होता है। जैसे, उचित नियंत्रण तथा साधन, समय, प्रवृत्ति, आदत में उत्पन्न दोष के कारण कोई छात्र बार-बार असफल होता रहता है।
4. नियंत्रण:
प्राप्त सूचनाओं के आधार पर प्राप्त पूर्वकथन की व्याख्या से पता लग जाता है कि प्रकार्य के किस अंश में परिवर्तित की आवश्यकता है। किसी कार्य के प्रति उत्पन्न व्यवहार को मनोनुकूल स्थिति में लाकर को नियंत्रित किया जा सकता है। व्यवहार के नियंत्रण के लिए –
(क) उसे पूर्ववत दशा में रख जाता है या
(ख) उसे वर्तमान दाशा में बढ़ाया जाता है अथवा
(ग) उसकी तीव्रता में कमी लाया जाता है
उदाहरणार्थ, किसी छात्र के अध्ययन का समय बढ़ाकर उसे सफलता का हकदार बनाया जा सकता है। औषधि एवं सेवा में अंतर लाकर किसी रोगी का अच्छा उपचार किया जा सकता है।
5. अनुप्रयोग:
वैज्ञानिक जाँच का अंतिम लक्ष्य लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाना है। वैज्ञानिक जाँच नए सिद्धांतों अथवा विसंगतियों का पता लगाकर उनमें सुधार या विकास करके मानव-हित में प्रयुक्त करता है। जैसे, यह पता लग चुका है कि योग अथवा ध्यान से मनुष्य को रोगमुक्त या चिंतामुक्त बनाया जा सकता है। कार्यस्थल तथा साधनों के विकास के द्वारा कार्यकर्ता की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।
प्रश्न 2.
वैज्ञानिक जाँच करने में अंतर्निहित विभिन्न चरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैज्ञानिक विधि में किसी घटना विशेष अथवा गोचर की जाँच के लिए उसे तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है –
(क) वस्तुनिष्ठ:
वैसी घटना, जिसकी माप प्रेक्षणकर्ता के बदलने पर भी अंतर रहे। जैसे किसी बाँस की लम्बाई यदि 2 मीटर है तो कोई भी नापकर 2 मीटर लम्बा ही बतायेगा।
(अ) व्यवस्थित:
किसी घटना विशेष या गोचर की जाँच निर्धारित चरणों में निश्चित क्रम को बनाये रखते हुए पूरा करते हैं।
(ग) परीक्षण:
वैज्ञानिक जाँच की सफलता उसके बार-बार प्रयोग करने पर समान परिणाम के मिलने पर निर्भर करता है। वैज्ञानिक जाँच करने में क्रमबद्ध यानी निश्चित चरणों में जाँच पूरा करना, सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। वैज्ञानिक जाँच के लिए चार वांछनीय चरण निम्नवत हैं –
(क) समस्या का संप्रत्ययन:
वैज्ञानिक जाँच के लिए सर्वप्रथम अध्ययन के लिए एक निश्चित कथ्य या विषय का निर्धारण करता है। अभीष्ट विषय के सम्बन्ध में अधिक-से-अधिक गुण-अवगुण, लक्षण, विशेषता, अनुक्रिया आदि का पता लगाता है जिससे निर्धारित समस्या का वैसा प्रश्न सामने आता है जिसके द्वारा, जिसके लिए जाँच प्रारम्भ किया जाता है जिसमें अर्जित ज्ञान, पूर्व में किए गए जाँच परिणाम, समीक्षा, अनुभव आदि का भरपूर उपयोग किया जाता है।
समस्या के निर्धारण और पहचान के बाद शोधकर्ता अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर समस्या के समाधान का एक सुलभ विधि की कल्पना करता है। शोधकर्ता की परिकल्पना एक ठोस निर्णय की स्थिति की खोज में जुट जाता है।
उदाहरणार्थ, शोधकर्ता दूरदर्शन को विषय मानकर यह सोच लेता है कि आज जो भी अप्रिय घटनाएँ (लूट, बैंक कांड, हत्या, अपहरण, बलात्कार) होती हैं वे दूरदर्शन के कार्यक्रमों का दुष्परिणाम है। टेलीविजन पर हिंसा के दृश्यों को देखकर बच्चों में आक्रामकता आती है। शोधकर्ता की इस प्रकार की समझ को परिकल्पना कह सकते हैं जिसे गलत या सही प्रमाणित करने के लिए शोध कार्य को आगे बढ़ाया जाता है।
(ख) प्रदत्त-संग्रह:
निर्धारित विषय के सम्बन्ध में प्रस्तुत की गई परिकल्पना की परख के लिए चार पहलुओं पर विचार करके उचित निर्णय लिया जाता है।
1. अध्ययन के प्रतिभागी:
सूचना उपलब्ध कराने वाले प्रतिभागी (छात्र, अध्यापक, कर्मचारी, संगठन) की पहचान उम्र, कार्य, पेशा, स्थिति आदि दृष्टिकोण से की जाती है। पता लगाया जाता है कि दी गई सूचना लोभ, द्वेष, प्रेम या पक्षपात पर आधारित तो नहीं है। भावना में बहकर दी गई सूचना प्रायः गलत होती है।
2. प्रदत्त संग्रह से सम्बन्धित विधियाँ:
समस्या के समाधन के लिए उचित विधि का उपयोग किया जाता है जिसके अन्तर्गत प्रेक्षण विधि, प्रायोगिक विधि, सहसंबंधात्मक विधि, व्यक्ति अध्ययन आदि प्रमुख हैं।
3. उपकरण:
उचित विधियों से परिणाम पाने के लिए तरह-तरह के साधनों (मानचित्र, शब्दचित्र, आँकड़ा, प्रश्नावली, साक्षात्कार, प्रेक्षण अनुसूची आदि) की मदद लेनी होती है।
4. प्रदत्त संग्रह की प्रक्रिया:
समस्या के लक्षणों के अनुरूप विभिन्न विधियों और साधनों के प्रयोग से अधिकतम जानकारी प्राप्त की जाती है। इस क्रम में शोधकर्ता निर्णय लेता है कि विधियों और उपकरणों का किस प्रकार वैयक्तिक या सामूहिक उपयोग में लाया जाना हितकर होगा।
(ग) निष्कर्ष निकालना:
सही सूचनाओं के संग्रह एवं परिकल्पना की सहायता से सांख्यिकी से जुड़े चित्रालेख या वृत्तखंड या दंड आरेख, तोरण तैयार किया जाता है। सांख्यिकी विधियों के उपयोग से प्रदत्त-संग्रह का अध्ययन एवं दृष्टि में पूरा करके उचित निष्कर्ष निकाला जाता है। सांख्यिकीय विधियों से सूचनाओं का विश्लेषण का उद्देश्य परिकल्पना की जाँच करके तदनुसार निष्कर्ष निकालना है।
(घ) शोध निष्कर्षों का पुनरीक्षण:
निर्धारित विषय से सम्बन्धित परिकल्पना, प्रदत्त संग्रह और ज्ञात निष्कर्ष का उपयोग भिन्न-भिन्न स्थानों एवं दशाओं में दुहराकर निष्कर्ष की सत्यता को परखा जाता है। नकारात्मक परिणाम मिलने पर पुनः वैकल्पिक परिकल्पना तथा सिद्धांत को स्थापित करके सही निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है। उदाहरणार्थ, यदि टेलीविजन देखने वाले बच्चों में कुछ आक्रामक नहीं बनते हैं तो परिकल्पना असत्य मान लिया जाता है। अनुसंधान और परीक्षण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है चाहे शोधकर्ता बदल भी जाये। नया शोधकर्ता प्रमाणित निष्कर्षों को आगे की जाँच का आधार बना लेता है।
प्रश्न 3.
मनोवैज्ञानिक प्रदत्तों के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मानवीय व्यवहार, अनुभव और मानसिक प्रक्रियाओं का उपयोगी अध्ययन पर आधारित मनोवैज्ञानिक दार्शनिक अध्ययन के क्रम में मानव चेतना, स्व, मन-शरीर के सम्बन्ध, संज्ञान, प्रत्यक्षण, श्रम, अवधान, तर्कना आदि की समुचित परख में करने में सक्षम है। मनोविज्ञान की सफलता एवं विकास मानवीय खोजों पर आधारित होती हैं। मनोवैज्ञानिक विविध स्रोतों से भिन्न-भिन्न विधियों द्वारा अपनी समस्या से सम्बन्धित सूचनाओं अथवा प्रदत्तों का संग्रह करता है।
मनोवैज्ञानिक प्रदत्त (सामान्यतया सूचना) व्यक्तियों अव्यक्त अथवा व्यक्त व्यवहारों, आत्मपरक अनुभवों एवं मानसिक प्रक्रियाओं से जुड़ी होती हैं। ज्ञात है कि प्रदत्त कोई स्वतंत्र सत्व नहीं होते हैं बल्कि वे एक संदर्भ में प्राप्त किए जाते हैं जो निश्चित नियम या सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं। कोई व्यक्ति दशा परिवर्तन के साथ-साथ अपनी शारीरिक प्रदर्शन में भी अंतर ला देता है। जैसे शादी के लिए दिखलाई जानेवाली एक लड़की नम्र स्वभाव वाली, संकोची कन्या की तरह साड़ी में लिपटी हुई देखी जाती है जबकि वह सामान्य जिन्दगी में पैंट-शर्ट पहनकर डिस्को करती है।
मानव-हित में हम मनोविज्ञान से सम्बन्धित तरह-तरह की सूचनाओं (प्रदत्तों) का संग्रह कर उसका सामूहिक अध्ययन करके उचित निष्कर्ष निकालते हैं। मनोवैज्ञानिक प्रदत्तों (सूचनाओं) के अलग-अलग स्वरूप होते हैं जो निम्न वर्णित हैं –
- जनांकिकीय
- भौतिक
- दैहिक
- मनोवैज्ञानिक
1. जनांकिकीय सूचनाएँ:
व्यक्तिगत सूचनाओं (नाम, आयु, लिंग, जन्मक्रम, सहोदरों की संख्या, शिक्षा, व्यवसाय, वैवाहिक स्थिति, बच्चों की संख्या, आवास की भौगोलिक स्थिति, जाति, धर्म, माता-पिता की शिक्षा और व्यवसाय, परिवार की आय आदि) को जनांकिकीय सूचना माना जाता है।
2. भौतिक सूचनाएँ:
भौतिक सूचनाओं का सम्बन्ध पारिस्थितिक सम्बन्धी जानकारियों से है। इसके अन्तर्गत क्षेत्र (पहाड़ी, रेगिस्तानी, जंगली, तराई आदि) आर्थिक दशा, आवास की दशा, शैक्षणिक एवं सामाजिक स्थितियों (विद्यालय, पड़ोस से सम्बन्ध) यातायात के साधन आदि से सम्बन्धित सूचनाएँ ली जाती हैं।
3. दैहिक सूचनाएँ (प्रदत्त):
किसी व्यक्ति के शरीर की रचना (रक्त, तापमान, त्वचा, मस्तिष्क की संरचना) के सम्बन्ध में सभी जानकारियाँ ली जाती हैं। कोई व्यक्ति कितना उछल सकता है? कितना दौड़ सकता है? उसके रक्त में कितना हिमोग्लोबिन है? वह कितना सोता है? वह कैसा स्वप्न देखता है? उसे कितना क्रोध, धैर्य, प्रतिरोध क्षमता, सहन शक्ति है? क्या वह लार की मात्रा से परेशान रहता है? इस प्रकार के दैहिक स्थिति को बतलाने वाली सूचनाओं को दैहिक प्रदत्त माना जाता है।
4. मनोवैज्ञानिक सूचनाएँ:
बुद्धि, परत्युत्पन्नमति, रुचि, सर्जनशीलता, अभिप्रेरणा, वैचारिक, विकार, भ्रम, चिन्ता, अवसाद बोधन, प्रत्यक्षिक निर्णय, चिंतन प्रतिक्रियाएँ, चेतना, व्यक्तिपरक अनुपात आदि की जानकारी मनोवैज्ञानिक सूचना के अधीन माने जाते हैं।
मापन की दृष्टि से मनोवैज्ञानिक प्रदत्त को श्रेणियों (उच्च/निम्न, हाँ/नहीं) के रूप में कोटियों (प्रथम, द्वितीय) के रूप में लब्धांकों (15, 20, 30, 40,60) के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक प्रदत्त से वाचिक आख्याएँ, प्रक्षेपण अभिलेख, व्यक्तिगत दैनिकी क्षेत्र टिप्पणियाँ, पुरालेखीय प्रदत्त आदि भी उपलब्ध हो सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक प्रदत्त के स्वरूप इस तरह के होते हैं कि उनके उपयोग में गुणात्मक विधि का प्रयोग किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक प्रदत्तों का पृथक रूप से विश्लेषण करना संभव होता है। इन सभी स्वरूपों की सहायता से किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में लगभग पूरी जानकारी मिल जाती है।
प्रश्न 4.
