Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.
BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ
Bihar Board Class 11 Sociology समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ Additional Important Questions and Answers
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
लंबवत गतिशीलता किसे कहते हैं?
उत्तर:
लंबवत गतिशीलता में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन उच्च अथवा निम्न श्रेणी में हो सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक लिपिक अपने ही कार्यालय या दूसरे कार्यालय में पदोन्नति पर जाता है तो उसे लंबवत गतिशीलता कहा जाएगा।
प्रश्न 2.
अंतरपीढ़ी गतिशीलता का अर्थ बताइए?
उत्तर:
अंतरपीढ़ी गतिशीलता सामाजिक-आर्थिक सोपान पर आधारित गतिशीलता है। अंतरपीढ़ी गतिशीलता परिवार में पृथक् पीढ़ी वाले सदस्यों द्वारा अनुभव की जाती है। उदाहरण के लिए किसी लिपिक के पुत्र का आई.ए.एस. अधिकारी बन जाना अंतरपीढ़ी गतिशीलता का उदाहरण है। दोनों पीढ़ियाँ अलग-अलग हैं तथा दोनों में व्यावसायिक भिन्नता है।
प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स द्वारा किया गया समाज का विभाजन बताइए?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स ने समाज को निम्नलिखित दो भागें में बाँटा है:
- जिनके पास है या बुर्जुआ वर्ग।
- जिनके पास नहीं है या प्रोलीटेरिएट्स।
जिनके पास है उन्हें उत्पादन के साधनों का स्वामी कहा जाता है। जिनके पास नहीं है, उन्हें मजदूर कहा जाता है।
प्रश्न 4.
सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न आधार बताइए।
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न आधार निम्नलिखित हैं:
- दासता
- एस्टेट्स
- वर्ग
- सत्ता
- जाति
- सजातीयता
प्रश्न 5.
सामाजिक जीवन में सत्ता एक प्रमुख संसाधन किस प्रकार है?
उत्तर:
सामाजिक जीवन में सत्ता एक प्रमुख संसाधन निम्नलिखित प्रकार से है:
- संयोग जो एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों को समूहों को मिलाता है।
- जिन्हें सामुदायिक गतिविधियों में अनुभव किया जाता है।
- सत्ता का प्रयोग दूसरों के विरोध के लिए भी किया जाता है।
प्रश्न 6.
परंपरागत भारत में सामाजिक असमानता का प्रमुख आधार बताइए।
उत्तर:
परंपरागत भारत में सामाजिक असमानता का प्रमुख आधार जाति है।
प्रश्न 7.
भारतीय समाज में पायी जाने वाली वर्णाश्रम व्यवस्था बताइए।
उत्तर:
भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार भारतीय समाज निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा गया है:
- ब्राह्मण (पुरोहित या विद्वान)
- क्षत्रिय शासक तथा योद्धा
- वैश्य व्यापारी
- शूद्र (कृषक, मजदूर तथा सेवक)
प्रश्न 8.
सजातीयता का शाब्दिक अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सजातीयता शब्द ग्रीक भाष के शब्द एथनिकोस से लिया गया है, जो कि एथनोस का विशेषण है एथनोस का तत्पर्य एक जन समुदाय अथवा राष्ट्र से है। अपने समकालीन रूप में सजातीयता की अवधारणा उस समूह के लिए प्रयोग की जाती है जिसमें कुछ अंशों में सामंजस्य तथा एकता पायी जाती हो । इस प्रकार, सजातीयता का अर्थ सामूहिकता से है।
प्रश्न 9.
बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक समूहों का समाजशास्त्रीय अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र में बहुसंख्यक समूह को सत्ता के अधिकार तथा प्रयोग से परिभाषित किया जाता है तथा अल्पसंख्यक समूह में इन दोनों का अभाव होता है।
प्रश्न 10.
समाज में असमानता पाए जाने का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर:
समाज में असमानता पाए जाने का मुख्य कारण उपलब्ध संसाधनों, जैसे-भूमि, धन-संपत्ति, शक्ति तथा प्रतिष्ठा आदि का समान वितरण न होना है।
प्रश्न 11.
सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
टॉलकॉट पारसंस के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय किसी सामाजिक व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊँचे तथा नीचे के पदासोपानक्रम में विभाजन है।”
प्रश्न 12.
स्तरीकरण शब्द या शाब्दिक अर्थ बताइए।
उत्तर:
अंग्रेजी भाषा में स्ट्रैटिफिकेशन (स्तरीकरण) शब्द भूगर्भशास्त्र से लिया गया है। स्ट्रैटिफिकेशन का मूल शब्द स्ट्रैटन है। स्ट्रैटन का तात्पर्य भूमि की परतों से है। भूगर्भशास्त्रियों द्वारा भूमि की विभिन्न परतों का अध्ययन जिस प्रकार किया जाता है, उसी प्रकार समाजशास्त्र में समाज की विभिन्न परतों का अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 13.
सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक स्तरीकरण में कैसे परिवर्तित हो जाता है?
उत्तर:
सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक स्तरीकरण में निम्नलिखित स्थितियों में परिवर्तित हो जाता है:
- स्थितियों की विभिन्न श्रेणियों तथा मूल्यांकन के द्वारा।
- किसी को पुरस्कार देना अथवा न देना।
प्रश्न 14.
स्तरीकरण व्यवस्था को किस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है?
उत्तर:
स्तरीकरण व्यवस्था को निम्नलिखित दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- मुक्त स्तरीकरण-स्तरीकरण की इस अवस्था में लचीलापन पाया जाता है।
- बंद स्तरीकरण-स्तरीकरण की इस अवस्था में दृढ़ता तथा कठो जाती है।
प्रश्न 15.
सामानान्तर गतिशीलता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
समानान्तर गतिशीलता में एक व्यक्ति की स्थिति में तो परिवर्तन होता है, लेकिन उसकी श्रेणी पहले जैसा रहती है। उदाहरण के लिए यदि एक लिपिक का स्थानान्तरण एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय में होता है, लेकिन उसकी श्रेणी में परिवर्तन नहीं होता है तो इसे समानान्तर श्रेणी कहते हैं।
प्रश्न 16.
सामाजिक संरचना शब्द को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पारसंस के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, अभिकरणों, सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण, किए गए पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।”
प्रश्न 17.
प्रस्थिति शब्द की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
ऑग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार “एक व्यक्ति की प्रस्थिति, उसका समूह में स्थान तथा दूसरों के संबंध में उसका क्रम है।”
प्रश्न 18.
सामाजिक संरचना के स्तर बताते हुए उपयुक्त उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
प्रत्येक समाज की संरचना में निम्नलिखित दो स्तर पाये जाते हैं:
- सूक्ष्म स्तर, यथा किसी विशिष्ट समुदाय अथवा गाँव का अध्ययन।
- वृहद स्तर, यथा संपूर्ण सामाजिक संरचना जैसे कि भारतीय समाज का अध्ययन।
प्रश्न 19.
सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग समाजशास्त्र में सर्वप्रथम किस विद्वान के द्वारा किया गया?
उत्तर:
समाजशास्त्र में सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ब्रिटिश विद्वान हारबर्ट स्पेंसर के द्वारा किया गया था.। उनके द्वारा समाज तथा जीवित प्राणी में समानता देखी गयी थी।
प्रश्न 20.
संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण के सिद्धांत कां मुख्य प्रवर्तक कौन था? इस दृष्टिकोण की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
ब्रिटिश मानवशास्त्री रैडक्लिफ ब्राउन संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का प्रमुख प्रवर्तक था। इस दृष्टिकोण की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
व्यक्ति सामाजिक संरचना की एक इकाई है।
- सभी समाजों में संरचनात्मक लक्षण पाए जाते हैं।
प्रश्न 21.
उन मूलभूत प्रकार्यों को बताइए जो समाज की निरंतता तथा उसे बनाए रखने हेतु आवश्यक हैं।
उत्तर:
निम्नलिखित मूल प्रकार्य समाज की निरंतरता तथा उसे बनाए रखने के लिए आवश्यक है –
- नए सदस्यों की भर्ती।
- समाजीकरण।
- वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन तथा वितरण।
- व्यवस्था की सुरक्षा।
प्रश्न 22.
सामाजिक प्रक्रिया की परिभाषा दीजिए। अथवा, सामाजिक प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
हार्टन तथा हंट के अनुसार “सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक जीवन में सामान्यतः पाए जाने वाले व्यवहारों की पुनरावृत्ति अन्त:क्रिया है।”
प्रश्न 23.
सामाजिक अन्तःक्रिया का अर्थ बताइए।
उत्तर:
व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से समाज में अनेक व्यक्तियों के साथ संबद्ध होता है तथा समाज के दूसरे सदस्य भी उसके साथ क्रियात्मक संबंध रखते हैं। इसी प्रक्रिया को अन्त:क्रिया कहा जाता है। इस प्रकार अन्त:क्रिया किसी भी विशिष्ट समाज के सामाजिक पर्यावरण में होने वाली प्रक्रिया है। अन्तःक्रिया निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।”
प्रश्न 24.
सामाजिक प्रक्रियाओं के विभिनन स्वरूप बताइए। अथवा, सहयोगात्मक . तथा असहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियाएँ किन्हें कहते हैं?
उत्तर:
समाज में निम्नलिखित दो प्रकार की सामाजिक प्रक्रियाएँ पायी जाती हैं –
(i) सहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियाएँ –
- सहयोग
- समायोजन
- समन्वयन
- अनुकूलन
- एकीकरण
- सात्मीकरण
(ii) असहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियाएँ –
- प्रतियोगिता
- संघर्ष
- अंतर्विरोध
प्रश्न 25.
सहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में सहयोग की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
ग्रीन के अनुसार, “सहयोग दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा कोई कार्य करने या सामान्य रूप से इच्छित किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किया जाने वाला निरंतर एवं सामूहिक प्रयास है।” एल्ड्रिज तथा मैरिल के अनुसार, “सहयोग सामाजिक अन्त:क्रिया का वह स्वरूप है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति एक सामान्य उद्देश्य की पूर्ति में एक साथ मिलकर कार्य करते हैं।”
प्रश्न 26.
संघर्ष की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
हॉर्टन तथा हंट के अनुसार, “संघर्ष वह प्रक्रिया है जिसमें प्रतिस्पर्धियों को कमजोर बनाकर या उन्हें प्रतियोगिता से हटाकर स्वयं पुरस्कार मा लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।” ए.डब्लू. ग्रीन के अनुसार, “संघर्ष किसी अन्य व्यक्ति अथवा व्यक्तियों की इच्छा का जान-बूझकर विरोध करने, उसे रोकने अथवा उसे बलपूर्वक कराने से संबंधित प्रयत्न है।”
प्रश्न 27.
संघर्ष के विघटनकारी प्रभाव बताइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री हॉटर्न तथा हंट ने संघर्ष के निम्नलिखित विघनटकारी प्रभाव बताए हैं –
- संघर्ष पारस्परिक कटुता बढ़ाता है।
- संघर्ष हिंसा तथा विनाश पैदा करता है।
- संघर्ष के द्वारा सहयोग के रास्ते में बाधा उत्पन्न की जाती है।
- संघर्ष द्वारा सदस्यों का ध्यान समूह के लक्ष्यों से हटा दिया जाता है।
प्रश्न 28.
संघर्ष के समन्वयकारी प्रभाव बताइए।
उत्तर:
हॉर्टन तथा हंट ने संघर्ष के निम्नलिखित समन्वयकारी प्रभाव बताए हैं –
- संघर्ष के द्वारा विवाद स्पष्ट किए जाते हैं।
- संघर्ष समूह की एकता से वृद्धि करता है।
- संघर्ष के माध्यम से दूसरे समूहों के साथ संधियाँ की जाती हैं।
- संघर्ष में समूहों को अपने सदस्यों के हितों के प्रति जागरूक बनाया जाता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
पुरस्कारों का वर्गीकरण समाज में किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर:
स्तरीकरण के विभाजन में पुरस्कारों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बाँटा गया है –
- धन-धन अथवा संपत्ति किसी व्यक्ति या परिवार की कुल आर्थिक पूँजी है, जिसमें आय व्यक्तिगत संपत्ति तथा संपत्ति से होने वाली आय सम्मिलित हैं।
- शक्ति-शक्ति के माध्यम से व्यक्ति अथवा समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति दूसरों के विरोध के बावजूद करते हैं।
- मनोवैज्ञानिक संतुष्टि-मनोवैज्ञानिक संतुष्टि एक अभौतिक संसाधन है। किसी कार्य के द्वारा व्यक्ति को आनंद तथा सम्मान मिलता है। समाज समुचित कार्य के लिए व्यक्ति को पुरस्कृत करता है।
प्रश्न 2.
कुछ समाजशास्त्री सामाजिक स्तरीकरण को अपरिहार्य क्यों मानते हैं?
उत्तर:
समाजशास्त्री सामाजिक स्तरीकरण के निम्नलिखित कारणों को अपरिहार्य मानते हैं। –
- मानव समाज में असमानता प्रारम्भ से ही पायी जाती है। असमानता पाए जाने का प्रमुख कारण यह है कि समाज में भूमि, धन, संपत्ति, शक्ति तथा प्रतिष्ठा जैसे संसाधनों का वितरण समान नहीं होता है।
- विद्वानों का मत है कि यदि समाज के समस्त सदस्यों को समानता का दर्जा दे भी दिया जाए तो कुछ समय पश्चात उस समाज के व्यक्तियों में असमानता आ जाएगी। इस प्रकार समाज में असमानता एक सामाजिक तथ्य है।
- गम्पलाविज तथा ओपेनहीमार आदि समाजशास्त्रियों का मत है कि सामाजिक स्तरीकरण की शुरूआत एक समूह द्वारा दूसरे पर हुई।
- जीतने वाला समूह अपने को उच्च तथा श्रेष्ठ श्रेणी को समझने लगा। सीसल नाथ का विचार है कि “जब तक जीवन का शांतिपूर्ण क्रम चलता रहा, तब तक कोई तीव्र तथा स्थायी श्रेणी-विभाजन प्रकट नहीं हुआ।”
- प्रसिद्ध समाजशास्त्री डेविस का मत है कि सामाजिक अवचेतना अचेतन रूप से अपनायी जाती है। इसके माध्यम से विभिन्न समाज यह बात कहते हैं कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों को नियुक्त किया गया है। इस प्रकार प्रत्येक समाज में सामाजिक स्तरीकरण अपरिहार्य है।
प्रश्न 3.