प्रायोगिक तथा नियंत्रित समूह एक-दूसरे से कैसे भिन्न होते हैं? एक उदाहरण की सहायता से व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रायोगिक समूह में समूह सदस्यों को अनाश्रित परिवर्त्य प्रहस्तन के लिए प्रस्तुत किया जाता है जबकि नियंत्रित समूह प्रायोगिक समूह के सफल संचालन हेतु वांछनीय कारक जुटाने का कार्य करते हुए मात्र एक तुलना समूह बनकर जो प्रहस्तित परिवर्त्य से स्वयं को स्वतंत्र, रखता है। उदाहरणार्थ घटनास्थ अपने आपको अकेला पाकर स्वयं के निर्णय के आधार पर कार्य करना. नियंत्रित समूह के अन्तर्गत माना जाता है जबकि किसी अन्य की उपस्थिति में स्वयं के कुछ करने से रोक लेने की स्थिति प्रायोगिक समूह माना जाता है।
नियंत्रित समूह के निस्पादन की तुलना प्रायोगिक समूह से की जाती है। नियंत्रित समूह से प्राप्त परिणामों की गणना करने पर वह प्रायोगिक समूह से अधिक प्रभावकारी पाया जाता है। किसी प्रयोग से संबद्ध परिवों को नियंत्रित रखकर ही वांछनीय फल प्राप्त किया जाता है जिसके लिए आश्रित परिवर्त्य ही प्रभाव में रखा जाता है। जैसे किसी एक ही कक्षा के छात्रों पर शिक्षण कार्य का प्रभाव अलग-अलग पाया जाना बतलाता है कि जिन छात्रों पर विशिष्ट कारकों (शोर-गुल, गर्मी, नटखट साथी, मन का भटकना, ललक की कमी) का प्रभाव पड़ रहा हो, उसे शिक्षण कार्य से कम लाभ मिलता है।
प्रायः बहुत नियंत्रित प्रयोगशाला परिस्थितियों में प्रयोग किये जाते हैं तथा दो घटनाओं या परिवों के मध्य कार्य-करण संबंध स्थापित करके किसी एक कारक में परिवर्तन लाकर अन्य अचर कारकों पर प्रभाव का अध्ययन करते हैं। अनुसंधानकर्ता दो परिवर्त्य के मध्य संबंध स्थापित करने का प्रयास करता है। प्रायोगिक दशा में अनाश्रित परिवयों को कारण माना जाता है तथा आश्रित परिवर्त्य प्रभाव के अधीन माना जाता है। प्रायोगिक अध्ययनों में सभी संबद्ध सार्थक परिवर्त्य को नियंत्रण में रखना होता है ताकि अच्छा परिणाम प्राप्त हो।
उदाहरणार्थ:
तापमान के नियंत्रण के लिए पंखा, कूलर, ए.सी. का उपयोग किया जाता है। वाद्य साधनों पर रोक लगाकर ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित रखा जा सकता है। सड़कों पर ठोकरों की ऊँचाई एवं संख्या बढ़ाकर वेतहासा भागती गाड़ी की चाल को नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार माना जा सकता है कि लाभकारी परिणाम देने के लिए प्रायोगिक समूह-उत्तरदायी होता है जबकि परिणाम को यथाशीघ्र सुधरे स्वरूप में प्रदान करने की स्थिति नियंत्रित समूह उत्पन्न करता है।
उदाहरणार्थ एक सभा संचालन की स्थिति ली जाए तो वक्ता अपने कथन से श्रोता को तभी लाभ पहुँचा सकता है जब भीड़ नियंत्रित हो, वे अनुशासित रहें, विद्युत व्यवस्था सही हो, शान्ति बनाकर रखी जाए। नियंत्रण समूह में परिवयों का निरसन, प्राणिगत परित्वों के साथ प्रयोग-स्थल तथा प्रयोगकर्ता के विचार आदि को प्रमुख स्थान मिला है। सारांशतः माना जाता है कि प्रायोगिक विधि कार्य-कारण सम्बन्ध की स्थापना करती है। प्रायोगिक एवं नियंत्रण समूह का उपयोग करके अनाश्रित परिवों की उपस्थिति का प्रभाव आश्रित परिवर्त्य पर देखा जाता है।
प्रश्न 5.
एक अनुसंधानकर्ता साइकिल चलाने की गति एवं लोगों की उपस्थिति के मध्य संबंध का अध्ययन कर रहा है। एक उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण कीजिए तथा अनाश्रित एवं आश्रित परिवों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक अध्ययन के क्रम में कोई अनुसंधानकर्ता कम-से-कम परिवयों के मध्य संबंध स्थापित करके सह संबंधात्मक अनुसंधान के परिणाम के रूप में उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण करता है। दी गई स्थिति में साइकिल चलाने की गति पर लोगों की उपस्थिति के मध्य सम्बन्ध जोड़ने की बात कही गई है।
अनेक बार के प्रेक्षण के आधार पर एक परिकल्पना प्रस्तुत की जाती है जिसके अनुसार, “लोगों की उपस्थिति के दर बढ़ते जाने पर साइकिल चलाने की गति घटती जाती है, क्योंकि भीड़ के बढ़ने के फलस्वरूप पथ अवरोधी स्थिति में आ जाता है।” अनुसंधन की इस दशा को ऋणात्मक सहसम्बन्ध की श्रेणी में रखा जा सकता है जिसमें एक परिवर्त्य (x) का मान बढ़ने से दूसरे अपवर्त्य () का मान कम हो जाता है।
साइकिल की गति और जुटने वाली भीड़ को क्रमशः आश्रित और अनाश्रित परिवर्त्य माना जा सकता है। प्रायोगिक दशा में अनाश्रित परिवर्त्य कारण होता है तथा आश्रित परिवर्त्य प्रभाव को माना जाता है। यह भी माना जाता है कि आश्रित परिवर्त्य से उस गोचर का बोध होता है जिसकी अनुसंधानकर्ता व्याख्या करना चाहता है जो मात्र अनाश्रित परिवर्त्य में परिवर्तन के परिणामस्वरूप व्यवहार में आनेवाला परिवर्तन मात्र है। इस आधार पर साइकिल की गति आश्रित परिवर्त्य तथा परिवर्तन के कारण का कारक लोगों की उपस्थिति अनाश्रित परिवर्त्य माना जा सकता है।
प्रश्न 6.
जाँच की विधि के रूप में प्रायोगिक विधि के गुणों एवं अवगुणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जाँच की विधि के रूप में प्रायोगिक विधि सतर्कतापूर्वक संचालित प्रक्रिया पर आधारित भिन्न-भिन्न प्रयोग के कारण सुपरिणामी माने जाते हैं। नियंत्रित दशा में दो घटनाओं या परित्वों के मध्य कार्य-कारण संबंध स्थापित करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। प्रयोग में एक कारक में ऐच्छिक परिवर्तन लाकर दूसरे कारक पर पड़नेवाले प्रभाव का अध्ययन किया जाता है जबकि अन्य संबंधित कारक स्थिर रखे जाते हैं।
प्रायोगिक विधि अपने साथ कुछ गुणों तथा कुछ अवगुणों को साथ लेकर चलती है।
प्रायोगिक विधि के गुण:
- वैज्ञानिक विधि – सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन करने में प्रायोगिक विधि क्रमबद्धता पर अधिक ध्यान देता है।
- नियंत्रक – यह प्रयोग की तीव्रता को प्रदूषण मुक्त रखता है तथा उसे अव्यावहारिक होने से बचाता है।
- वस्तुनिष्ठता – प्रायोगिक विधि द्वारा प्राप्त सभी प्रदत्त वस्तुनिष्ठ तथा पूर्वधारणा मक्त होते हैं।
- सहजता – प्रायोगिक विधि से प्राप्त परिणामों को सांख्यिकीय निरूपण के माध्यम से तुलनात्मक अध्ययन के लिए सहज माना जाता है।
- अनुसंधानकर्ता के लिए रुचिकर – अनुसंधानकर्ता किसी संदर्भ में आश्रित एवं अनाश्रित परित्वयों का चयन अपनी रुचि के अनुसार करता है।
- स्पष्ट व्याख्या – अनुसंधानकर्ता आश्रित एवं अनाश्रित परित्वयों के मध्य कार्य-करण सम्बन्ध की स्पष्ट व्याख्या करने में सक्षम होता है।
- बहुआयामी क्षेत्र – प्रायोगिक विधि के माध्यम से मानव-जीवन से जुड़े भिन्न-भिन्न क्षेत्रों (व्यवहार, संवेदना, दक्षता) का सरल अध्ययन करता है।
प्रायोगिक विधि के अवगुण:
- अक्षमता – किसी विशिष्ट समस्या का अध्ययन प्रायोगिक विधि से सदैव संभव नहीं होता है। जैसे-बुद्धि स्तर पर पौष्टिक आहार के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए किसी को भूखा रखना संभव नहीं है।
- जानकारी का अभाव – समस्त प्रासंगिक परिवयों को पूर्णत: जानना और उनका नियंत्रण करना कठिन होता है।
- प्रतिकूल दशा – प्रयोग प्रायः बहुत नियंत्रित प्रयोगशाला परिस्थितियों में किए जाते हैं जो वास्तविक व्यवहार में सुलभ नहीं हो पाते हैं। जैसे, तापमान, आँधी, प्रकाश, ध्वनि आदि प्रतिकूल दशा भी उत्पन्न कर सकते हैं।
- क्षेत्र प्रयोग के कारण उत्पन्न कठिनाई – शोधकर्ताओं को अव्यवस्थित किए बिना क्षेत्र प्रयोग संभव नहीं होता।
- प्रयोग कल्प विधि की बाध्यता – भूकंप, बाढ़, अकाल, अपहरण जैसी विपदाओं से जूझते बच्चों को प्रयोगशला के माध्यम से मदद नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न 7.
डॉ. कृष्णन व्यवहार को बिना प्रभावित अथवा नियंत्रित किए एक नर्सरी विद्यालय में बच्चों के खेल-कूद वाले व्यवहार का प्रेक्षण करने एवं अभिलेख तैयार करने जा रहे हैं। इसमें अनुसंधान की कौन-कौन सी विधि प्रयुक्त हुई है? इसकी प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए तथा उसके गुणों और अवगुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बच्चों के खेलकूद बदले व्यवहार का प्रेक्षण करने एवं व्यवहार को बिना प्रभावित अथवा नियत्रित किए अभिलेख तैयार करने हेतु प्रकृतिवादी तथा असहभागी प्रेक्षण-प्रक्रिया को अपनाना सहज, स्वाभाविक एवं वस्तुनिष्ठ होता है। चूंकि प्रेक्षण मनोवैज्ञानिक जाँच का एक सशक्त उपकरण है जिसे व्यवहार के वर्णनं की प्रभावकारी विधि मानी गयी है। अतः बच्चों के व्यवहार की परख के लिए हमें सदा सतर्क एवं जागरूक रहना होता है। प्रकृतिवादी प्रेक्षण के क्रम में प्रेक्षणकर्ता परिस्थिति का न तो प्रहस्तन करता है और न ही उसको नियंत्रित करने का प्रयास करता है।
असहभागी प्रेक्षण की प्रक्रिया में किसधी व्यक्ति या घटना का प्रेक्षण दूर से किया जाता है जिसमें वीडियो कैमरा तथा अभिलेख संरचना अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। अनुसंधानकर्ता अभिलेख तैयार करते समय व्यवहार की व्याख्या करने में अपनी रुचि एवं जागरूकता को नष्ट होने से बचाये रहता है। निरीक्षण विधि द्वारा बालकों के व्यवहार का निरीक्षण स्वाभाविक परिस्थिति में होता है। इनमें बच्चों की प्रतिक्रियाओं का क्रमबद्ध और योजनाबद्ध रूप में अध्ययन करके वांछनीय व्यवहार का पता लगाना सरल होता है, क्योंकि निरीक्षण विधि का स्वरूप वस्तुनिष्ठ होता है। प्रेक्षण के पश्चात् तैयार अभिलेखों का विश्लेषण करके सही अर्थ पाने का प्रयास किया जाता है।
खेलकूद वाले व्यवहार के अन्तर्गत रुचि, स्वभाव, जिज्ञासा, जीत की ललक, कला, प्रयास आदि तत्वों का सामूहिक प्रेक्षण किया जाता है। इसमें प्रतिभागियों की स्वैच्छिक सहभागिता, उनकी सूचित सहमति तथा परिणामों के विषय में प्रतिभागियों से भागीदारी करने जैसी नैतिक सिद्धांतों को अनुसंधान मूलतः परखने का प्रयास किया जाता है। सांख्यिकीय प्रक्रियाओं का उपयोग करके उचित निष्कर्ष को प्राप्त कर लिया जाता है।
प्रेक्षण विधि के युग:
- समय की बचत – बच्चों के व्यवहार का सामूहिक अध्ययन करने से दक्षतापूर्ण सूचनाओं के आधार पर सर्वेक्षण शीघ्रता से पूरा कर लिए जा सकते हैं।
- वस्तुनिष्ठता – मनोवैज्ञानिक परीक्षण से प्राप्त परिणाम में वस्तुनिष्ठता एवं प्रमाणीकरण बना रहता है।
- आयु वर्ग का विस्तार – परीक्षण किसी आयु वर्ग विशेष के लिए।
- सहसंबंधात्मक अनुसंधान की प्रवृत्ति का विकास – कार्यरत प्रवत्यों द्वारा प्राप्त सहसंबंध गुणांक के द्वारा यथासंभव व्यावहारिक एवं उपयोगी निष्कर्ष की प्राप्ति होती है।
- अर्थद्वन्द्व से मुक्ति – विशेषता की खोज में किया जाने वाला अनुसंधान स्पष्ट रूप से बिना किसी अर्थद्वन्द्व के परिभाषित किया जा सकता है।
- गणना अथवा मापन में सहजता – अभिलेखों तथा आँकड़ों या पठनों के आधार पर प्रतिक्रियादाताओं की गणना की विधि सरल बनायी जा सकती है।
- गति एवं शक्ति का महत्त्व – प्रतिभागियों की गति एवं शक्ति की पहचान करने में परीक्षण विधि अनुकूल माना जाता है।
- पूर्वाग्रह से मुक्ति – व्यवहार की परख करने वाले अनुसंधान में पूर्वाग्रह को शामिल नहीं किया जा सकता है।
- निष्पक्षता – व्यवहार सम्बन्धी सही सूचना पाने में निष्पक्षता से गणना की जाती है।
- स्वाभाविक परिणाम – अनुसंधानकर्ता की सतर्कता के फलस्वरूप व्यवहार का स्वाभाविक स्वरूप जानने का अहसास मिलता है।
- विश्वसनीयता एवं पुनरावृत्ति की सुविधा-अनुसंधान क्रम में किये गये अध्ययन को दुहराया जा सकता है और परिणाम की विश्वसनीयता कायम रखी जा सकती है।
अनुसंधान प्रक्रिया के अवगुण:
- प्रदत्तों का अभाव – निरीक्षण क्रम में सभी वांछनीय सूचनाएँ तथा साधन सरलता से सभी स्थितियों में उपलब्ध नहीं होते हैं।
- समय का अभाव – परीक्षण के लिए निर्धारित प्रक्रिया कब प्रारम्भ होगी और कब समाप्त हो जाएगी यह अनुसंधानकर्ता नहीं जान पाता है। समय के अभाव में सम्पूर्ण अभिलेख प्राप्त नहीं होते हैं।
- अपूर्ण निष्कर्ष – साधनों की कमी, समय की अनिश्चितता, परिकल्पना की स्थिति से तालमेल का नहीं होना आदि ऐसे कारण हैं जिससे निष्कर्ष अपूर्ण रह जाता है जिससे अनुसंधान की प्रक्रिया सत्य और विश्वसनीय नहीं रह पाती।
- मानसिक प्रक्रियाओं के सामूहिक अध्ययन की बाध्यता – एक प्रकार के व्यवहार में जुड़े प्रतिभागियों की सामूहिक मानसिक क्रियाओं का आकलन संभव नहीं होता है। शारीरिक, वैचारिक एवं मानसिक दशाओं में भिन्नता के कारण प्रतिभागियों (बच्चों) के संवेगों की जानकारी सही-सही नहीं मिल पाती है।
- श्रमसाध्यता – प्रेक्षण करके सही अभिलेख तथा निष्कर्ष प्राप्त करना बहुत ही बुद्धि और श्रम चाहता है। प्रेक्षण विधि श्रमसाध्य होता है जो अधिक समय लेती है तथा प्रेक्षक के पूर्वाग्रह के कारण गलत सूचना संग्रह करने का कारण बन जाता है।
- पूर्वाग्रह – हम चीजों को उसी ढंग से देखते हैं जैसा कि हम स्वयं होते हैं न कि जैसी चीजें होती हैं। अर्थात् पूर्वाग्रह के कारण हम किसी घटना या प्रक्रिया की व्याख्या करने में गलती कर बैठते हैं। वास्तविक व्यवहार पर आधारित सूचना संग्रह में हमसे भूल हो जाती है।
- समय और नियंत्रण या परियोजना की असुविधा – समय और साधन से संतुलन बनाने वाली क्रिया का हमेशा मिल जाना लगभग असंभव होता है।
- निरसन की समस्या – प्रेक्षण के क्रिया-स्थल को उचित वातावरण बनाये रखने के लिए तापमान और ध्वनि जैसे परिवों का निरसन कठिन कार्य है।
- प्रतिसंतुलनकारी तकनीक और यादृक्षिक वितरण – सम्बन्धी दोष समूहों के बीच विभवपरक अंतर लाकर वांछनीय परिणामों को प्रभावित करते हैं, क्योंकि कार्यों को निश्चित क्रम में सजाकर अध्ययन करना तथा प्रायोगिक और नियंत्रित समूहों में प्रतिभागियों का वितरण दोनों अच्छे परिणाम के लिए आवश्यक होते हैं।
- क्षेत्र प्रयोग एवं प्रयोग कल्प – प्रेक्षण के लिए उपलब्ध क्षेत्र या विधि अनुसंधान के मनोनुकूल नहीं हो सकता है तथा भूकंप, बाढ़ जैसी विपदाओं से त्रस्त प्रतिभागियों के लक्षण अस्वाभाविक बन जाते हैं। प्रतिभागियों की दशा को उत्साहित, भयमुक्त अथवा चिन्तारहित बनाये रखना कठिन कार्य है।
- नैतिक मुद्दे – मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के क्रम में अनुसंधानकर्ता तथा प्रतिभागियों में से प्रत्येक नैतिक सिद्धांत (निजता, रुचि, उपकार, सुरक्षा) का पालन करेगा ही, यह मानना कठिन है।
प्रश्न 8.