प्रदत्त व अर्जित प्रस्थिति में अंतर बताइए। उचित उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
(i) प्रदत्त प्रस्थिति – प्रदत्त प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जो किसी व्यक्ति को उसके जन्म के आधार पर या आयु, लिंग, वंश जाति तथा विवाह आदि के आधार पर प्राप्त होता है। लेपियर के अनुसार, “वह स्थिति जो एक व्यक्ति के जन्म पर या उसके कुछ ही क्षण बाद अभिगेपित होती है, विस्तृत रूप में निश्चित करती है कि उसका समाजीकरण कौन-सी दिशा ‘लेगा-अपनी संस्कृति के अनुसार-पुंल्लिग-स्त्रीलिंग निम्न या उच्च वर्ग के व्यक्ति के रूप में उसका पोषण किया जा सकेगा।
वह कम या अधिक प्रभावशाली रूप में अपनी उस स्थिति से समाजीकृत होगा जो उस पर अभिरोपित है।” प्रदत्त प्ररिस्थति का निर्धारण सामाजिक व्यवस्था के मानकों द्वारा निर्धारित किया जाता है। उदाहरण के लिए उच्च जाति में जन्म के द्वारा किसी व्यक्ति को समाज में जो प्रस्थिति प्राप्त होती है वह उसकी प्रदत्त प्रस्थिति है। इसी प्रकार एक धनी परिवार में जन्म लेने वाले बालक से भिन्न होती है।
(ii) अर्जित प्रस्थिति – अर्जित प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जिसे व्यक्ति अपने निजी प्रयासों से प्राप्त करता है। लेपियर के अनुसार “अर्जित प्रस्थिति वह स्थिति है, जो साधारणतः लेकिन अनिवार्यतः नहीं, किसी व्यक्तिगत सफलता के लिए इस अनुमान पर पुरस्तकार स्वरूप स्वीकृत होती है कि जो सेवाएँ अपने भूत में की हैं वे सब भविष्य में जारी रहेंगी।” उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति अपने निजी प्रयासों के आधार पर डॉक्टर, वकील, इंजीनियर या अधिकारी बन सकता है।
प्रश्न 4.
क्या सहयोग हमेशा स्वैच्छिक अथवा बलात् होता है? यदि बलात् है, तो क्या मंजूरी प्राप्त होती है मानदंडों की शक्ति के कारण सहयोग करना पड़ता है? उदाहरण सहित चर्चा करें।
उत्तर:
सहयोग एक निरंतर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है। एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में सहयोग प्रत्येक समाज में पाया जाता है। सहयोग कुछ स्तरों पर तो स्वैच्छिक होता है। इस स्वैच्छिक सहयोग के आधार पर रक्त संबंध, भावनाएँ तथा पारस्परिक उत्तरदायित्व होते हैं। इस सहयोग में व्यक्तियों में स्वार्थ भिन्नता नहीं पायी जाती है। उद्देश्यों तथा साधनों में समानता पाई जाती है। उदहारण के लिए, स्वैच्छिक सहयोग परिवार में पाया जाता है। इस प्रकार के सहयोग की प्रकृति वैयक्तिक होती है। इस प्रकार के सहयोग के लिए बाध्य नहीं किया जाता।
सहयोग का एक अन्य रूप है-व्यक्ति अन्य समूहों के साथ अपने स्वार्थों तथा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सहयोग करता है। इसमें स्वीकृति भी होती है, नियमों की शक्ति भी। व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों को उसी सीमा तक सहयाग दिया जाता है जितना उसके स्वार्थों की पूर्ति के
लिए आवश्यक है। आधुनिक समाजों में श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण की प्रक्रियाएँ इसी का उदाहरण है। इसके अलावा ट्रेड यूनियनों, उद्योगों, कार्यालयों में ऐसा ही सहयोग मिलता है।
प्रश्न 5.
कृषि तथा उद्योग के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सहयोग शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के दो शब्दों ‘को’ तथा ऑपेरारी से हुई है। ‘को’ का अर्थ है साथ-साथ तथा ऑपरेरी का अर्थ है कार्य। अपने साधारण अर्थ में सहयोग का तात्पर्य समान हितों की पूर्ति हेतु एक साथ मिलकर कार्य करना है । इमाईल दुखाईम की सावयवी एकता की अवधारणा तथा कार्ल मार्क्स के प्रायः विभाजन की अवधारणा भी ‘सहयोग’ पर आधारित है।
कृषि के संदर्भ में सहयोग की अत्यन्त आवश्यकता पड़ती है। एक परिवार जो कृषि कार्य में संलग्न है, उसके सभी सदस्य कृषि के कार्यों में सहयोग करते हैं : खेत जोतने, बीज बोने, सिंचाई करने, फसल पकने तक उसकी रखवाली करने, फसल काटने आदि सभी कार्यों में बिना सहयोग के कार्य संपन्न होने में कठिनाई होती है। परिवारिक सदस्यों के सहयोग से ये कार्य शीघ्र संपन्न हो जाते हैं।
इसी प्रकार औद्योगिक कार्यों के संदर्भ में भी सहयोग की आवश्यकता तो देखा जा सकता है। एक रेडीमेड गारमेंट फैक्ट्री तथा एक कार निर्माण फैक्ट्री में बिना कुशल/अकुशल श्रमिकों के बीच सहयोग के उत्पादन कार्य नहीं हो सकता है। कार्ल मार्क्स ने इसलिए कहा है-“बिना सहयोग के मानव जीवन पशु जीवन के समान है।”
प्रश्न 6.
लिंग के आधार पर स्तरीकरण की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
लिंग के आधार पर भी सामाजिक संस्तरण किया जाता है। इसके अंतर्गत पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग में अंतर किया जाता है। लिंग की भूमिकाएँ अलग-अलग संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, लेकिन लिंग पर आधारित स्तरीकरण सार्वभौमिक होता है। उदाहरण के लिए पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुषों के कार्यों को स्त्रियों की अपेक्षा अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। समाज में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचनाओं पर पुरुषों का दबदबा कायम रहता है।
लिंग की समानता के समर्थक शिक्षा, सार्वजनिक अधिकारों में भागीदारी तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता के जरिए स्त्रियों को समर्थ बनाए जाने की हिमायती हैं। वर्तमान समय में लिंग पर आधारित असमानताओं को हटाने की बात अधिक जोरदार तरीके से उठायी जा रही है। महिला आंदोलन के कारण लिंग पर आधारित भेदभावों को हटाने का सतत प्रयास किया जा रहा है। वर्तमान समय में लिंग भेद की अवधारणा जैविक भिन्नता के अलग हो गई है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अनुसार भिन्नता भूमिकाओं तथा संबंधों के संदर्भ में देखी जानी चाहिए।
प्रश्न 7.
स्तरीकरण की खुली बंद व्यवस्था अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्तरीकरण की खुली तथा बंद व्यवस्था में निम्नलिखित अंतर है –
प्रश्न 8.
ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ प्रतियोगिता नहीं है। क्या यह संभव है? अगर नहीं तो क्यों?
उत्तर:
समाज में प्रतियोगिता एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। समाजशास्त्री मैक्स वैबर ने समाज में प्रतियोगिता के महत्व को स्वीकार किया है। प्रतियोगिता किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्राप्न की जाती है। यथा विद्यालय की कक्षा में छात्रों में सर्वप्रथम स्थान पाने के लिए प्रतियोगिता की स्थिति उत्पन्न होती है। हॉकी की दो टीमों के बीच में प्रतियोगिता का अनुभव किया जा सकता है। दो उत्पादकों में प्रतियोगिता का स्वरूप अनुभव किया जा सकता है। हर्टन एवं हंट ने स्पष्ट किया है कि किसी भी पुरस्कार को प्रतिद्वंदियों से प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रतियोगिता है।
प्रतियोगिता का क्षेत्र व्यापक होता है। किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों अथवा समूहों के बीच प्रतियोगिता एक स्वरूप बनता है। स्पष्ट है कि ऐसे समाज की कल्पना असंभव है जहाँ प्रतियोगिता न हो। इसका कारण है कि प्रतियोगिता से जुड़े व्यक्तियों में अपने उद्देश्यों के प्रति समर्पण की भावना पैदा होती है। लोग अपनी गुणवत्ता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। जैसे उत्पादकों के बीच में तीव्र प्रतियोगिता की स्थिति बनी रहती है। प्रत्येक उत्पादक अधिक से अधिक उपभोक्ताओं को उपहार प्रदान कर तथा विक्रेताओं को अधिक लाभांश देकर बाजार में सबसे आगे निकलना चाहता है। प्रतियोगिता सबसे आगे निकलने की प्रक्रिया है। प्रतियोगिता के बिना समाज अधूरा है।
प्रश्न 9.
संघर्ष से किस प्रकार सामाजिक विघटन होता है? समझाइए।
उत्तर:
संघर्ष द्वारा सामाजिक एकता के ताने-बाने को खंडित किया जाता है। एक प्रक्रिया के रूप में संघर्ष वस्तुतः सहयोग का प्रविवाद है । गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अथवा समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अपने विरोधी को हिंसा या हिंसा के भय द्वारा प्रत्यक्ष आह्वान देकर करते हैं” बीसंज तथा बीसंज ने इस संबंध में लिखा है कि “फिर भी अधिक संघर्ष विनाशकारी होता है तथा जितनी समस्याओं को सुलझाता है उससे कहीं अधिक समस्याओं को जन्म देता है।”
वैयक्तिक स्तर पर विघटन-वैयक्तिक स्तर पर पृथक्-पृथक् स्वभाव, दृष्टिकोण, मूल्य, आदर्श तथा हित होने के कारण कोई भी दो व्यक्ति परस्पर समायोजित नहीं कर पाते हैं, जिसके कारण उनके बीच संघर्ष होता है, इससे व्यक्तियों का सामाजिक विकास बाधित होता है। सामूहिक स्तर पर विघटन-सामूहिक स्तर पर संघर्ष दो समूहों अथवा समाजों के बीच होता है।
सामूहिक संघर्ष के निम्नलिखित उदाहरण है –
- प्रजातीय संघर्ष
- सांप्रदायिक संघर्ष
- धार्मिक संघर्ष
- मजदूर-मालिक संघर्ष
- देश के बीच संघर्ष तथा
- राजनीतिक दलों में संघर्ष
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
क्या आप भारतीय समाज के संघर्ष के विभिन्न उदाहरण ढूंढ सकते हैं? प्रत्येक उदाहरण में वे कौन से कारण थे जिसने संघर्ष को जन्म दिया? चर्चा कीजिए?
उत्तर:
‘संघर्ष विश्व के सभी समाजों में पाया जाता है। ग्रीन के अनुसार, “संघर्ष जान-बूझकर किया गया वह प्रयत्न है जो किसी भी इच्छा का विरोध करके उसके आड़े आने या उसे दबाने के लिए किया जाता है।” गिलिन और गिलिन के अनुसार, “संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति या समूह अपने विरोधी के प्रति प्रत्यक्षतः हिंसात्मक तरीके अपनाकर या उसे हिंसात्मक तरीका अपनाने की धमकी देकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहते हैं।”
इस प्रकार अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हिंसात्मक तरीके अपनाकर दूसरे के इच्छाओं का दमन करना संघर्ष कहलाता है। भारतीय समाज में भी अनेक प्रकार के संघर्ष विद्यमान हैं जिनमें प्रमुख हैं-जाति एवं वर्ग, जनजातीय संघर्ष, लिंग, नृजातीयता, धर्म, सांप्रदायिकता से जुड़े संघर्ष।
प्रमुख संघर्षों की चर्चा निम्नवत है –
(i) जातीय संघर्ष – समाजशास्त्री एच.ची. वेल्स का कहना है कि मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों के आधार पर समाज का स्तरीकरण करने से समाज का विकास तीव्र गति से होता है। प्राचीनकाल में भारतीय समाज ने स्वयं को स्थित तथा शक्तिशाली बनाने के लिए अपने सदस्यों को उनकी योग्यता, पटुता तथा शक्ति के अनुसार चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में बांट दिया । यही प्राचीन वर्णों को चार अलग-अलग सामाजिक कार्य सौंप दिए गए। धीरे-धीरे यह असमानता ऊँच-नीच की भावनाओं का आधार बन गई और समाज में संघर्ष उत्पन्न हो गया। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णनन् ने इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा कि भारतीय वर्ण-व्यवस्था में यद्यपि वंशानुगत क्षमताओं का महत्व तो था, तथापि यह व्यवस्था मुख्य रूप से गुण तथा कर्म सिद्धांतों पर आधारित थी।
पौराणिक काल के बाद कर्म सिगन्त का स्थान जन्म सिद्धांत ने ले लिया और वर्ण-व्यवस्था जाति-व्यवस्था के स्वरूप में परिवर्तित हो गई जाति-व्यवस्था में सामाजिक असमानता का स्वरूप हो गया। ब्राह्मण सबसे उच्च तथा पवित्र माने गए; तो क्षत्रिय का स्थान द्वितीय माना गया, वैश्य का स्थान तीसरा तथा शूद्र का स्थान चौथा माना गया। एक वर्ण में फिर अनेक जातियाँ, उप-जातियों बनी, उनमें उच्चता और निम्नता की सीढ़ियाँ बनती चली गई, इनका आधार जन्म था, इसलिए इस व्यवस्था में दृढ़ता और रूढ़िवादिता आती चली गई, इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में स्तरीकरण के सिद्धांत के अन्तर्गत जाति व्यवस्था का जन्म हुआ।
इस जाति-व्यवस्था के आधार पर भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक असमानताएँ उत्पन्न होती चली गई। अनेक समाजशास्त्रियों का कहना है कि भारतीय समाज में जाति-प्रथा के कारण जो सामाजिक असमानता, भेद-भाव तथा छुआछूत की भावना दिखाई देती है, ऐसे भेदभाव की भावना संसार के अन्य किसी समाज में देखने को नहीं मिलती है जिसने जातिगत संघर्ष को जन्म दिया। इस संघर्ष को जातिवाद नाम दिया गया।
निराकरण-जातिवाद विभिन्न संघर्षों को जन्म देता है। इसके निराकरण के लिए डॉ. जी. एस. घुरिये ने सुझाव दिया था कि अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। समाजशास्त्री पी.एच.प्रभु की मान्यता डालकर जातिवाद को दूर किया जा सकता है। डॉ. राव ने वैकल्पिक समूहों के निर्माण में जातिवाद को समाप्त करने के लिए कहा है। कुछ समाजशास्त्रियों ने जातिवाद से छूट पाने केलिए आर्थिक विकास को अत्यन्त आवश्यक माना है। सरकार ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों, अछूतों की निर्योग्यताओं को समाप्त कर उच्च जातियों के समकक्ष लाने का प्रयत्न किया है जिसके लिए अस्पृष्ठता अधिनियम, 1995 पारित किया गया और इस असमानता को दूर करने में सरकार ने सफलता भी प्राप्त की है।
(ii) नृजातीय संघर्ष – समाजशास्त्रियों ने प्रजातीय दृष्टि से भारत को विभिन्न प्रजातियों का ‘द्रवणपात्र’ और प्रजातियों का अजायबघर की संज्ञा दी है। भारत में संसार की तीनों प्रमुख प्रजातियाँ श्वेत प्रजाति, पीत प्रजाति एवं काली प्रजाति और अनेक उपशाखायें निवास करती हैं। उत्तर भारत में आर्य प्रजातीय भिन्नता होने पर भी भारत में अमेरिका और अफ्रीका की भांति प्रजातीय संघर्ष और दंगे-फसाद नहीं हुए हैं, बल्कि उनमें पारस्परिक सद्भाव एवं सहयोग ही रहा है।