उन दो स्थितियों का उदाहरण दीजिए जहाँ सर्वेक्षण विधि का उपयोग किया जा सकता है? इस विधि की सीमाएँ क्या हैं?
उत्तर:
परिष्कृत तकनीकों का उपयोग करके लोगों की अभिवृत्ति का पता लगाना तथा विभिन्न प्रकार के कारण-कार्य सम्बन्धों को पूर्वानुमान प्रस्तुत करना सर्वेक्षण विधि का प्रधान उद्देश्य होता है। उदाहरणार्थ –
- चुनाव के समय यह जानने के लिए सर्वेक्षण किया जाता है कि मतदाता किस राजनीतिक दल विशेष को वोट देंगे अथवा वे किस प्रत्याशी के पक्ष में अपना विश्वास प्रकट करते हैं।
- सर्वेक्षण अनुसंधान लोगों के मत, अभिवृत्ति और सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करने के लिए निम्न. प्रश्नों का मौलिक उत्तर जानना चाहता है –
- भारत के लोगों को किन चीजों से प्रसन्नता मिलती है।
- लोग परिवार नियोजन, पंचायती राज, स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवस्था, शिक्षा सम्बन्धी कार्यक्रम आदि के. सम्बन्ध में किस स्तर की जानकारी रखते हैं।
सर्वेक्षण विधि की सीमाएँ –
विविध प्रकार के कारण-कार्य सम्बन्धों से जुड़े पूर्वानुमान को उपयोगी स्तर प्रदान करने के लिए प्रयोग तथा अनुसंधानकर्ता से सम्बन्धित कुछ सीमाएँ निर्धारित हैं –
1. अनुसंधानकर्ता:
अनुसंधनकर्ता को विषय तथा तकनीकों का ज्ञान होना चाहिए। उन्हें निःस्वार्थ, निर्भय एवं जिज्ञासु होना चाहिए। पूर्वानमान व्यक्त करने में उन्हें कुशल होना चाहिए।
2. मनोवैज्ञानिक प्रदत्त:
निर्धारित विषयों से सम्बन्धित सूचनाओं का ही संग्रह करना चाहिए। संग्रह की गई सूचना सत्य, मानक एवं उपयोगी होनी चाहिए।
3. विधियाँ और उपकरण:
सर्वेक्षण अनुसंधान के लिए सरल विधियाँ एवं वांछनीय उपकरणों का उपयोग किया जाना चाहिए।
4. स्वाभाविक प्रक्रियाएँ:
सर्वेक्षण अनुसंधान की सफलता के लिए आधुनिक तकनीकों पर आधारित प्रक्रियाओं को अपनाना चाहिए।
5. वैयक्तिक साक्षात्कार:
साक्षात्कार के लिए पूर्व निर्धारित प्रश्नों को ही प्रयोग में लाना चाहिए। साक्षात्कारकर्ता को प्रश्नों की शब्दावली में अथवा उसके पूछे जाने के क्रम में कोई भी परिवर्तन करने की स्वतंत्रता नहीं होती है। प्रतिक्रियादाता जो संवेदनशील तथा सहज दशा में रहकर इष्टतम उत्तर देने के लिए स्वतंत्र रहता है, समय-सीमा की छूट रहती है। साक्षात्कार के समय सभी परिस्थितियों को लचीला एवं अनुकूलित होना आवश्यक होता है।
6. प्रश्नावली सर्वेक्षण:
मुक्त तथा अमुक्त प्रश्नों के उत्तर लिखित या मौखिक रूप में देने की भी छूट होती है। इस विधि में पढ़ने योग्य प्रतिक्रियादाता ही भाग ले सकते हैं। प्रश्नावली का उपयोग पृष्ठभूमि सम्बन्धी एवं जनांकिकीय सूचनाओं, भूतकाल के व्यवहारों, अभिवृत्तियों एवं अधिमतों, किसी विषय विशेष के ज्ञान तथा व्यक्तियों की प्रत्याशाओं एवं आकांक्षाओं की जानकारी पर आधारित प्रश्नों के माध्यम से सर्वेक्षण किया जा सकता है। इसमें आमने-सामने बैठकर या डाक द्वारा लोगों की प्रतिक्रियाएँ जानने की छूट होती हैं।
7. दूरभाष सर्वेक्षण:
गलत सूचनाओं तथा अवांछनीय प्रतिक्रिया से बचे रहने की आवश्यकता होती है। विधि का चयन करने में सावधानी रखनी होती है।
8. मनोवैज्ञानिक परीक्षण:
जिस विशेषता के लिए परीक्षण की व्यवस्था की जाती है उसके स्पष्ट रूप से बिना किसी अर्रद्वन्द्व को परिभाषित किया जाना चाहिए तेथा सभी प्रयुक्त प्रश्नों को विषय से सम्बन्धित होना चाहिए। आयु वर्ग तथा समय-सीमा की छूट रहती है। विभिन्न पाठकों के लिए समान अर्थ देने वाले शब्दों का उपयोग किया जाना जरूरी है। अनुसंधानकर्ता को परिणाम की विश्वसनीयता, वैधता तथा मानकों पर सही आकलन करके शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
9. विविध:
विषय एवं विधि के चयन में सावधनी रखते हुए निष्पादन सम्बन्धी सही सूचना प्राप्त करनी चाहिए। सही योजना, अनेक विधियों से प्राप्त प्रामाणिकता आदि का ध्यान महत्वपूर्ण होता है।
10. वास्तविक शून्य बिन्द का अभाव:
मनोवैज्ञानिक अध्ययन में जो कुछ लब्धांक मिलते हैं वे अपने आप में निरपेक्ष नहीं होती बल्कि उनका सापेक्ष मूल्य होता है।
11. मनोवैज्ञानिक उपकरणों का सापेक्षिक स्वरूप:
किसी विषय से सम्बन्धित गुणात्मक अध्ययन के लिए दो या अधिक शोधकर्ताओं को अवसर दिया जाना चाहिए। प्रत्येक से प्राप्त प्रेक्षणों पर सामुदायिक तर्क-वितर्क करके अतिम स्वरूप प्रदान करना चाहिए।
12. नैतिक मुद्दे:
प्रतिभागियों तथा अनुसंधानकर्ता के लिए रुचि, सहयोग, परोपकार, सुरक्षा, प्रोत्साहन तथा भागीदारी से सम्बन्धित सभी सुविधाएं जुटाने का नैतिक कर्तव्य बनता है। फलतः स्वैच्छिक सहभागिता, सूचित सहमति स्पष्टीकरण, अध्ययन के परिणाम की भागीदारी और प्रदत्त स्रोतों की गोपनीयता प्रमुख विचार के योग्य माने जाते हैं।
प्रश्न 9.
साक्षात्कार एवं प्रश्नावली में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सर्वेक्षण अनुसंधन सूचना –
संग्रह हेतु विभिन्न तकनीकों की सहायता लेते हैं। प्रयुक्त तकनीकों में से साक्षात्कार और प्रश्नावली दो प्रचलित विधियाँ हैं। इन दोनों के स्वरूप, प्रभेद एवं निर्णय क्षमताओं में कुछ सूक्ष्म अंतर होते हैं जो निम्न वर्णित हैं –
प्रश्न 10.
एक मानकीकृत परीक्षण की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एक मानकीकृत (संरचित) परीक्षण एक विशिष्ट प्रकार का मनोवैज्ञानिक परीक्षण होता है जिसका उपयोग मानसिक अथवा व्यावहारपरक विशेषताओं के संबंध में किसी व्यक्ति की स्थिति के मूल्यांकन में करते हैं। परीक्षण की रचना एक व्यवस्थित प्रक्रिया है तथा इसके कुछ निश्चित चरण होते हैं। इसके अन्तर्गत एकांशों के विस्तृत विश्लेषण तथा समग्र परीक्षण की विश्वसनीयता, वैधता एवं मानकों के आकलन आते हैं।
विश्वसनीयता की परख परीक्षण पुनः परीक्षण के आधार पर संभव होता है। परीक्षण के उपयोग योग्य होने के लिए उसकी वैधता भी आवश्यकता होता है। इससे पता चलता है कि क्या परीक्षण गणितीय उपलब्धि का मापन कर रहा है अथवा भाषा दक्षता का इसके बाद कोई परीक्षण प्रामाणिक तब माना जाता है जब परीक्षण के लिए मानक विकसित कर लिए जाते हैं। इससे किसी परीक्षण पर व्यक्तियों के प्राप्त लब्धांक की भी व्याख्या करने में सहायता मिलती है।
प्रश्न 11.
मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमा निम्न वर्णित है:
- मनोवैज्ञानिक जाँच के क्रम में संग्रह किए जानेवाले व्यवहार अथवा किसी घटना का यथासंभव सही-सही वर्णन प्राप्त किया जाता है।
- प्राप्त सूचनाओं के विवरण से सम्बन्धित पूर्वकथन की रचना की जाती है।
- व्यवहार के कारणों की जानकारी प्राप्त करनी होती है।
- वैज्ञानिक जाँच के क्रम में सूचनाओं का विश्लेषण तथा अनुप्रयोग आवश्यक होते हैं।
- भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदत्तों को निश्चित क्रम में सजाना होता है।
- जाँच की विधियों का चयन और अनुप्रयोग में सतर्कता रखनी होती है।
- प्रेक्षण और अभिलेख की व्याख्या सहज होनी चाहिए।
- कार्य-करण सम्बन्धों की जानकारी एवं अनुप्रयोग आवश्यक होता है।
- प्रेक्षण सम्बन्धी गलत सूचनाओं एवं प्रतिक्रियाओं से बचा रहना चाहिए।
- समय सीमा पर ध्यान देना वांछनीय होता है।
- अनुसंधानकर्ता को अधिक विधियों का उपयोग करना चाहिए।
- लब्धांकों की तुलना करके सहसंबंध गुणांक का अनुमान लगाया जाता है।
- मनोवैज्ञानिक मापन सम्बन्धी समस्याओं (शून्य विधि का अभाव, मनोवैज्ञानिक उपकरणों का सापेक्षिक स्वरूप, गुणात्मक प्रदत्तों की आत्मपरक व्याख्या) के समाधान के बाद ही निष्कर्ष तय करना होता है। इन समस्याओं को मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमा माना जाता है।
प्रश्न 12.
मनोवैज्ञानिक जाँच करते समय एक मनोवैज्ञानिक को किन नैतिक मार्गदर्शी सिद्धांतों का पालन करना चाहिए?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक जाँच करते समय एक मनोवैज्ञानिक को निम्न वर्णित मार्गदर्शी सिद्धांतों का पालन करना चाहिए –
नैतिक सिद्धांत:
अध्ययन में भाग लेने के लिए व्यक्ति की निजता एवं रुचि का सम्मान, अध्ययन के प्रतिनिधियों को उपकार अथवा किसी खतरे से उसकी सुरक्षा तथा अनुसंधान के लाभ में सभी प्रतिभागियों की भागीदारी वांछनीय है। इसके पक्ष में निम्न बिन्दुओं पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है –
1. स्वैच्छिक सहभागिता:
अध्ययन में जुटे प्रतिभागियों को अध्ययन के लिए विषय को चयन करने में तथा समय निर्धारण में बिल्कुल स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। प्रतिभागियों के निर्णय पर प्रलोभन, दंड, त्याग का प्रभाव नहीं डालना चाहिए।
2. सूचित सहमति:
प्रतिभागियों की दक्षता का उपयोग, प्रदत्त संगणक का प्रयोग, विचार को बदलने के लिए बाध्य करना आदि नैतिक सिद्धांत के विरुद्ध किया है। अच्छा तो यह होगा कि प्रतिभागियों को संभावित घटनाओं अथवा त्रुटियों की सूचना देकर उनकी सहमति ले लेनी चाहिए। प्रतिभागियों को अनायास शारीरिक या मानसिक उलझन में नहीं डालना चाहिए।
3. स्पष्टीकरण:
अध्ययन के विषय एवं विधियों का स्पष ज्ञान प्रतिभागियों को अवश्य दे देना चाहिए। झूठा भरोसा देना प्रतिभागियों से धोखा करना माना जाएगा।
4. अध्ययन के परिणाम की भागीदारी:
प्रदत्त संग्रह, प्रेक्षणों का अध्ययन, निष्कर्ष निकालना तथा अध्ययन के परिणाम की सही-सही सूचना प्रतिभागियों को मिल जानी चाहिए। अध्ययन के परिणाम के कारण कौन चिंतित है, कौन खुश है, कौन उससे फायदा उठाना चाहता है आदि अंधकार में रखने वाली स्थिति नहीं है। प्रतिभागियों की प्रत्याशा पर विशेष ध्यान रखना चाहिए।
5. प्राप्त स्रोत की गोपनीयता:
प्रतिभागियों से संबंधित सभी सूचनाओं को अत्यन्त गोपनीय रखा जाना चाहिए। प्राप्त स्रोत की गोपनीयता के अभाव में बाहरी व्यक्तियों के द्वारा सुरक्षा खतरे में पड़ सकता है। उसके लिए संकेत संख्या, शब्द संकेत
की रचना की जानी चाहिए।
Bihar Board Class 11 Psychology मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ Additional Important Questions and Answers
अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
परिकल्पना किसे कहते हैं?