छिटपुट घटनाएँ होना साधारण बात है। भारत में विभिन्न प्रजातियों का मिश्रण भी हुआ है। स्पष्ट है कि भारत में प्रजातिवादी संघर्ष की समस्या नहीं पायी जाती है। भारतीय समाज प्रारंभ से ही मानता रहा है कि भारत में प्रजातिवाद एक अवैज्ञानिक अवधारणा है। भारत की भौगोलिक विशेषताओं एवं आजीविका के प्रचुर साधन विभिन्न प्रजातीय समूहों के लिए प्रारंभ से ही आकर्षण का केन्द्र बन रहे हैं।
(iii) जनजातीय संघर्ष – वर्तमान में सम्पूर्ण जनजातीय भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इस संक्रमण के दौरान जनजातियों में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। इन समस्याओं की प्रकृति और कारण अलग-अलग जनजातियों में भिन्न-भिन्न हैं। कुछ जनजातियों में जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, जैसे-भील और गोंड में तो कुछ जनजातियों में, जैसे-टोडा एवं कोरबा में जनसंख्या घट रही है।
कई जनजातियाँ नगरीय संस्कृति के संपर्क में आई हैं जिसके फलस्वरूप उनकी मूल संस्कृति में कई परिवर्तन हुए हैं। उनमें दिशाहिनता एवं सांस्कृतिक छिन्न-भिन्नता उत्पन्न हुई है और मानसिक असंतोष में वृद्धि हुई है। ब्रिटिश काल में जनजातिय लोगों के संपर्क ईसाई मिशनरियों और राज्य कर्मचारियों के साथ बढ़े। परिणामस्वरूप उन्हें कुछ लाभ तो प्राप्त हुए, किन्तु इनसे उनके जीवन में विघटन भी प्रारंभ हो गया।
जनजातीय लोगों के संपर्क ईसाई मिशनरियों और राज्य कर्मचारियों के साथ बढे। परिणामस्वरूप उन्हें कुछ लाभ तो प्राप्त हुए, किन्तु जनजातियों के निवास क्षेत्र में व्यापारी और ठेकेदार लोग पहुँच गए। उन्होंने जनजातीय लोगों का खूब आर्थिक शोषण किया और कम मजदूरी पर उनसे अधिक श्रम लेने लगे सूदखोरों ने इन लोगों की जमीनें कम दामों में खरीद ली और अपने घर में वे परायों की तरह कृषि मजदूर के रूप में काम करने लगे।
कभी-कभी इनसे बेगारी भी ली जाने लगी। ठेकेदारों एवं व्यापारियों ने कहीं-कहीं जनजातीय स्त्रियों के साथ अनैतिक संबंध भी स्थापित किये जिसके परिणामस्वरूप अनेक जनजातीय लोग गुप्त रोगों से पीड़ित हो गए। इस संपर्क के फलस्वरूप जनजातियों में वेश्यावृत्ति पनपी। ईसाई मिशनरियों ने जनजातीय धर्म के स्थान पर ईसाई धर्म को स्थापित कर आदिवासियों को अपने पड़ोसी समुदाय से अलग कर दिया।
इससे आदिवासियों में धार्मिक और सामाजिक एकता का सकंट पैदा हो गया, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याएँ खड़ी हुईं, उनमें पृथकता की भावना पनपी और वे पृथक् राज्य की मांग करने लगे। इसके लिए संघर्ष प्रारंभ हुआ। इस संघर्ष के कारण उत्तरांचल, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे नवीन राज्यों का गठन हुआ।
प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना किसे कहते हैं? इसके विभिन्न तत्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक संरचना का अर्थ-सामाजिक संरचना का तात्पर्य उन विभिन्न पद्धतियों से है जिनके अंतर्गत सामूहिक नियमों, भूमिकाओं तथा कार्यों के साथ एक स्थिर प्रतिमान संगठित होता है। प्रमाजिक संरचना अदृश्य होती है, लेकिन यह हमारे कार्यों के स्वरूप को स्पष्ट करती है। सामाजिक संरचना के निम्नलिखित तत्व हमारे कार्यों का निर्देशन करते हैं –
- सामाजिक प्रस्थितियाँ
- सामाजिक भूमिकाएँ
- सामाजिक मानक
- सामाजिक मूल्य
सामाजिक संरचना की तुलना एक भवन से की जा सकती है। एक भवन के अंतर्गत निम्नलिखित तीन तत्व पाए जाते हैं –
- भवन निर्माण सामग्री जैसे-ईंटें, गामा, बीम तथा स्तंभ।
- इन सभी को एक निश्चित क्रम में जोड़ा जाता है तथा एक-दूसरे से मिलाकर रखा जाता है।
- भवन सामग्री के इन सब तत्वों को मिलाकर भवन का एक इकाई के रूप में निर्माण किया जाता है।
उपरोक्त वर्णित विशेषताओं का प्रयोग सामाजिक संरचना का वर्णन करने में किया जा सकता है। एक समाज की संरचना का निर्माण निम्नलिखित तत्वों से मिलकर बनता है –
- स्त्री, पुरुष, वयस्क तथा बच्चे, अनेक व्यावहारिक तथा धार्मिक समूह आदि।
- समाज के विभिन्न अंगों में अंतःसंबंध जैसे जैसे पति-पत्नी के बीच संबंध, माता-पिता तथा उनके बीच संबंध तथा विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच संबंध।
- समाज के सभी अंग मिला दिए जाते हैं ताकि वे एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।
सामाजिक संरचना की परिभाषा –
(i) गिन्सबर्ग के अनुसार, सामाजिक संरचना के अध्ययन का संबंध सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों, यथा समूहों, समितियों तथा संस्थाओं के प्रकारों तथा इनके संकुल जो समाजों के निर्माण करते हैं, से है। सामाजिक संरचना के विस्तृत वर्णन में तुलनात्मक संस्थाओं के समग्र क्षेत्र का अध्ययन समाहित है।”
(ii) रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार “सामाजिक संरचना के घटक मानव प्राणी हैं, स्वयं संरचना तो व्यक्तियों को क्रमबद्धता है, जिनके संबंध संस्थात्मक रूप से परिभाषित एवं नियमित हैं।
(iii) टॉलकॉट पारसंस के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, अभिकरणों और सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।”
(iv) जॉनसन के अनुसार “किसी भी वस्तु की संरचना उसके अंगों में पाये जाने वाले अपेक्षाकृत स्थायी अंतःसंबंधों को कहते हैं। इसके अलावे, अंग शब्द स्तंभ स्थिरता की कुछ मात्रा का बोध कराता है। सामाजिक व्यवस्था व्यक्तियों के अंत:संबंधित कार्यों से निर्मित होती है, इसलिए इसकी संरचना की खोज इन कार्यों में नियमितता या पुरावृत्ति की कुछ मात्रा में की जाती है।”
(v) कर्ल मानहीम के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिसमें अवलोकन तथा चिंतन की विश्वप्रणालियों को जन्म होता है।
(vi) रॉबर्ट के. मर्टन ने संरचना पर प्रतिमानहीनता के संदर्भ में विचार किया है। मर्टन के अनुसार सामाजिक संरचना के निम्नलिखित दो तत्व अत्यकि महत्वपूर्ण हैं
- सांस्कृतिक लक्ष्य तथा
- संस्थागत प्रतिमान।
सांस्कृतिक तत्व के अंतर्गत वे लक्ष्य तथा उद्देश्य आते हैं जो संस्कृति द्वारा स्वीकृत होते हैं। इसके अलावा, समाज के अनेक सदस्यों में से प्राय:सभी सदस्य उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। संस्थागत प्रतिमान के अंतर्गत लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु संस्कृति द्वारा स्वीकृत साधनों/प्रतिमानों को सम्मिलित किया जाता है। वास्तव में सांस्कृतिक लक्ष्यों तथा संस्थागत प्रतिमानों के बीच पाया जाने वाला संतुलन ही सामाजिक संरचना है। मर्टन के विचार में इसके बीच संतुलन की स्थिति भंग होने पर समाज में प्रतिमामहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ –
- प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के दो पक्ष होते हैं –
(a) संरचनात्मक पक्ष तथा
(b) प्रकार्यात्मक पक्ष - मानव आवश्यकताएँ सामाजिक संरचना का मूल आधार हैं।
- समुदाय, समूह, समिति तथा संगठन सामाजिक संरचना के मुख्य भाग हैं।
- समुदाय संरचना की प्रकृति मूल्यपरक होती है।
- सामाजिक संरचना के इस पक्ष के अंतर्गत प्रथाएँ, जनरीतियों, मूल्यों, सांस्कृतिक मापदंडों तथा कानूनों के द्वारा संबद्ध होते हैं।
- सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों जैसे समुदाय, समिति, समूह तथा संगठन आदि परस्पर प्रथाओं, जनरीतियों तथा कानूनों द्वारा संबद्ध होते हैं।
- इन सभी भागों के अपने प्रकार्य हैं। इन प्रकार्यों का निर्धारण सामाजिक प्रतिमानों तथा मूल्यों के द्वारा होता है।
सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्व-सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं –
(i) आदर्शात्मक व्यवस्था – आदर्शात्मक व्यवस्था समाज के सम्मुख कुछ आदर्शों तथा मूल्यों को प्रस्तुत करती है। इन आदर्शों तथा मूल्यों के अनुसार संस्थाओं तथा समितियों को अंतः संबंति किया जाता है। व्यक्तियों द्वारा समाज स्वीकृत आदर्शों तथा मूल्यों के अनुसार अपनी भूमिकाओं को निभाया जाता है।
(ii) पद व्यवस्था – पद व्यवस्था द्वारा व्यक्तियों की प्रस्थितियों तथा भूमिकाओं का निर्धारण किया जाता है।
(iii) अनुज्ञा व्यवस्था – प्रत्येक समाज में आदर्शों तथ मूल्यों को समुचित तरीके से लागू करने के लिए अनुज्ञा व्यवस्था होती है। वास्तव में सामाजिक संरचना के विभिन्न अंगों का समन्वय सामाजिक आदर्शों तथा मूल्यों को पालन करने पर निर्भर करता है।
(iv) पूर्वानुमानित अनुक्रिया व्यवस्था – पूर्वानुमानित अनुक्रिया व्यवस्था सामाजिक संरचना, स्तरीकरण एवं समाज में सामाजिक प्रक्रियाएँ लोगों से सामाजिक व्यवस्था में भागीदारी की मांग करती है। इसके द्वारा सामाजिक संरचना को गति मिलती है।
(v) क्रिया व्यवस्था – क्रिया व्यवस्था के द्वारा सामाजिक संबंधों के ताने-बाने को पूर्ण किया जाता है। वह सामाजिक संरचना को आवश्यक गति भी प्रदान करती है।
प्रश्न 3.
किसी समाज की उत्तरजीविता के लिए विभिन्न प्रकार्यों की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रकार्य वस्तुतः किसी भी समाज की उत्तरजीविका तथा निरंतरता के लिए आवश्यक है। किसी भी संरचना का विशिष्ट कार्य ही उसका प्रकार्य कहलाता है। प्रकार्यों में अंतिनिर्भरता पायी जाती है। प्रकार्य समाज को बनाए रखने तथा उसमें स्थिरता तथा निरंतरता के लिए आवश्यक है। प्रकार्यों की सफलता तथा असफलता का प्रभाव समाज के अन्य संगठनों के प्रकार्यों को प्रभावित करता है। किसी भी समाज की उत्तरजीविका तथा निरंतरता के लिए निम्नलिखित प्रकार्य आवश्कय हैं
(i) सदस्यों की भर्ती – सभी समाजों में प्रजनन नए सदस्यों की भर्ती का मूल स्रोत है। हालांकि अप्रवास तथा नए क्षेत्रों को मिलाकर भी नए सदस्यों को भर्ती की जा सकती है।
(ii) समाजीकरण – ऑग्बर्न के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे कि व्यक्ति समूह के आदर्श नियमों के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है।” सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से समाजीकरण पर आधारित होती है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा एक जैविक मनुष्य एक सामाजिक प्राणी में बदल जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही व्यक्ति सामाजिक मूल्यों, मानकों, नियमों तथा कुशलताओं को सीखता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के दो माम निम्नलिखित हैं
- अनौपचारिक माध्यम-जैसे-परिवार, मित्र समूह तथा पड़ोस।
- औपचारिक साधन-जैसे-विद्यालय तथा अन्य संस्थाएँ।
समाजीकरण की प्रक्रिया निरतर रूप से जीवन-पर्यन्त चलती रहती है।
(iii) वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन एवं वितरण-समाज की उत्तरजीविता तथा निरंतरता हेतु समाज के सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है। आर्थिक आवश्यकताओं के अंतर्गत वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन ही पर्याप्त नहीं है वरन् उनका क्रमबद्ध तरीके से सूक्ष्म वितरण भी आवश्यक है। सभी समाजों में मानकों तथा मूल्यों का समुचित विकास किया जाता है, जिससे वस्तुओं तथा सेवाओं का उपयुक्त निर्धारण हो सके। उत्पादन के अनुपयुक्त वितरण से समाज में भ्रांति तथा अराजकता उत्पन्न हो सकती है।
(iv) व्यवस्था का संरक्षण-व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सभी समाजों में नियमों की कोई न कोई व्यवस्था अपनायी जाती है। समाज को नष्ट होने से बचाने के लिए उसका संरक्षण जरूरी है। व्यवस्था का संरक्षण औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों के माध्यम से किया जाता है। अनौपचारिक साधनों के अंतर्गत रूढ़ियों, लोकाचार, मानक तथा दबाव समूह आदि आते हैं लेकिन आधुनिक समाजों में व्यवस्थरा के संरक्षण हेतु औपचारिक साधन कानून व न्यायालय हैं।
प्रश्न 4.