उत्तर:
समस्या की पहचान के बाद शोधकर्ता समस्या समाधान के लिए संभावित हल खोजते है, काल्पनिक समाधान हेतु प्रस्तुत कथन को परिकल्पना कहा जाता है। जैसे, टेलीविजन पर हिंसा का दृश्य देखने से बच्चों में आक्रामकता आती है अथवा प्रतियोगिता या परीक्षा में असफल हो जाने से उत्साह मंद पड़ जाता है आदि।
प्रश्न 2.
प्रदत्त संग्रह से सम्बन्धित किन चार पहलुओं के बारे में उचित निर्णय लेना होता है?
उत्तर:
(क) अध्ययन के प्रतिभागी (बच्चे, किशोर, कर्मचारी)
(ख) प्रदत्त संग्रह की विधि (प्रेक्षण, विधि, प्रायोगिक विधि)
(ग) अनुसंधान में प्रयुक्त उपकरण (साक्षात्कार, प्रश्नावली) तथा
(घ) प्रदत्त संग्रह की प्रक्रिया (वैयक्तिक, सामूहिक)।
प्रश्न 3.
मनोवैज्ञानिक अनुसंधान किस लिए किए जाते हैं?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक अनुसंधान विवरण, पूर्वकथन, व्याख्या, व्यवहार नियंत्रण तथा वस्तुनिष्ठ तरीके से उत्पादित ज्ञान के अनुप्रयोग के लिए किए जाते हैं।
प्रश्न 4.
मनोवैज्ञानिक जांच के विभिन्न लक्ष्यों में से किसे सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक जांच का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य अनुप्रयोग को माना जाता है जो लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाकर उत्पन्न समस्याओं के समाधान के लिए सुगम मार्ग बनाते हैं।
प्रश्न 5.
अनुसंधान के वैकल्पिक प्रतिमान से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मानव व्यवहार का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है जिसका प्रेक्षण, मापन तथा नियंत्रण किया जा सकता है। आधुनिक व्याख्यात्मक परम्परा के अनुसार समझ को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। फलतः प्राकृतिक आपदाओं और असाध्य रोगों की पहचान और उससे राहत पाने की युक्ति खोजी जाती है।
प्रश्न 6.
मनोवैज्ञानिक पूछताछ की विभिन्न विधियों का नाम लिखें।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक पूछताछ अथवा मनोविज्ञान की विभिन्न विधियाँ हैं जो इस प्रकार हैं –
- निरीक्षण विधि
- साक्षात्कार विधि
- प्रयोगात्मक विधि
- व्यक्ति इतिहास विधि
- प्रश्नावली विधि इत्यादि
प्रश्न 7.
निरीक्षण विधि क्या है?
उत्तर:
निरीक्षण विधि एक ऐसी विधि है जिसमें पूर्व योजना के अनुसार क्रमबद्ध, पूर्वाग्रह मुक्त नियंत्रित एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन होता है। बाल मनोविज्ञान की समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन में निरीक्षण विधि एक महत्वपूर्ण विधि है।
प्रश्न 8.
निरीक्षण विधि के जन्मदाता कौन थे?
उत्तर:
निरीक्षण विधि के जन्मदाता जे. बी. वाटसन थे।
प्रश्न 9.
निरीक्षण विधि का स्वरूप कैसा है?
उत्तर:
निरीक्षण विधि का स्वरूप वस्तुनिष्ठ है।
प्रश्न 10.
निरीक्षण विधि का मूल उद्देश्य बतायें।
उत्तर:
निरीक्षण विधि द्वारा बालकों के व्यवहार का निरीक्षण स्वाभाविक परिस्थिति में होता है। इसमें बच्चों की प्रतिक्रियाओं का क्रमबद्ध और योजनाबद्ध रूप में अध्ययन होता है।
प्रश्न 11.
साक्षात्कार विधि क्या है?
उत्तर:
साक्षात्कार विधि वैसी विधि है जिसमें साक्षात्कार करनेवाले विशेषज्ञों का एक समूह होता है जिसे साक्षात्कार बोर्ड कहते हैं। साक्षात्कार आमने-सामने होता है। इस विधि में सूचनाओं एवं तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रश्न-उत्तर पद्धति को अपनाया जाता है।
प्रश्न 12.
मनोवैज्ञानिक प्रदत्त किसे कहते हैं?
उत्तर:
व्यक्तियों के व्यक्त या अव्यक्त व्यवहारों, आत्मपरक अनुभवों एवं मानसिक प्रक्रियाओं से सम्बन्धित जानकारियों के संग्रह को वैज्ञानिक प्रदत्त (सूचनाएँ) कहा जाता है। प्रदत्त कोई स्वतंत्र सत्व नहीं होते बल्कि वे एक संदर्भ में प्राप्त होते हैं तथा उस सिद्धांत एवं विधि से आबद्ध होते हैं।
प्रश्न 13.
मनोविज्ञान के प्रदत्तों को किन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है?
उत्तर:
- जनांकिकीय
- भौतिक
- दैहिक
- मनोवैज्ञानिक सूचनाएँ
प्रश्न 14.
मनोविज्ञान की महत्वपूर्ण विधियों की ओर संकेत करें।
उत्तर:
- प्रेक्षण
- प्रायोगिक
- सहसंबंधात्मक
- सर्वेक्षण
- मनोवैज्ञानिक प्रेक्षण तथा
- व्यक्ति अध्ययन
प्रश्न 15.
प्रकृतिवादी परीक्षण की एक प्रमुख विशेषता बतायें।
उत्तर:
प्रेक्षणकर्ता परिस्थिति का न तो प्रहस्तन करता है और न ही उसको नियंत्रित करने का प्रयास करता है।
प्रश्न 16.
असहभागी प्रेक्षण किसे कहते हैं?
उत्तर:
जिस प्रेक्षण में किसी व्यक्ति या घटना का प्रेक्षण दूर से करते हैं। गतिविधियों में बिना भाग लिए किये गये प्रेक्षण को असहभागी प्रेक्षण कहते हैं।
प्रश्न 17.
प्रेक्षण विधि से होनेवाले लाभ का उल्लेख करें।
उत्तर:
प्रेक्षण विधि में अनुसंधानकर्ता लोगों एवं उनके व्यवहारों का प्राकृतिक स्थिति जैसे वह घटित होती है, में अध्ययन कर सकता है।
प्रश्न 18.
प्रेक्षण की प्रायोगिक विधि से किस सम्बन्ध की व्याख्या संभव है?
उत्तर:
प्रायोगिक विधि एक नियंत्रित दशा में दो घटनाओं या परिवों के मध्य कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए किया जाता है।
प्रश्न 19.
सहसंबंधात्मक अनुसंधान किन-किन स्थितियों में पाया जाता है?
उत्तर:
- धनात्मक (गुणांक + 1.00 के निकट)
- ऋणात्मक (गुणांक 0 और – 1.0 के बीच) तथा
- शून्य सहसंबंध (गुणांक – 0.02 अथवा + 0.03)।
प्रश्न 20.
सर्वेक्षण अनुसंधानकर्ता सूचना एकत्रित करने के लिए किन प्रमुख तकनीकों का उपयोग करता है?
उत्तर:
- साक्षात्कार
- प्रश्नावली
- दूरभाष तथा
- नियंत्रित प्रेक्षण
प्रश्न 21.
साक्षात्कार के दो रूपों के नाम बतावें।
उत्तर:
- संरचित या मानकीकृत तथा
- असंरचित या अमानकीकृत
प्रश्न 22.
सर्वेक्षण की सीमा क्या होती है?
उत्तर:
- गलत सूचनाओं के द्वारा वास्तविक विचार को छिपाने की प्रवृत्ति
- लोग कभी-कभी वैसी प्रतिक्रियाएँ देते हैं जैसा शोधकर्ता जानना चाहता है।
प्रश्न 23.
शब्दावली के प्रयोग में क्या सावधानी रखनी होती है?
उत्तर:
किसी भी परीक्षण के एकांशों की शब्दावली ऐसी होनी चाहिए कि वह विभिन्न पाठकों को समान अर्थ का बोध कराए।
प्रश्न 24.
परीक्षण की सफलता के क्रम में किन तीन तत्वों पर ध्यान रखा जाता है?
उत्तर:
- परीक्षण की विश्वसनीयता
- परीक्षण की वैधता तथा
- परीक्षण के लिए प्रामाणिक मानक।
प्रश्न 25.
प्रमाणिक साक्षात्कार क्या है?
उत्तर:
प्रमाणिक साक्षात्कार में प्रश्नों की सूची पहले से तैयार कर ली जाती है। इन प्रश्नों को साक्षात्कार देने वाले के क्रमानुसार पूछा जाता है। सभी लोगों के लिये एक ही तरह के प्रश्न होते हैं।
प्रश्न 26.
परिवर्त्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
अधीक्षण या घटना के भिन्न मान होते हैं जिसके मापन को परिवर्त्य कहा जाता है।
प्रश्न 27.
परिवर्त्य के दो प्रमुख वर्गों के नाम और लक्षण बतायें।
उत्तर:
- अनाश्रित परिवर्त्य – जिसका प्रहस्तन संभव होता है –
- आश्रित परिवर्त्य – जिसकी व्याख्या. वांछनीय होती है। प्रायोगिक दशा में, अनाश्रित परिवर्त्य कारण है तथा आश्रित परिवर्त्य प्रभाव।
प्रश्न 28.
प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूहों में प्रतिभागियों का वितरण किस रूप में किया जाता है?
उत्तर:
समान लक्षण वाले (सार्थक, जैविक, पर्यावरणीय, अनुक्रमिक) परिवयों का वितरण यादृक्षिक (random) रूप में किया जाता है।
प्रश्न 29.
एक ऐसी समस्या का उल्लेख करें जिसका अध्ययन प्रायोगिक रूप में नहीं किया जा सकता है?
उत्तर:
बच्चों के बुद्धि स्तर पर पौष्टिकता की कमी के प्रभाव का अध्ययन बच्चों को बार-बार भूखा रखकर करना अनैतिक एवं अव्यावहारिक कार्य कहलाता है।
प्रश्न 30.
क्षेत्र-प्रयोग से क्या समझते हैं?
उत्तर:
कुछ विशिष्ट स्थितियों (फसल चक्र) का अध्ययन प्रयोगशाला में संभव नहीं होता है तथा जिसके लिए अनुसंधानकर्ता को सम्बन्धित क्षेत्र में जाना आवश्यक हो जाता है।
प्रश्न 31.
प्रयोग-कल्प किसे कहते हैं?
उत्तर:
भूकंप, बाढ़, अतिवृष्टि जैसे प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित बच्चों की दशा का अध्ययन करने के लिए अनुसंधानकर्ता प्रयोग-कल्प की विधि अपनाता है जिसमें अनाश्रित परिवर्त्य का चयन करके उसे प्रहस्तित करने का प्रयास किया जाता है।
प्रश्न 32.
स्वतंत्र साक्षात्कार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
स्वतंत्र साक्षात्कार में साक्षात्कार लेनेवाले स्वतंत्र रूप से विषय से संबंधित प्रश्नों को पूछते हैं।
प्रश्न 33.
साक्षात्कार विधि में किन सूचनाओं को एकत्र किया जाता है?
उत्तर:
साक्षात्कार विधि में आमने-सामने की परिस्थिति में बच्चों की व्यवहार सम्बन्धी सूचनाओं को एकत्र किया जाता है। इस विधि में प्रश्न और उत्तर के आधार पर सूचनाएँ एकत्र की जाती हैं।
प्रश्न 34.
प्रयोगात्मक विधि क्या है?
उत्तर:
प्रयोगात्मक विधि एक ऐसी विधि है जिसमें निरीक्षण कार्य प्रयोग पर आधारित होता है। इस विधि का प्रयोग बच्चों के अध्ययन के लिये नियंत्रित वातावरण से होता है।
प्रश्न 35.
प्रयोगात्मक विधि में किन उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है?
उत्तर:
प्रयोगात्मक विधि में मनोवैज्ञानिक उपकरणों एवं यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है।
प्रश्न 36.
प्रयोगात्मक निरीक्षण के लिए किन तकनीकों का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:
बाल मनोविज्ञान के अध्ययन में प्रयोगात्मक निरीक्षण के लिये विभिन्न तकनीक का प्रयोग किया जाता है जो इस प्रकार हैं –
- फोटोग्राफिक डोम तकनीक
- वन वे स्क्रीन तकनीक
- सिनेमाटोग्राफिक तकनीक
- प्रयोगात्मक कैबिनेट
प्रश्न 37.
प्रश्नावली विधि का निर्माण किस मनोवैज्ञानिक ने किया?
उत्तर:
प्रश्नावली विधि का निर्माण सबसे पहले स्टेनले हॉल ने किया।
प्रश्न 38.
परीक्षणों का वर्गीकरण किस आधार पर किया जाता है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का वर्गीकरण भाषा, उसके देने की रीति तथा जटिलता-स्तर के आधार पर किया जाता है।
प्रश्न 39.
भाषा के आधार पर तीन प्रकार के परीक्षण की गुंजाइश रहती है। नाम लिखें।
उत्तर:
- वाचक
- अवाचित तथा
- निष्पादन
प्रश्न 40.
देने की रीति के आधार पर मनोवैज्ञानिक परीक्षणों को किस प्रकार विभाजित किया जाता है?
उत्तर:
- वैयक्तिक तथा
- सामूहिक परीक्षण
प्रश्न 41.
समय सीमा से बंधे परीक्षण के मूल आधार क्या हैं?
उत्तर:
- गति परीक्षण और
- शक्ति परीक्षण
प्रश्न 42.
अनुसंधानकर्ता को परीक्षण की किसी एक विधि पर निर्भर नहीं रहने की सलाह क्यों दी जाती है?
उत्तर:
प्रत्येक विधि की अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं। दो या अधिक विधियों से समान परिणाम मिलते हैं तो परिणाम को प्रामाणिकता एवं उपयोगी करार दिया जाता है।
प्रश्न 43.
प्रदत्त विश्लेषण के दो प्रकार के विधिपरक उपागमों का उपयोग किया जाता है। उनके नाम बतावें
उत्तर:
- परिणामात्मक विधि और
- गुणात्मक विधि
प्रश्न 44.
मनोवैज्ञानिक मापन की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं?
उत्तर:
- वास्तविक शून्य बिन्दु का अभाव
- मनोवैज्ञानिक उपकरणों का सापेक्षिक स्वरूप तथा
- गुणात्मक प्रदत्तों की आत्मपरक व्याख्या
प्रश्न 45.
नैतिक सिद्धांत में किन बातों पर ध्यान देना आवश्यक प्रतीत होता है?
उत्तर:
अध्ययन में भाग लेनेवाले व्यक्ति को जिज्ञासु, उत्साही तथा संशयमुक्त रखने के लिए उसकी सुरक्षा, गोपनीयता, निजता, रुचि पर ध्यान रखना होता है। स्वैच्छिक सहभागिता, सूचित सहमति तथा स्पष्टीकरण, भागीदारी जैसे बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक प्रतीत होता है।
प्रश्न 46.
असंरचित प्रश्न से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
असंरचित प्रश्नावली का निर्माण पहले से नहीं होता है बल्कि अध्ययन के समय व्यवहार-संबंधी प्रश्न पूछे जाते हैं। बच्चे स्वतंत्र होकर उत्तर देते हैं।
प्रश्न 47.
प्रतिबंधित प्रश्नावली का अर्थ बतायें।
उत्तर:
प्रतिबंधित प्रश्नावली वैसी प्रश्नावली है जिसमें बच्चे लिखित उत्तरों में किसी एक के बारे में हाँ-ना, सहमत-असहमत इत्यादि कहकर उत्तर देते हैं।
प्रश्न 48.
प्रश्नावली विधि क्या है?
उत्तर:
प्रश्नावली विधि एक ऐसी विधि है जिसमें बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं की जानकारी के लिये प्रश्न बनाये जाते हैं। प्रश्नों द्वारा बच्चों के व्यवहार-सम्बन्धी उत्तर अंकित किये जाते हैं।
प्रश्न 49.
संरचित प्रश्न से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संरचित प्रश्न वैसे प्रश्न हैं जिसमें बच्चों के व्यवहार-सम्बन्धी बातों की जानकारी से संबंधित प्रश्न होते हैं जो पहले से ही तैयार कर लिये जाते हैं। बच्चों से प्रश्न पूछा जाता है और उत्तर अंकित किये जाते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
मनोविज्ञान प्रदत्त के स्वरूप में किन विशेषताओं का होना आवश्यक माना जाता है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक प्रदत्त कोई स्वतंत्र सत्व नहीं होते हैं। वह स्वयं सत्यता के विषय में कुछ नहीं कहता बल्कि शोधकर्ता उसकी मदद से सही अनुमान पाने की स्थिति में पहुंचता है। शोधकर्ता प्रदत्त.को एक संदर्भ विशेष में रखकर अर्थवान बनाता है। प्रदत्तों को निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
- जनांकिकीय
- भौतिक
- दैहिक तथा
- मनोवैज्ञानिक सूचना मापन की दृष्टि से मनोवैज्ञानिक सूचनाएँ (प्रदत्त) अनपढ़ हो सकती है जिनका विश्लेषण मुणात्मक विधि का उपयोग करके पूरा किया जा सकता है।
प्रश्न 2.
किन विशेषता के कारण वैज्ञानिक दिन-प्रतिदिन के प्रेक्षणों से भिन्न माने जाते हैं?
उत्तर:
(क) चयन:
वैज्ञानिक प्रेक्षण किसी एक निर्धारित विषय का (चयनित व्यवहार) का प्रेक्षण करता है तथा यथासंभव सभी प्रकार से संबद्ध प्रश्नों का संतोषप्रद हल खोज लेता है।
(ख) अभिलेखन:
अनुसंधानकर्ता चयनित विषय (व्यवहारों) का विभिन्न साधनों (पूर्व अर्जित ज्ञान एवं अनुभव का प्रयोग करते हुए प्राप्त परिणाम के आधार पर एक संतुलित अभिलेख तैयार करता है।
(ग) प्रदत्त विश्लेषण:
प्रेक्षण किसका, कब, कहां और कैसे किया जाता है, अनुसंधानकर्ता सभी पहलुओं पर ध्यान देते हुए अभिलेखों का विश्लेषण करता है जिसके माध्यम से वह अभिलेख से सही अर्थ प्राप्त करने का प्रयास करता है। दिन-प्रतिदिन के प्रेक्षणों में इनमें से किसी भी विधि का उपयोग करना संभव नहीं होता है जिसके कारण इसे वैज्ञानिक प्रेक्षण से भिन्न माना जाता है।
प्रश्न 3.
प्रेक्षण कितने प्रकार के होते हैं ? किसी एक प्रकार के प्रेक्षण को स्पष्टता समझायें।
उत्तर:
प्रेक्षण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं –
(क) प्रकृतिवादी बनाम नियंत्रित प्रेक्षण
(ख) असहभागी बनाम सहभागी प्रेक्षण
असहभागी बनाम सहभागी प्रेक्षण-किसी व्यक्ति या घटना का प्रेक्षण दूर रहकर किया जा सकता है। कभी-कभी प्रेक्षण स्वयं प्रेक्षण करनेवाले समूह का एक सदस्य बनकर प्रेक्षण करता है। ज किसी प्रक्रिया में भाग किये बिना अथवा बिना कोई अवरोध उत्पन्न किए प्रेक्षण करना असहभागी प्रेक्षण कहलाता है। जैसे विडियोग्राफी करके या स्वयं किसी वर्ग में चुपके से कोने में बैठकर सम्पूर्ण प्रक्रिया का अध्ययन करना असहभागी प्रेक्षण कहलाता है।
सहभागी प्रेक्षण करने के लिए प्रेक्षक को समूह के साथ मिलकर अध्ययन करना होता है। जैसे प्रेक्षक अध्यापक या छात्र के रूप में वर्ग कार्य में सम्मिलित होकर सम्पूर्ण शैक्षणिक कार्यों का अध्ययन करता है। असहभागी प्रेक्षण श्रमसाध्य होता है तथा अधिक समय लेता है। इसमें प्रेक्षण के पूर्वाग्रह के कारण गलती होने पर डर बना रहता है। इससे बचने के लिए अभिलेख तैयार करके प्रेक्षण के बाद उसके अध्ययन करने की सलाह दी जाती है।
प्रश्न 4.
परिवर्त्य की सार्थकता को स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रायोगिक विधि में अनुसंधानकर्ता मापन किये जाने योग्य घटना या उद्दीपक (परिवर्त्य) के मध्य संबंध स्थापित करने का प्रयास करता है। परिवर्त्य भिन्न-भिन्न मान वाले उद्दीपक घटना को कहते हैं जो स्वयं में अंतर लाने की क्षमता रखता है।
उदाहरणार्थ, हम जिस एक कलम का उपयोग करते हैं वह एक अपवर्त्य नहीं है लेकिन भिन्न-भिन्न आकारों एवं रंगों वाली कलमें सामूहिक रूप में अपवर्त्य मानी जाती हैं। विभिन्न कदवाले व्यक्ति अपवर्त्य हैं। इसी प्रकार बाल का रंग, बुद्धि, वर्ग में छात्रों की उपस्थिति सभी अपवर्त्य हैं। अतः अपवर्त्य कहलाने वाली वस्तुओं अथवा घटनाओं की मात्रा अथवा गुणवत्ता में परिवर्तन होना वांछनीय तत्व हैं।
परिवर्त्य को दो श्रेणियाँ होती हैं –
1. अनाश्रित परित्वर्य:
जिसका हस्तान्तरण संभव है।
2. आश्रित परिवर्त्य:
जिस व्यवहार पर अनाश्रित परिवर्त्य के प्रभाव का प्रेक्षण किया जा सकता है। आश्रित परिवर्त्य उस गोचर को बतलाता है जिसकी व्याख्या करना अनुसंधानकर्ता का उद्देश्य है। यह मात्र अनाश्रित परिवर्त्य के परिवर्तन के परिणामस्वरूप व्यवहार में आनेवाला अंतर मात्र है।
प्रायोगिक दशा में अनाश्रित परिवर्त्य कारण है तथा आश्रित परिवर्त्य प्रभाव। दोनों प्रकार के परिवर्त्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं। अनुसंधानकर्ता अपनी रुचि एवं बुद्धि के अनुसार परिवयों का चयन करके कार्य-कारण सम्बन्ध की व्याख्या करने में सफल होना चाहता है।
प्रश्न 5.
सर्वेक्षण विधि का एक स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत करें।
उत्तर:
अनुसंधानकर्ता कई प्रकार के प्रश्नों को पूछकर प्राप्त उत्तरों के आधर पर मानव के स्वाभाविक व्यवहार का अध्ययन करता है। उदाहरणार्थ, कुछ प्रमुख प्रश्न निम्नवत हैं –
- भारत के लोगों को किन चीजों से प्रसन्नता मिलती है?
- क्या आप प्रसन्न हैं?
- लोगों को अत्यधिक प्रसन्नता किससे मिलती है?
- लोग अप्रसन्न अथवा दुखी होने पर क्या करते हैं? उपर्युक्त प्रश्नों में विभिन्न प्रकार के उत्तर प्राप्त हुए; जैसे कुछ ने अपने आपको प्रसन्न माना। कुछ ने संतुलित जीवन की सूचना दिया। कुछ ने स्वयं को दुखी माना। कुछ ने प्रसन्नता का कारण पैसों की उपलब्धि माना।
कुछ ने प्रसन्न रहने के लिए मन की शांति को कारक माना । कुछ लोगों ने सफलता को प्रसन्नता से तथा असफलता को अप्रसन्नता से जोड़कर बताया। दुखी मानव में कोई संगीत सुनता है, कोई मित्रों से मिलकर दुख को भूलना चाहता है, कम लोग थे जो अपनी अप्रसन्नता को सिनेमा देखकर भुलाना चाहता है।
इस तरह स्पष्ट होता है कि मनुष्यों में व्यवहार अथवा प्रतिक्रिया व्क्त करने की अलग-अलग विधियाँ होती हैं। प्रश्नोत्तर के प्रतिशत मान के आधार पर परिणामी निर्णय लिये जाते हैं। चोर-चोर का हल्ला सुनकर कोई छिप बैठता है तो कोई बाहर निकलकर चोर को पकड़ना चाहता है। कोई घरवाले को सांत्वना देने लगते हैं तो कुछ ने ईर्ष्यावश घटना को अपनी आकांक्षा के अनुकूल बताया।
प्रश्न 6.
अंतर्निरीक्षण विधि से क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनोविज्ञान की वह पहली विधि है। इस विधि का क्या व्यवहार सर्वप्रथम उण्ट ने किया। जिन्होंने 1879 ई. में लिपजिग में मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला की स्थापना की और चेतन अनुभूति का अध्ययन अन्तर्निरीक्षण-विधि द्वारा किया। उन्होंने चेतन अनुभूति को मनोविज्ञान का अध्ययन विषय-वस्तु और अन्तर्निरीक्षण विधि को विधि माना।
अन्तर्निरीक्षण – विधि का अर्थ अपने भीतर देखना (To look within) है। अंतनिरीक्षण विधि वह विधि है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी चेतना अनुभूतियों का निरीक्षण स्वयं करता है और उन्हें अपने शब्दों में व्यक्त करता है। चेपलिन ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि अंतनिरीक्षण चेतन घटक के तत्वों तथा गुणों के वस्तुनिष्ठ विवरण को कहते हैं। इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि अंतर्निरीक्षण के लिए दो बातें आवश्क हैं –
1. इस विधि में व्यक्ति अपने चेतन अनुभव का वर्णन उसी रूप में करता है जिस रूप में अनुभव होता रहता है और वर्णन की प्रक्रिया उसी समय तक चलती है जब तक अनुभव की क्रिया चलती रहती है। इस विधि के निरीक्षण की चेतन अनुभूति के रचनात्मक तत्वों का वर्णन करना होता है। उण्ट के अनुसार चेतन अनुभूति के तीन रचनात्मक तत्व हैं जिन्हें संवेदना, भाव तथा प्रतिबिम्ब कहते हैं।
प्रश्न 7.
किसी विषय अथवा घटना से सम्बन्धित प्रस्तुत किये जाने वाले पूर्व कथनों पर किन बातों का प्रभाव देखा जाता है?
उत्तर:
निर्धारित विषय के सम्बन्ध में ज्ञान और स्वयं के अनुभव की प्रवृत्ति के द्वारा व्यवहार सम्बन्धी घटनाओं का सफल अध्ययन किया जा सकता है। थोड़ी-सी सतर्कता रखने पर व्यवहार विशेष के अन्य व्यवहारों, घटनाओं अथवा गोचरों के संबंध को सरलतापूर्वक जाना जा सकता है। व्यवहार के सही मूल्यांकन के आधार पर लगभग सही पूर्वकथन प्रस्तुत किया जा सकता है। विषयों के अध्ययन, समय की मात्रा एवं उपलब्धियों के बीच धनात्मक संबंध की स्थापना की जा सकती है। पूर्वकथन, प्रेक्षण किए गए व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होने पर अधिक सही होता है। जितने अधिक लोगों का प्रेक्षण किया जाएगा, पूर्वकथन के सही होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
प्रश्न 8.