संरचना, प्रकार्य व व्यवस्था के संबंधों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संरचना, प्रकार्य तथा व्यवस्था के बीच संबंध-संरचना तथा प्रकार्य सामाजिक व्यवस्था के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं। यही कारण है कि सामाजिक संरचना की तुलना मानव शरीर या भवन से की जाती है। जिस प्रकार शरीर तथा भवन में अनेक भाग होते हैं, उसी प्रकार सामाजिक संरचना का निर्माण अनेक तत्वों से मिलाकर होता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री स्पेंसर समाज को एक व्यवस्था के रूप में वर्णित करते हैं। एक व्यवस्था के रूप में समाज अपने विभिन्न अंगों के पारस्परिक संबंधों से मिलकर निर्मित होता है।
अपनी धारणा को और अधिक स्पष्ट करने के लिए स्पैंसर समाज की तुलना मानव शरीर से करते हैं। जिस तरह मानव शरीर के विभिन्न अंगों का समुच्चय शरीर है, उसी प्रकार संगठनों, संस्थाओं तथा समूहों के रूप में समाज के अनेक अंग हैं। उनके पारस्परिक संबंधों तथा मिले-जुले स्वरूप को ही सामाजिक व्यवस्था कहते हैं। स्पेंसर समाज को एक प्रणाली के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन अपनी व्याख्या में उन्होंने व्यवस्था तथा संरचना में अंतर किया है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री पैरेटो व्यवस्था की व्याख्या समाज के विभिन्न अंगों के अंत:संबंधों के रूप में करते हैं। दूसरी तरफ, टालकाट पारसंस ने सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को तार्किक रूप से परिभाषित किया है। पारसंस के अनुसार, “एक सामाजिक व्यवस्था एक ऐसे परिस्थिति में जिसका कि कम से कम एक भौतिक या पर्यावरण संबंधी पक्ष हो, अपनी आवश्यकताओं की आदर्श पूर्ति से प्रवृति से प्रेरित होने वाले अनेक व्यक्तिगत कर्ताओं की परस्पर अंत:क्रियाओं के फलस्वरूप होती है तथा इन अंत:क्रियाओं में संलग्न व्यक्तियों का पारस्परिक संबंध तथा उनकी स्थितियों के साथ संबंध को सांस्कृतिक रूप से संरचित तथा स्वीकृत प्रतीकों की एक व्यवस्था द्वारा परिभाषित तथा मध्यस्थित किया जाता है।”
संक्षेप में पारसंस ने कहा है कि “सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप में अंतः क्रियात्मक संबंधों का जाल है।” – शरीर के संरचनात्मक अध्ययन में शरीर के विभिन्न अंगों का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जाता है। हाथ, पैर, आँख, नाक, कान आदि अलग-अलग रहकर शरीर का निर्माण नहीं करते हैं। वस्तुतः इनका मिला-जुला स्वरूप ही शरीर है। उसी प्रकार एक भवन में छत, दरवाजे, दीवारें तथा खिड़कियाँ आदि होते हैं लेकिन अकेली छत, खिड़की या दीवार भवन नहीं हो सकती।
विभिन्न संस्थाएँ, समूह तथा संगठन ही मिलकर सामाजिक संरचना का निर्माण करते हैं। सामाजिक संरचना एक गतिशीलता वास्तविककता है। सामाजिक संरचना बदलती हुई परिस्थतियों से अनुकूलन की क्षमता रखती है। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग विभिन्न कार्यों को करते हैं, ठीक उसी प्रकार सामाजिक संरचना के विभिन्न अंग भी विभिन्न आवश्यकताओं तथा प्रकार्यों को पूरा करते हैं।
प्रकार्य का तात्पर्य समाज को निर्मित करने वाले विभिन्न अंगों या इकाईयों के कार्यों से है। प्रकार्य सामूहिक मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायक होते हैं रेडिक्लिफ ब्राउन का मत है कि प्रकार्यों द्वारा ही संपूर्ण समाज का अस्तित्व बना रहा है। पैरेटो ने कहा है कि समाज संतुलन की एक व्यवस्था है और इसका प्रत्येक अंग एक-दूसरे पर निर्भर है।
एक अंग में होने वाला परिवर्तन दूसरे अंग को प्रभावित करता है। इसी प्रकार एक भाग जब तक अपने कार्यों का निष्पादन उचित प्रकार से करता रहता है, तब तक संतुलन की स्थिति बनी रहती है तथा सामाजिक व्यवस्था निर्बाध रूप से चलती रहती है।
प्रश्न 5.
समाज के लिए संरचना व प्रकार्य के महत्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
समाज के लिए संरचना का महत्व-सामाजित संरचना का तात्पर्य उन विभिन्न पद्धतियों से है जिसके अंतर्गत सामाजिक संरचना के तत्व हमारे कार्यों के साथ एक स्थिर प्रतिमान संगठित होता है। सामाजिक संरचना के तत्व हमारे कार्यों को निर्देशित करते हैं। सामाजिक संरचना के निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं –
- सामाजिक प्रस्थितियाँ
- सामाजिक भूमिकाएँ
- सामाजिक मानक
- सामाजिक मूल्य तथा
- आवश्यकताएँ
व्यक्तियों की सामाजिक जीवन में अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं को पूरा करने की प्रक्रिया में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से अंत:क्रिया तथा अंत:संबंध विकसित करता है। इसी संदर्भ में व्यक्ति अनेक भूमिकाओं का संपादन करता है। उदाहरण के लिए परिवार में एक व्यक्ति5 पिता, पुत्र पति तथा भाई आदि की भूमिका निभाता है। भूमिकाओं की इस बहुलता को भूमिकाकुलक कहते हैं। व्यक्तियों की आवश्यकताओं, भूमिकाओं, प्रतिस्थतियों, मानकों तथा मूल्यों के अनुसार सामाजिक प्रणाली की संरचना तथा उप-संरचना में विभेदीकरण तथा विविधता पापी जाती है।
उदाहरण के लिए विवाह की संस्था से संबद्ध पति, पत्नी तथा बच्चों की जो भूमिका तथा प्रस्थिति है, उसी के परिणामस्वरूप परिवार तथा नातेदारी जैसे संबंधों की संरचनात्मक तत्वों का समूहीकरण कहा है। अतः समाज के लिए संरचना का महत्व अत्यधिक है। यह समाज के लिए विकास के लिए अपरिहार्य है। संरचना के माध्यम से समाज के मानकों तथा मूल्यों का विकास होता है।
समाज के लिए प्रकार्यों का महत्व – रॉबर्ट के. मर्टन के अनुसार, “प्रकार्य वे अवलोकित परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था से अनुकूलन व सामंजस्य को बढ़ाते हैं।” रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, “किसी सामाजिक इकाई का प्रकार्य उस इकाई द्वारा किए जाने वाला वह योगदान है जिसे वह सामाजिक व्यवस्था की क्रियाशीलता हेतु सामाजिक जीवन को प्रदान करता है।”
हैरी.एम. जानसन एक विशेष प्रकार का उपसमूह, एक कार्य, एक सामाजिक मान्यता अथवा एक सांस्कृतिक मूल्य का योगदान प्रकार्य कहलाता है, जबकि वह एक सामाजिक व्यवस्था अथवा उपव्यवस्था की एक अथवा अधिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे।”
उपरोक्त वर्णित परिभाषाओं के आधार पर समाज के लिए प्रकार्यों का महत्व निम्नलिखित है –
- सामाजिक प्रकार्यों द्वारा सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक संगठन को बनाए रखने में सहायता मिलती है।
- प्रकार्यों का तार्प्य समाज को बनाने वाले विभिन्न अंगों या कार्यों से होता है।
- समाज के विभिन्न अंगों तथा संस्थाओं के प्रकार्य अलग-अलग होते हैं लेकिन उनके बीच पारस्परिक संबंध पाया जाता है। इन्हें प्रकार्यात्मक कहते हैं।
- प्रकार्य मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायक होते हैं।
- प्रकार्य सकारात्मक सामाजिक अवधारण है इनके द्वारा समाज में मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।
- प्रकार्य समाज के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं।
- प्रकार्यों के साथ-साथ समाज में अकार्य भी पाये जाते हैं।
मार्टन के अनुसार, “अकार्य निरीक्षण द्वारा स्पष्ट होने वाले परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था के अनुकूलन अथवा अभियोजन को कम कर देते हैं।” अकार्य एक नकारात्मक अवधारणा है जिनसे समाज में विघटन उत्पन्न होता है।
प्रकार्य किसी भी समाज की निरंतरता को बनाए रखने के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य करते हैं –
- नए सदस्यों की भर्ती-इसका मूल स्रोत प्रजनन है।
- समाजीकरण-समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा जैविक मनुष्य का एक सामाजिक प्राणी में बदल जाता है।
- वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन वितरण-समाज को बनाए रखने के लिए. वस्तुओं और सेवाओं का उचित उत्पादन तथा वितरण आवश्यक है।
- व्यवस्था का संरक्षण-प्रत्येक समाज में सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण हेतु औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों को अपनाया जाता है।
- आधुनिक समाजों में कानून तथा न्यायालय जैसे औपचारिक साधनों का महत्व बढ़ता जा रहा है।
प्रश्न 6.