खोज की व्यवस्थित प्रक्रिया किन कारकों पर आधारित होती है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक अनुसंधान विवरण, पूर्वकथन, व्याख्या, व्यवहार-नियंत्रण तथा वस्तुनिष्ठ तरीके से उत्पादित ज्ञान के अनुप्रयोग के लिए किए जाते हैं। इसके मुख्यतः चार चरण होते हैं –
- समस्या का संप्रत्ययन
- प्रदत्त संग्रह
- प्रदत्त विश्लेषण तथा
- अनुसंधान निष्कर्ष। निकालना और उसका पुनरीक्षण करना।
मनोविज्ञान में व्यवहार एवं अनुभव से संबंधित समस्याओं का समाधान करना होता है जिसके लिए उचित कार्य अथवा विषय का चयन किया जाता है। अच्छे परिणाम की प्राप्ति के लिए –
(क) अपने व्यवहार को समझने
(ख) दूसरे के व्यवहार को समझने
(ग) समूह से प्रभावित वैयक्तिक व्यवहार
(घ) समूह व्यवहार तथा
(ङ) संगठनात्मक स्तर पर तुलनात्मक अध्ययन करना होता है। जिज्ञासा की तरह विविध पक्षों का समुचित अध्ययन करने के परिणामस्वरूप एक काल्पनिक समाधान (परिकल्पना) की खोज की जाती है। साक्ष्य एवं प्रेक्षण के आधार पर परिकल्पना को सत्य स्थिति में लाने का प्रयास किया जाता है।
परिकल्पना स्थापना के बाद वास्तविक प्रदत्त संग्रह किया जाता है। सांख्यिकी सिद्धांत के द्वारा परिकल्पना एवं प्रदत्त संग्रह की जाँच और निष्कर्ष प्राप्त करने की प्रक्रिया पूरी की जाती है। प्राप्त किये गये निष्कर्षों को परखने के लिए उसे दोषमुक्त बनाने का प्रयास किया जाता है। निष्कर्षों का सफल पुनरीक्षण करके उसका अनुप्रयोग किया जाता है।
प्रश्न 9.
सहभागी प्रेक्षण तथा असहभागी प्रेक्षण में मौलिक अंतर बतायें।
उत्तर:
सहभागी प्रेक्षण तथा असहभागी प्रेक्षण मुख्य दो प्रकार के प्रेक्षण हैं। सहभागी प्रेक्षण वैसे प्रेक्षण को कहा जाता है जिसमें अध्ययनकर्ता प्रयोज्यों द्वारा किए जा रहे व्यवहारों या क्रियाओं को करने में हाथ बंटाते हुए उनका प्रेक्षण करता है। परंतु, असहभागी प्रेक्षण इससे भिन्न होता है, क्योंकि इसमें अध्ययनकर्ता प्रयोज्यों द्वारा किए जा रहे व्यवहारों में बिना हाथ बटाएँ ही उनका निरीक्षण करता है।
प्रश्न 10.
मनोविज्ञान के प्रयोगों में कारण-परिणाम संबंध से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में स्वतंत्र चर तथा आश्रित चर में उस विशेष संबंध को कारण-परिणाम संबंध कहा जाता है जिसमें स्वतंत्र चर में किए गए जोड़-तोड़ (कारण) से आश्रित चर में कुछ स्पष्ट परिवर्तन (परिणाम) होता है। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों का उद्देश्य इस तरह के संबंध की सत्यता की जाँच करना होता है।
प्रश्न 11.
प्रकृतिवादी प्रेक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रकृतिवादी प्रेक्षण वैसे प्रेक्षण को कहा जाता है जिसमें अध्ययनकर्ता प्राणियों जैसे पशुओं, पक्षियों तथा अन्य इसी तरह के विशेष प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन उनके स्वाभाविक स्थानों (Natural settings) जिनमें वे रहते हैं, पर जाकर करता है।
प्रश्न 12.
मनोवैज्ञानिक परीक्षण के उद्देश्य की पूर्ति किन दशाओं में संभव होता है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न मानवीय विशेषताओं (बुद्धि, अतिक्षमता, व्यक्तिगत रुचि, अभिवृत्ति, मूल्य शैक्षिक उपलब्धि आदि) के सही मूल्यांकन हेतु विभिन्न परीक्षणों का निर्माण करता है जिसका उपयोग वांछित उद्देश्यों (कार्मिक चयन, प्रशिक्षण, निर्देशन, निदान, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य) को पूरा करने में लगाने का प्रयास करता है।
परोक्षण को अर्थद्वन्द्व से बचाना, समय सीमा के बंधन को तोड़ना, मानवीकृत एवं वस्तुनिष्ठ उपकरणों का प्रयोग करना आदि परीक्षण की सफलता के मूल तत्व हैं। परीक्षण के उद्देश्यों के अनुकूल शब्दावली, पर्यावरणीय दशाओं का होना आवश्यक होता है। प्रतिक्रियादाताओं की प्रतिक्रियाओं की गणना की विधि का भी उल्लेख किया जाना वांछनीय होता है। अनुसंधान के सभी एकांशों की विशेषताओं का सही उपयोग परीक्षण की कामयाबी के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 13.
प्रयोगात्मक विधि से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रयोगात्मक विधि एक ऐसी विधि होती है जिसमें स्वतंत्र चर (Independent variable) तथा आश्रित चर (Dependent variable) के बीच कारण-परिणाम संबंध (Cause effect relationship) का एक नियंत्रित परिस्थिति (Controlled situation) में अध्ययन किया जाता है। स्वतंत्र चर से तात्पर्य वैसे चर से होता है जिसमें जोड़-तोड़ (Manipulation) किए जाने का दूसरे चर पर पड़नेवाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। आश्रित चर वैसे चर को कहा जाता है जिस पर स्वतंत्र चर का प्रभाव पड़ता है।
प्रश्न 14.
वैयक्तिक साक्षात्कार से क्या समझते हैं इसके प्रकार का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
वैयक्तिक साक्षात्कार उसे कहते हैं जिसमें 2 व्यक्ति आमने-सामने बैठे होते हैं। इनमें एक साक्षात्कारकर्ता होता है तथा दूसरा साक्षात्कारी होते हैं इसमें 2 प्रकार होते हैं –
- संरचित साक्षात्कार – इसमें प्रश्नों को स्पष्ट रूप से अनुसूची में एक क्रम लिखा जाता है।
- असरंचित साक्षात्कार – इसमें साक्षात्कारकर्ता को प्रश्नों के पूछे जाने के क्रम में परिवर्तन की स्वतंत्र रहती है।
प्रश्न 15.
मनोवैज्ञानिक अनुसंधान में नैतिकता के सिद्धांत को स्पष्ट करें।
उत्तर:
नैतिकता के सिद्धांत निम्न है –
- स्वैच्छिक सहभागिता – मनोवैज्ञानिक अध्ययन में जिस व्यक्ति का अध्ययन किया उनकी स्वैच्छिक सहभागिता होनी चाहिए।
- प्रदत्त की गोपनीयता – प्रतिभागियों से प्राप्त सूचना की गोपनीयता बनाए रखना चाहिए।
- अध्ययन – परिणाम में भागीदारी अध्ययन से प्राप्त परिणाम की सूचना प्रयोज्य को देना चाहिए।
- तटस्थता एवं ईमानदारी – अध्ययनकर्ता को अध्ययन से प्राप्त परिणाम के प्रति तटस्थ एवं ईमानदार होना चाहिए।
- स्पष्टीकरण – अध्ययन समाप्त हो जाने के बाद प्रतिभागियों को वे सब सूचना देनी चाहिए, जिससे वे अनुसंधान को ठीक से समझ सकें।
प्रश्न 16.
स्वतंत्र चर तथा आश्रित चर के अंतर को एक उदाहरण से समझायें।
उत्तर:
स्वतंत्र चर वैसे चर को कहा जाता है जिसमें प्रयोगकर्ता जोड़-तोड़ (Manipulation) करके उसके पड़नेवाले प्रभाव का अन्य चर पर अध्ययन करता है। आश्रित चर वैसे चर को कहा जाता है जिस पर स्वतंत्र चर में किए गए जोड़-तोड़ का प्रभाव पड़ता है तथा साथ-ही-साथ जिसके बारे में प्रयोगकर्ता प्रयोग करके भविष्यवाणी करना चाहता है।
जैसे-मान लिया जाए कि प्रयोगकर्ता पुरस्कार का सीखने पर पड़नेवाले प्रभाव का अध्ययन करने के लिए एक प्रयोज्य को कुछ विशेष सामग्री विशेष इनाम की घोषणा के साथ यदि करने के लिए देता है और फिर वही सामग्री दूसरे प्रयोज्य को बिना किसी के इनाम की घोषणा के बाद करने के लिए देता है। यदि पहला प्रयोज्य दूसरे प्रयोज्य की तुलना में जल्द सामग्री को सीख लेता है तो यहाँ स्पष्टतः कहा जाएगा कि पुरस्कार से सीखने पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इस उदाहरण में सीखना आश्रित चर तथा पुरस्कार स्वतंत्र चर का उदाहरण है।
प्रश्न 17.
प्रयोगात्मक विधि तथा प्रेक्षण विधि में अचर बतलायें।
उत्तर”
समाज मनोविज्ञन में प्रयोगात्मक विधि तथा प्रेक्षण विधि दोनों का उपयोग होता है। फिर भी, इन दोनों में कुछ अंतर हैं जो निम्नांकित है –
- प्रयोगात्मक विधि में परिस्थिति हमेशा कृत्रिम (artificial) होती है जबकि प्रेक्षण विधि में परिस्थिति कृत्रिम न होकर स्वाभाविक (natural) होती है।
- प्रयोगात्मक विधि में स्वतंत्र चर को जोड़-तोड़ (manipulation) किया जाता है जबकि प्रेक्षण विधि में स्वतंत्र चर में वैसा प्रत्यक्ष जोड़-तोड़ नहीं किया जाता है।
- प्रयोगात्मक विधि में कारण-परिणाम संबंध (Cause-effect relation) स्थापित करना संभव है, परंतु प्रेक्षण विधि में इस तरह का संबंध सामान्यतः स्थापित नहीं हो पाता है।
- प्रयोगात्मक विधि की विश्वसनीयता तथा वैधता (validity) प्रेक्षण विधि की विश्वसनीयता तथा वैधता से अधिक होती है।
प्रश्न 18.
नियंत्रित चर से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में यह विशेष रूप से प्रेक्षण किया जाता है कि स्वतंत्र चर में किए गए जोड़-तोड़ से आश्रित चर किस तरह से प्रभावित होता है। इसके अलावा प्रयोगकर्ता कुछ ऐसे चरों, जो स्वतंत्र चर के समान होते हैं तथा जिनसे आश्रित चर प्रभावित हो सकते हैं, के प्रभाव को नियंत्रित करके रखता है। ऐसे चरों को नियंत्रित चर कहा जाता है।
प्रश्न 19.
निरीक्षण विधि के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर:
निरीक्षण विधि के निम्नलिखित गुण हैं –
(क) यह विधि बच्चों की क्रियाओं का वस्तुनिष्ठ एवं अवैयक्तिक अध्ययन करती है। अध्ययन पूर्वाग्रहमुक्त एवं निष्पक्ष होता है।
(ख) इस विधि द्वारा स्वाभाविक अध्ययन होता है। सामूहिक व्यवहार का अध्ययन संभव है।
(ग) इस विधि द्वारा एक साथ अनेकानेक बच्चों का अध्ययन संभव होता है। बहरे, गूंगे, पागल, पशु-पक्षी सबके व्यवहार का अध्ययन संभव है।
(घ) इस विधि में उपकरणों एवं यंत्रों की सहायता ली जाती है।
(ङ) इस विधि में अध्ययन को दुहराया जाता है और उसकी विश्वसनीयता की जांच की जाती है।
(च) इस विधि द्वारा प्राप्त सामग्री का निरूपण संभव है। चूँकि सामग्रियाँ परिमाण में मिलती हैं, अत: उनकी सांख्यिकीय व्याख्या संभव है। निष्कर्ष की वैधता एवं विश्वसनीयता की जाँच हो सकती है।
प्रश्न 20.
साक्षात्कार विधि के गुणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
साक्षात्कार विधि के गुण निम्नांकित हैं –
(क) इस विधि का पहला गुण यह है कि इस विधि द्वारा बच्चों की मनोवृत्तियों एवं जीवन-मूल्यों को समझने में सहायता मिलती है।
(ख) यह सामान्य, असामान्य, असमंजित (maladjusted) बच्चों के अध्ययन में उपयोगी है।
(ग) इस विधि का तीसरा गुण यह है कि इसके द्वारा प्राप्त प्रदत्तों (data) की सत्यता एवं प्रतिपन्नता अधिक है।
(घ) स्वतंत्र साक्षात्कार में बच्चे खुलकर अपनी प्रतिक्रियाएँ करते हैं। इसका नैदानिक महत्व (clinical value) ज्यादा है।
(ङ) जिन बच्चों में भाषा-विकास हुआ रहता है वे प्रश्नों के उत्तर लिखकर अथवा बोलकर सफल ढंग से दे पाते हैं। यह भी इस विधि की विशेषता है।
(च) समालापक (interviewer) साक्षात्कार के समय अपना निष्पक्ष अध्ययन करता है और पूर्वधारणा का असर नहीं होने देता, अतः सूचनाएँ पूर्वधारणा मुक्त होती हैं।
(छ) इस विधि का यह भी गुण है कि समालापक प्रशिक्षित होते हैं, अतः बच्चों की प्रतिक्रियाएँ अच्छी तरह अंकित कर लेते हैं।
(ज) इस विधि की यह विशेषता है कि इसके द्वारा प्राप्त प्रदत्तों का सांख्यिकी निरूपण (statistical treatment) संभव है।
प्रश्न 21.
साक्षात्कार विधि के दोषों का विवेचन करें।
उत्तर:
साक्षात्कार विधि के निम्नलिखित दोष हैं –
(क) इस विधि का पहला दोष यह है कि यह विधि एक खास उम्र के बच्चों के अध्ययन तक ही सीमित है, क्योंकि साक्षात्कार के लिए भाषा का ज्ञान जरूरी है।
(ख) साक्षात्कार विधि में प्रतिक्रियाओं का अवरोधन (resistance) हानिकारक है। यह इस विधि का अवगुण है।
(ग) इस विधि में यह भी दोष है कि प्रशिक्षित समालापक भी कभी-कभी अपने अध्ययन में अपनी पूर्वधारणा की छाप छोड़ देते हैं जिससे अध्ययन दोषपूर्ण हो जाता है।
(घ) इसका चौथा दोष यह है कि गूंगे (dumb) और बहरे (deaf) बच्चों की मानसिक क्रियाओं के अध्ययन में असफल है।
(ङ) यह विधि पूर्वपाठशालीय बालक के अध्ययन में भी असफल है।
प्रश्न 22.
प्रश्नावली विधि के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रश्नावली विधि के गुण इस प्रकार हैं –
- इस विधि का पहला गुण है कि यह विधि वस्तुनिष्ठ है। इससे प्राप्त प्रदत्त वस्तुनिष्ठ होते हैं।
- इसका दूसरा गुण यह है कि वैसे बच्चे जिनकी भाषा विकसित होती है वे खुलकर स्वतंत्रतापूर्वक अपनी बातों को अध्ययनकर्ता के सामने रख देते हैं।
- इस विधि की तीसरी विशेषता यह है कि इससे असामान्य, असमंजित एवं समस्याजन्य सभी प्रकार के बच्चों का अध्ययन संभव है।
- इसकी चौथी विशेषता यह है कि इस विधि द्वारा सामूहिक रूप से बच्चों का अध्ययन संभव है जिससे समय और पैसे की बचत होती है।
- इसकी पाँचवीं विशेषता यह है कि इससे प्राप्त प्रदत्तों का सांख्यिकीय विश्लेषण संभव है।
प्रश्न 23.
प्रश्नावली विधि के दोषों की विवेचना करें।
उत्तर:
इस विधि में निम्नांकित दोष हैं –
- यह मात्र उन्हीं बच्चों पर लागू हो सकती है जिन्हें भाषा एवं प्रत्यय का ज्ञान हो। अतः यह विधि सीमित है।
- इसका दूसरा दोष यह है कि इस विधि द्वारा गूंगे एवं बहरे बच्चे का अध्ययन संभव नहीं है।
- इस विधि में तीसरा दोष यह है कि बच्चे प्रश्नों के उत्तर देने में अवरोध (resistance) दिखाते हैं।
- पाँचवाँ दोष यह है कि अध्ययनकर्ता अपनी पूर्वधारणा की छाप अध्ययन पर छोड़ देते हैं जिससे निष्कर्ष सही नहीं आता।
प्रश्न 24.
विकासात्मक मनोविज्ञान की अध्ययन विधि के रूप में निरीक्षण विधि के दोषों की विवेचना करें।
उत्तर:
इस विधि के निम्नांकित दोष हैं –
(क) वस्तुगत अध्ययन के बावजूद अध्ययन से प्राप्त सामग्रियों में निरीक्षणकर्ता की पूर्वधारणा तथा उसके वैयक्तिक दृष्टिकोण का समावेश हो जाता है। अतः निष्कर्ष की सत्यता एवं विश्वसनीयता खतरे में पड़ जाती है। यह एक महत्वपूर्ण आरोप इस विधि के खिलाफ है।
(ख) इस विधि का यह दोष भी है कि एक प्रकार के व्यवहासर के आधार पर संबंधित ‘मानसिक क्रियाओं का आकलन संभव नहीं है। जैसे बच्चों के संवेग में होनेवाली शारीरिक क्रियाओं के आधार पर हम निश्चित रूप से संवेग की जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते। बच्चों के कन्दन की क्रिया में कौन-सा संवेग है, यह पता लगाना कठिन है।
प्रश्न 25.
प्रयोगात्मक विधि के गुणों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
प्रयोगात्मक विधि की समीक्षा करने पर हम देखते हैं कि इस विधि में यद्यपि काफी बियाँ हैं, तथापि यह दोषमुक्त नहीं कही जा सकती। इस विधि की निम्नांकित खूबियाँ हैं –
- इस विधि का पहला गुण यह है कि यह विधि सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन क्रमबद्ध एवं नियंत्रित वातावरण में करता है। यह वैज्ञानिक विधि है।
- इस विधि द्वारा प्राप्त प्रदत्त (data) वस्तुनिष्ठ एवं पूर्वधारणामुक्त होता है।
- समस्या से संबंधित प्रयोग को निष्कर्ष की जाँच के लिए दुहराया जा सकता है। एक या अनेक शोधकर्ता प्रयोग को दुहरा सकते हैं।
- इसकी यह भी खूबी है कि इसके द्वारा प्राप्त प्रदत्तों का सांख्यिकीय निरूपण संभव है। प्रदत्तों की विश्वसनीयता एवं प्रतिपन्नता की जाँच हो सकती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
प्रयोगविधि की परिभाषा दें एवं इनके गुण दोषों को लिखें।
उत्तर:
प्रयोग का अर्थ ऐसे प्रेक्षण से है जो नियंत्रित परिस्थिति में किया जाता है। किसी परिकल्पना की सत्यता को प्रमाणित करने के उद्देश्य से जो प्रेक्षण नियंत्रित परिस्थिति में किया जाता है उसे प्रयोग कहते हैं। यह मनोविज्ञान की आधुनिक विधि है। चैपलिन के शब्दों में-“प्रयोग प्रेक्षणों” की एक श्रृंखला है जो एक परिकल्पना की जाँच के उद्देश्यों से नियंत्रित परिस्थितियों में किया जाता है।” चैपलिन ने प्रयोगात्मक विधि की परिभाषा इस प्रकार दी है –
“प्रयोगात्मक विधि वह प्रविधि है जिसके द्वारा प्रयोग के आधार पर सूचनाओं की खोज की जाती है।” प्रयोगात्मक विधि में प्रयुक्त आवश्यक अंग –
- प्रयोगकर्ता
- प्रयोज्य
- नियंत्रित प्रयोगशाला
- यंत्र – उपकरण विज्ञान प्रयोगों पर आधारित होता है। मनोविज्ञान का आधार भी प्रयोग है।
- मनोविज्ञान की प्रयोग विधि दूसरी सभी विधियों से अधिक वैज्ञानिक है। सच तो यह है कि उसी विधि के बल पर मनोविज्ञान विज्ञान होने का दावा करता है। अतः हम यहाँ देखना चाहेंगे कि मनोविज्ञान की प्रयोग-विधि में कौन-कौन से वैज्ञानिक गुण है।
प्रश्न 2.
सहसंबंधात्मक अनुसंधान के क्रम में सहसंबंध गुणांक का निर्धारण क्यों किया जाता है?
उत्तर:
सहसंबंधात्मक अनुसंधान प्रयोगात्मक विधि से भिन्न होता है, क्योंकि इसमें अध्ययन के समय तथा उपलब्धियों पर किसी भी तरह का प्रभाव डालने की छूट नहीं होती है। पूर्वकथन। की स्पष्टता के लिए दो परिवयों के बीच सम्बन्ध का निर्धारण करना प्रमुख उद्देश्य होता है। चयनित दोनों परिवों में सम्बन्ध की शक्ति एवं दिशा एक गणितीय लब्धांक (सहसम्बन्ध गुणांक) द्वारा प्रस्तुत करने की प्रथा बन चुकी है। सहसंबंध गुणांक का विस्तार + 1.00, 0.2 से – 1.0 तक होता है।
धनात्मक सहसंबंध में जब एक परिवर्त्य का मान बढ़ता है तो दूसरे परिवर्त्य का मान भी बढ़ता है। जैसे, पढ़ने का समय बढ़ाने से छात्र का लब्धांक भी बढ़ जाता है। इस स्थिति में दोनों परित्वों के बीच जितना अधिक साहचर्य होगा वह गुणांक (+1.00) से उतना ही निकट होगा। सामान्य छात्रों के लिए अध्ययन में लागत समय और लब्धांक के लिए सहसंबंध गुणांक सामान्यतया +0.85 मिलता है। ऋणात्मक सहसंबंध में जब एक परिवर्त्य (x) का मान बढ़ता है तो दूसरे परिवर्त्य का मान घटता है। जैसे अध्ययन के लिए समय में होनेवाली वृद्धि से खेलने के समय के मान में कमी आ जाती है।
इस स्थिति में गुणांक विस्तार 0 और – 1.0 के मध्य मिलता है। चयनित दो परिवों के बीच जब कोई सहसंबंध नहीं होता है तो उसे शून्य सहसंबंध कहा जाता है। जैसे-अध्ययन के समय बदलने के प्रभाव के कारण छात्र के पैंट की लम्बाई में कोई अंतर नहीं आता है। इस स्थिति में गुणों का विस्तार – 0.2 अथवा + 0.3 के मध्य मिलता है जबकि नियमत: उसे शून्य होना चाहिए। अतः परिवों के लक्षण, व्यवहार, प्रभाव तथा अनुप्रयोग की दृष्टि से सहसंबंध गुणांक अ अति उपयोगी विधि बनती जा रही है।
प्रश्न 3.
साक्षात्कार क्या है? इसके कौन-कौन गुण तथा दोष हैं? विवेचना करें।
उत्तर:
इस विधि में साक्षात्कार करनेवाले विशेषज्ञों का एक समूह होता है जिसे साक्षात्कार बोर्ड के नाम से जाना जाता है। जो लोग साक्षात्कार के लिए सामने आते हैं उन्हें समालाप्य (interviewee) कहते हैं। साक्षात्कार आमने-सामने बैठकर होता है। यह विधि सूचनाओं एवं तथ्यों की जानकारी के लिए ‘प्रश्न-उत्तर’ पद्धति को अपनाती है।
इसमें समालाप्य तथा समालापक (interviewer) के बीच आत्मिक संबंध (rapport) करना, सधमालापक का प्रशिक्षित (trained) होना, पूर्वधारणामुक्त होना, पूछे गए प्रश्नों की बनावट एवं भाषा पर ध्यान रखना, समालाप्य को भाषा का ज्ञान होना, उसे मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ होना इत्यादि बातों पर ध्यान रखना जरूरी हो जाता है। साक्षात्कार के मुख्य दो रूप सामने आते हैं –
1. प्रामाणिक साक्षात्कार (Standardized interview):
इसमें प्रश्नों की सूची पहले से तैयार कर ली जाती है। इन प्रश्नों को समालाप्य से क्रमानुसार पूछा जाता है। सभी लोगों के लिए एक ही तरह के प्रश्न होते हैं।
2. स्वतंत्र साक्षात्कार (Free interview):
इसमें समलापक स्वतंत्र रूप से विषय से संबंधित प्रश्नों को पूछते हैं।
गुण (Meritis):
साक्षात्कार विधि के गुण निम्नांकित हैं –
(क) इस विधि का पहला गुण यह है कि इस विधि द्वारा बच्चों की मनोवृत्तियों एवं जीवन-मूल्यों को समझने में सहायता मिलती है।
(ख) यह सामान्य, असामान्य, असमंजित (maladjusted) बच्चों के अध्ययन में उपयोगी है।
(ग) इस विधि का तीसरा गुण यह है कि इसके द्वारा प्राप्त प्रदत्तों (data) की सत्यता एवं: प्रतिपन्नता अधिक है।
(घ) स्वतंत्र साक्षात्कार में बच्चे खुलकर अपनी प्रतिक्रियाएँ करते हैं। इसका नैदानिक महत्व (clinical value) ज्यादा है।
(ङ) जिन बच्चों में भाषा विकास हुआ रहता है वे प्रश्नों के उत्तर लिखकर अथवा बोलकर सफल ढंग से दे पाते हैं। यह भी इस विधि की विशेषता है।
(च) समालापक साक्षात्कार के समय अपना निष्पक्ष अध्ययन करता है और पूर्वधारणा का असर नहीं होने देता, अत: सूचनाएँ पूर्वधारणामुक्त होती हैं।
(छ) इस विधि का यह भी गुण है कि समालापके प्रशिक्षित होते हैं, अत: बच्चों की प्रतिक्रियाएँ अच्छी तरह अंकित कर लेते हैं।
(ज) इस विधि की यह विशेषता भी है कि इसके द्वारा प्राप्त प्रदत्तों का सांख्यिकीय निरूपण (statistical treatment) संभव है।
दोष (Demerits):
(क) इस विधि का पहला दोष यह है कि यह विधि एक खास उम्र के बच्चों के अध्ययन तक ही सीमित है, क्योंकि साक्षात्कार के लिए भाषा का ज्ञान जरूरी है।
(ख) साक्षात्कार विधि में प्रतिक्रियाओं का अवरोधन (resistance) हानिकारक है। यह भी इस विधि का अवगुण है।
(ग) इस विधि में यह भी दोष है कि प्रशिक्षित समालापक भी कभी-कभी अपने अध्ययन में अपनी पूर्वधारणा की छाप छोड़ देते हैं जिससे अध्ययन दोषपूर्ण हो जाता है।
(घ) इसका चौथा दोष यह है कि यह गूंगे (dumb) और बहरे (deaf) बच्चों की मानसिक क्रियाओं के अध्ययन में असफल है।
(ङ) यह विधि पूर्वपाठशीय बालकों के अध्ययन में भी असफल है।
प्रश्न 4.
प्रयोगात्मक विधि या प्रयोगात्मक निरीक्षण विधि से आप क्या समझते हैं? इसके गुण एवं दोषों की विवेचना करें।
उत्तर:
प्रयोगात्मक या प्रयोगात्मक निरीक्षण विधि बाह्य निरीक्षण विधि का ही एक प्रमुख रूप है। यह प्रयोग विधि भी एक प्रकार का निरीक्षण है। इस विधि का प्रयोग बच्चों के अध्ययन के लिए नियंत्रित वातावरण (controlled condition) में होता है। अध्ययन पूर्वयोजनानुसार क्रमबद्ध होता है। यह निरीक्षण प्रयोग पर आधारित है। इस विधि द्वारा अध्ययन के क्रम में मनोवैज्ञानिक उपकरणों एवं यंत्रों की सहायता ली जाती है। इस विधि में प्रयोगात्मक परिस्थिति का निर्माण किया जाता है जो नियंत्रित होती है। बच्चों के व्यवहार-संबंधी समस्या पर प्रयोग किए जाते हैं।
जैसे-बाल-मनोविज्ञान के अंतर्गत यह समस्या है कि विटामिन A बच्चों की आँखों की रोशनी को प्रभावित करता है या नहीं, तो ऐसी स्थिति में हम समान उम्र के बच्चों को दो समूहों में बाँटकर एक समूह को विटामिन A देते हैं और दूसरे को नियंत्रित रखते हैं। यहाँ प्रयोगात्मक समूह के बच्चों की आँख की रोशनी की नियंत्रित समूह के बच्चों की आँख की रोशनी से तुलना करते हैं। यदि अंतर आता है तो हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि विटामिन A से आँख की रोशनी बढ़ती है। Gesell के अनुसार नियंत्रित निरीक्षण ही प्रयोग विधि है।
बाल –
मनोविज्ञान के अध्ययन में प्रयोगात्मक निरीक्षण के अंतर्गत कई प्रविधियों (tech niques) का इस्तेमाल किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं –
- फोटोग्राफिक डोम तकनीक (photographic dome technique)
- वन-वे स्क्रीन विधि (one-way screen technique)
- सिनेमाटोग्राफिक तकनीक (cinematographic technique)
- प्रयोगात्मक भवन (experimental cabinet)
1. फोटोग्राफिक डोम तकनीक:
इस प्रविधि द्वारा बच्चों के व्यवहारों का चित्र लिया जाता है। Gesell ने इस विधि द्वारा बच्चों की प्रतिक्षेप की क्रियाओं (reflex actions) का अध्ययन किया है।
2. वन-वे स्क्रीन विधि:
इस प्रविधि द्वारा पर्दे की ओट से बच्चों के व्यवहारों का निरीक्षण किया जाता है। यहाँ भी स्वाभाविक निरीक्षण संभव हो पाता है। इस प्रविधि को निरीक्षण के लिए Gesell ने भी अपनाया था।
3. सिनेमाटोग्राफिक तकनीक:
बच्चों की स्वाभाविक क्रियाओं का अध्ययन चलचित्रों के माध्यम से किया जाता है। खासकर, संवेग एवं सामाजिक प्रतिक्रियाओं में यह कारगर प्रविधि है।
4. प्रयोगात्मक भवन:
इसके द्वारा बच्चों को कमरे में रखकर लगातार बच्चों के व्यवहारों का निरीक्षण काफी समय तक किया जाता है। Ohio State University में इस प्रविधि का इस्तेमाल शुरू हुआ। उपर्युक्त प्रविधियाँ स्वतंत्र रूप से कारगर हैं और सम्मिलित रूप से भी। अतः ये एक-दूसरे के पूरक हैं।
गुण (Merits):
इसके गुण या विशेषताएँ इस प्रकार हैं –
(क) इस विधि का यह गुण है कि इस विधि से प्रदत्त (data) पूर्वधारणामुक्त, निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ (objective) होता है।
(ख) इस विधि द्वारा अध्ययन की जाँच के लिए प्रयोग को दुहराया जा सकता है और प्रदत्तों की सत्यता की जाँच की जा सकती है।
(ग) इस विधि द्वारा प्रदत्तों की सांख्यिकीय निरूपण (statistical analysis) संभव है। इसके द्वारा परिणाम की सत्यता एवं प्रतिपन्नता (reliability and validity) जाँची जा सकती है।
(घ) इस विधि द्वारा मानव व्यवहार का अध्ययन योजनानुसार क्रमबद्ध ढंग से नियंत्रित वातावरण में किया जाता है। वस्तुगत अध्ययन के कारण प्रदत्त में एकत्र होते हैं।
दोष (Demerits):
इस विधि में निम्नलिखित कमियाँ हैं –
(क) यह विधि बच्चों की सभी मानसिक क्रियाओं के अध्ययन में असफल है। जैसे-अचेतन की क्रियाएँ।
(ख) यह विधि नियंत्रित वातावरण में सभी प्रकार की मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं कर सकती। जैसे-भीड़-व्यवहार, सामाजिक तनाव, क्रांति इत्यादि।
(ग) यह विधि इसलिए भी दोषपूर्ण है कि नियंत्रित वातावरण में स्वाभाविक प्रतिक्रिया संभव नहीं है।
(घ) यह विधि सीमित भी है, क्योंकि सभी तरह के प्रयोग सभी प्रकार के प्राणियों पर प्रयोगशाला के नियंत्रित वातावरण में संभव नहीं है।
प्रश्न 5.
वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि क्या है? इसके गुण एवं दोषों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रेक्षण या निरीक्षण विधि (Observation method) –
मनोविज्ञान की एक प्रमुख विधि है। जब वाटसन (Watson) ने पहली बार यह कहा कि मनोविज्ञान चेतन अनुभूति का विज्ञान नहीं है बल्कि व्यवहार के अध्ययन का विज्ञान है, तब उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मनोविज्ञान की विषय-वस्तु अर्थात् व्यवहार के अध्ययन करने की सबसे उत्तम विधि वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण (Objective observation) है। वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण वह विधि है जिसमें प्राणियों के व्यवहारों का अध्ययन किसी विशेष परिस्थिति में किया जाता है।
व्यवहार से तात्पर्य प्राणी की उन सभी क्रियाओं से होता है जो उद्दीपन (Stimulus) के प्रभावों के फलस्वरूप वह करता है। व्यवहार बाह्य (Extermal) तथा आंतरिक दोनों तरह के हो सकते हैं। रोना, दौड़ना आदि बाह्य व्यवहार के तथा साँस की गति में परिवर्तन, रक्तचाप में परिवर्तन आदि आंतरिक व्यवहार के उदाहरण हैं। जब कोई निरीक्षक या प्रेक्षक प्राणी के व्यवहारों का निरीक्षण किसी भी परिस्थिति में करके एकसमान निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, तब ऐसे निरीक्षण को वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण या निरीक्षण (Objective observation) कहा जाता है।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण को निम्नांकित तीन प्रमुख भागों में बाँटा गया है –
(a) सहभागी प्रेक्षण (Participant observation):
इस प्रेक्षण में प्रेक्षक घटना या व्यवहार को करने में स्वयं हाथ भी बँटाता है तथा उसका प्रेक्षण द्वारा अध्ययन भी करता है।
(b) असहभागी प्रेक्षण (Non-participant observation):
इस तरह के प्रेक्षण में प्रेक्षक घटना या व्यवहार का मात्र निरीक्षण करता है, उसके करने में हाथ नहीं बँटाता है।
(c) प्रकृतिवादी प्रेक्षण (Naturalistic observation):
इस विधि में प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन उनकी स्वाभाविक परिस्थिति जैसे बंदरों, चिड़ियों, मधुमक्खियों के व्यवहारों का उनके स्वाभाविक रहने के स्थानों में प्रेक्षण किया जाता है।
गुण (Merits):
(a) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि में वस्तुनिष्ठता (Objectivity) अधिक होती है। फलतः इससे प्राप्त निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय होते हैं। जैसे-किसी व्यक्ति को जोर-जोर से बोलते, आँख लाल किए तथा उसके नथुने फड़कते देखते हैं, तो इस प्रेक्षण के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि व्यक्ति क्रोधित है।
(b) इस विधि का प्रयोग बच्चे, प्रौढ़, पशु-पक्षी, असामान्य व्यक्तियों आदि सभी पर किया जा सकता है। अतः इस विधि ने अंतर्निरीक्षण विधि की तुलना में निश्चित रूप से मनोविज्ञान के कार्यक्षेत्र (Scope) को विस्तृत कर दिया है।
(c) इस विधि द्वारा एक समय में एक से अधिक व्यक्तियों के व्यवहारों का प्रेक्षण आसानी से किया जा सकता है। समूह, भीड़ व्यवहार आदि का अध्ययन जो अंतर्निरीक्षण विधि से संभव नहीं है, इस विधि द्वारा आसानी से किया जा सकता है।
(d) इस विधि द्वारा किसी व्यवहार से प्राप्त तथ्यों की सांख्यिकीय व्याख्या किया जाना संभव है। सांख्यिकीय व्याख्या करने से मनोविज्ञान का स्वरूप अधिक वस्तुनिष्ठ तथा वैज्ञानिक हो जाता है।
दोष:
(a) इस विधि में प्राणी के व्यवहारों का प्रेक्षण करके उसकी मानसिक स्थिति का पता लगाया जाता है। मानसिक स्थिति के बारे में इस तरह का अनुमान लगाना हमेशा सही नहीं हो पाता है। जैसे-खुशी और दुख दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति की आँख में आँसू निकल आते हैं। इस प्रकार, व्यक्ति की आँसू को देखकर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि व्यक्ति में हर्ष की मानसिक स्थिति है या विवाद की।
(b) इस विधि का अन्य दोष यह है कि प्रेक्षक तथा उसकी व्याख्या करते समय पूर्वधारणा या पूर्वाग्रह तथा अपने अन्य निजी अनुभवों द्वारा काफी प्रभावित हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है प्राप्त निष्कर्ष गलत एवं अविश्वसनीय हो जाते हैं।
(c) सामान्यतः प्रेक्षक (Observer) परिस्थिति में स्वयं उपस्थित होकर ही व्यवहारों का प्रेक्षण तथा व्याख्या करता है। ऐसा देखा गया है कि परिस्थिति में प्रेक्षक की उपस्थिति से व्यक्तियों के वास्तविक व्यवहार में कुछ कृत्रिमता या विकृति आ जाती है जिससे किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना संभव नहीं हो पाता है। इस दोष को दूर करने के लिए प्रेक्षक प्रायः अपनी पहचान छिपा लेते हैं या एक-तरफा पर्दा (One-way screen) का उपयोग करते हैं।
(d) कभी-कभी देखा गया है कि प्रेक्षक इस विधि द्वारा पागलों, पशुओं, बच्चों आदि के व्यवहारों का प्रेक्षण अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से करते हैं जिसके कारण इनके संबंध में प्राप्त परिणाम विश्वसनीय एवं वैध (Valid) नहीं हो पाते हैं। जैसे-यदि प्रेक्षक बच्चों के व्यवहारों का प्रेक्षण को दोषपूर्ण होना ही है और प्राप्त निष्कर्ष को अयथार्थ होना ही है। वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि के गुण-दोषों पर विचार करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह विधि मनोविज्ञान के लिए काफी उपयोगी है।
प्रश्न 6.
प्रश्नावली विधि के गुण तथा दोषों की विवेचना करें।
उत्तर:
G. Stanlet Hall ने सर्वप्रथम इस विधि का निर्माण विकासात्मक मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए किया। इस विधि में बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं की जानकारी के लिए प्रश्न बनाए जाते हैं। प्रश्नों द्वारा बच्चों के व्यवहार-संबंधी उत्तर अंकित किए जाते हैं। इस विधि का प्रयोग कम उम्र के बच्चों के अध्ययन में नहीं हो पाता है, क्योंकि प्रश्नों के उत्तर के लिए भाषा विकसित होना चाहिए।
प्रतिमाओं के अध्ययन में Galton ने इस विधि को अपनाया। वैसे, बच्चों की मनोवृत्ति एवं जीवन-मूल्यों के अध्ययन में यह विधि सफल रही है। ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि इस विधि में प्रश्नों की भूमिका महत्वपूर्ण है। यहाँ हमें इस बात पर विचार करना होगा कि प्रश्नों की सूची कैसी होती है, प्रश्न किस स्वरूप के होते हैं। प्रश्नों के बारे में विचार करने पर पाया गया है कि प्रश्न मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं –
1. संरचित प्रश्न-इस प्रकार की प्रश्नावली में बच्चों के व्यवहार:
संबंधी बातों की जानकारी से संबंधित प्रश्न होते हैं, जो पहले से ही तैयार कर लिए जाते हैं। बच्चों से प्रश्न पूछा जाता है और उत्तर अंकित किए जाते हैं। इस प्रश्नावली को उन्हीं बच्चों से पूछा जाता है जिन्हें भाषा एवं प्रत्यय की समझ होती है।
2. असंरचित प्रश्न:
इस प्रश्नावली का निर्माण पहले से नहीं होता है, बल्कि अध्ययन के समय व्यवहार-संबंधी प्रश्न पूछे जाते हैं। बच्चे स्वतंत्र होकर उत्तर देते हैं। इस संबंध में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि अध्ययन के क्रम में प्रश्नों के उत्तर को सीमित रखा जाए अथवा असीमित। अर्थात्, बच्चे कुछ उत्तरों में से एक उत्तर चुनें अथवा स्वतंत्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार उत्तर दें। इस संदर्भ में भी दो प्रकार के उत्तर-उन्मुखं प्रश्नावली का व्यवहार होता है –
- प्रतिबंधित प्रश्नावली – इसमें बच्चे लिखित उत्तरों में किसी एक के बारे में हाँ, ना, सहमत, असहमत इत्यादि कहकर उत्तर देते हैं।
- अप्रतिबंधित प्रश्नावली – इसमें बच्चे स्वतंत्र होकर प्रश्नों के उत्तर देते हैं। बच्चे अपनी मनोवृत्ति, शिक्षा, मनोभावों, मनोवेगों एवं विचारों को खुलकर उत्तर के रूप में व्यक्त कर पाते हैं।
गुण (Merits):
प्रश्नावली विधि के गुण इस प्रकार हैं –
- इस विधि का पहला गुण यह है कि यह विधि वस्तुनिष्ठ है। इससे प्राप्त प्रदत्त वस्तुनिष्ठ होते हैं।
- इसका दूसरा गुण यह है कि वैसे बच्चे जिनकी भाषा विकसित होती है वे खुलकर स्वतंत्रतापूर्वक अपनी बातों को अध्ययनकर्ता के सामने रख देते हैं।
- इस विधि की तीसरी विशेषता यह है कि इससे असामान्य, असमंजित एवं समस्याजन्य सभी प्रकार के बच्चों का अध्ययन संभव है।
- इसकी चौथी विशेषता यह है कि इस विधि द्वारा सामूहिक रूप से बच्चों का अध्ययन संभव है जिससे समय और अर्थ की बचत होती है।
- इसकी पाँचवी विशेषता यह है कि इससे प्राप्त प्रदत्तों (data) का सांख्यिकीय विश्लेषण (statistical analysis) संभव है।
दोष (Demerits):
इस विधि में निम्नांकित दोष हैं –
- यह मात्र उन्हीं बच्चों पर लागू हो सकती है जिन्हें भाषा एवं प्रत्यय का ज्ञान हो। अतः यह विधि सीमित है।
- इसका दूसरा दोष यह है कि इस विधि द्वारा गूंगे एवं बहरे बच्चे का अध्ययन संभव नहीं है।
- इस विधि में तीसरा दोष यह है कि बच्चे प्रश्नों के उत्तर देने में अवरोध (resistance) दिखाते हैं।
- चौथा दोष यह है कि कभी-कभी प्रश्नों का चुनाव सही नहीं हो पाता है। प्रश्न अस्पष्ट एवं कठिन होते हैं। अतः बच्चे सही-सही उत्तर नहीं दे पाते।
- पाँचवाँ दोष यह है कि अध्ययनकर्ता अपनी पूर्वधारण की छाप-अध्ययन पर छोड़ देते हैं जिससे निष्कर्ष सही नहीं आता।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
समस्या पहचान के बाद शोधकर्ता समस्या का एक काल्पनिक उत्तर ढूँढता है उसे कहा जाता है:
(a) कल्पना
(b) परिकल्पना
(c) चर
(d) प्रयोग
उत्तर:
(b) परिकल्पना
प्रश्न 2.
मनोविश्लेषण की नींव किसने डाली
(a) फ्रायड
(b) उण्ट
(c) टिचनर
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) टिचनर
प्रश्न 3.
संरचनावादी सिद्धांत की स्थापना हुई?
(a) 1880 ई. में
(b) 1890 ई. में
(c) 1896 ई. में
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) 1896 ई. में