प्रतियोगिता की विस्तृत व्याख्या दीजिए।
उत्तर:
हार्टन तथा हंट के अनुसार, “किसी भी पुरस्कार को प्रतिद्वंदीयों से प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रतियोगिता है” सदरलैंड, वुडवर्ड तथा मैक्सवैल के अनुसार, “प्रतियोगिता कुछ व्यक्तियों तथा समूहों के बीच उन संतुष्टियों को प्राप्त करने के लिए होने वाला अवैयक्तिक, अचेतन तथा निरंतन संघर्ष है, जिनकी पूर्ति सीमित होने के कारण उन्हें सभी व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकते।”
मसर तथा वारंडरर ने प्रतियोगिता का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से दिया है –
- विशुद्ध एवं सीमित प्रतियोगिता
- निरपेक्ष प्रतियोगिता एवं सापेक्ष प्रतियोगिता
- वैयक्तिक एवं अवैयक्तिक प्रतियोगिता
- सृजनात्मक एवं असृजनात्मक प्रतियोगिता
1. विशुद्ध एवं सीमित प्रतियोगिता – सैद्धांतिक तौर पर प्रतियोगिता का स्वरूप विशुद्ध हो सकता है। इसका तात्पर्य है कि प्रतियोगिता बिना सांस्कृतिक बंधनों के भी हो सकती है। विशुद्ध प्रतियोगिता आदर्श प्रतियोगिता होती है। दूसरी तरफ, जब प्रतियोगिता में सहयोग आ जाता है तथा व्यक्ति नियमों के अनुसार प्रतियोगिता में भाग लेते हैं, यह सीमित प्रतियोगिता कहलाती है।
2. निरपेक्ष प्रतियोगिता एवं सापेक्ष प्रतियोगिता – अनेक बार व्यक्ति अथवा समूह द्वारा सीमित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता की जाती है। सफल व्यक्ति द्वारा ही उस सीमित लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। उदाहरण के लिए हमारे देश में एक ही व्यक्ति उप-राष्ट्रपति के चुनाव में विजय प्राप्त कर सकता है। पराजित व्यक्ति को उस पद का लाभ नहीं मिलता है। उसे निरपेक्ष प्रतियोगिता कहते हैं।
दूसरी ओर, जब व्यक्तियों द्वारा सामाजिक प्रतिष्ठा, शक्ति तथा धन आदि को प्राप्त करने के लिए प्रयास किया जात है तथा वे अपने प्रयास में सफलता प्राप्त करते हैं लेकिन वह यह आशा नहीं करते हैं कि उनके प्रतियोगितों के पास प्रतिष्ठा, शक्ति तथा धन आदि में से कुछ भी न हो । इन समस्त प्राप्तियों का अनुपाल कम या अधिक हो सकता है। इसे सापेक्ष प्रतियोगिता कहा जाता है।
3. वैयक्तिक एवं अवैयक्तिक प्रतियोगिता – कभी-कभी दो व्यक्तियों के मध्य प्रतियोगिता होती है। दोनों व्यक्ति एक-दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से अन्तः क्रिया करते हैं। इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि किसी एक पद को प्राप्त करने के लिए जब अनेक व्यक्तियों द्वारा प्रयास किया जाता है तो उसे वैयक्तिक प्रतियोगिता कहते हैं।
अवैयक्तिक प्रतियोगिता विशालकाय व्यावहारिक प्रतिष्ठानों के मध्य देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए कार तथा टी.वी. बनाने वाली कंपनियों के बीच अपने-अपने उत्पादों को बाजार में बेचने के लिए अवैयक्तिक प्रतियोगिता पायी जाती है लेकिन इन कंपनियों के कर्मचारियों के बीच वैयक्तिक अन्त:क्रिया के रूप में प्रतियोगिता नहीं पायी जाती है।
4. सृजनात्मक एवं असृजनात्मक प्रतियोगिता – जिस प्रतियोगिता से विकास को बल मिलता है उसे सृजनात्मक प्रतियोगिता कहा जाता है। उसके विपरीत जिस प्रतियोगिता से विकास के कार्य में बाधा पहुँचती है, उसे असृजनात्मक प्रतियोगिता कहते हैं।
प्रश्न 7.
सामाजिक स्तरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
सदरलैण्ड तथा मैक्सवेल के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण अन्त:क्रिया तथा विभेदीकरण की प्रक्रिया है, जिसके आधार पर कुछ व्यक्तियों का स्थानक्रम अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा उच्च होती है।”
असमानता का तथ्य सामाजिक स्तरीकरण में अन्तर्निहित होता है।
सामाजिक स्तरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- समाज में शक्ति, प्रतिष्ठा, संसाधनों, पुरस्कारों तथा सुविधाओं का असमान वितरण पाया जाता है।
- विभेदीकृत वितरणात्मक प्रक्रियाओं के आधार पर समाज में सामाजिक श्रेणियों तथा मूहों का निर्माण होता है।
- किसी भी समाज की सामाजिक संरचना में श्रेणियों अथवा स्तरों के पदासोपानक्रम का निर्धारण शक्ति, प्रतिष्ठा तथा विशेषाधिकारों के आधार पर होता है।
- समाज में पायी जाने वाली श्रेणियों तथा स्तरों के बीच अन्तःक्रिया तथा पारस्परिक संबंध उच्चता व निम्नता की अवधारणा पर आधारित होते हैं।
- किसी भी समाज में श्रेणियों तथा स्तरों के पारस्परिक संबंधों में क्रमबद्ध सामाजिक असमानता पायी जाती है।
- सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया में श्रेणियों तथा स्तरों की संरचना में प्रत्येक समाज तथा काल में परिवर्तन होते हैं।
- सामाजिक स्तरीकरण एवं सार्वभौमिक प्रक्रिया है। सामाजिक असमानता इसका मूल आधार है।
- सामाजिक संरचना तथा स्तरीकरण में अत्यधिक निकटता पायी जाती है।
- भूमिका तथा प्रस्थिति सामाजिक संस्तरण का मूल आधार है।
- सामाजिक गतिशीलता तथा संस्तरण एक-दूसरे से संबंधित हैं।
प्रश्न 8.
संघर्ष को किस प्रकार कम किया जा सकता है? इस विषय पर उदाहरण सहित निबंध लिखिए।
उत्तर:
संघर्ष को कम करने के संबंध में हम अंतरपीढ़ी संघर्ष पर विचार-विमर्श कर भलीभाँति समझ सकते हैं – समाज सैदव बना रहता है, लेकिन पीढ़ियाँ निरंतर आती-जाती रहती है। पुरानी पीढ़ी का स्थान नवीन पीढ़ी ग्रहण करती रहती है। यह समाज में निरंतर चलने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है। जन्म, मरण प्राकृतिक घटनाएँ हैं। पुरानी पीढ़ी अनुभवों की दृष्टि से सुदृढ़ होती है।
वह परम्पराओं, प्रथाओं एवं रूढ़ियों से प्रायः बंधी होती है। पुरानी पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से जो विरासत में प्राप्त किया है, वह उनकी धरोहर होती है और वे उस धरोहर को आगामी पीढ़ी को हस्तान्तरित करना चाहते हैं। सामान्यतः ऐसा देखा गया है कि नवीन पीढ़ी भी अपने बुजुर्गों का आदर करती है और उनकी आज्ञाओं का पालन करती आई है, लेकिन आधुनिक युग में कुछ ऐसी शक्तियाँ कार्य कर रही हैं कि पीढ़ियों के मध्य दूरी बढ़ती जा रही है।
नवीन पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के लोगों का दकियानूस, कम ज्ञापन रखने वाले, परम्परावादी, अंधविश्वासी और रूढ़िवादी समझती है। इसके मुख्य कारण हैं-बढ़ती हुई शिक्षा, विज्ञान का प्रभाव आदि। आधुनिकता के नाम पर नवीन पीढ़ी परम्पराओं का विरोध करती है और पुरानी पीढ़ी जो कि परम्पराओं को बनाये रखने को प्राथमिकमा देती है, उससे उनका संघर्ष होना स्वाभावित हो जाता है। इसे ही अंतर पीढ़ी संघर्ष कहते हैं।
पीढ़ियों के मध्य दूरी से आशय है कि दोनों के विचारों, आस्थाओं, कार्य करने तरीकों और जीवन-पद्धति में अंतर। एक और पुरानी पीढ़ी तो परम्पराओं से बंधकर, पूर्वजों की संस्कृति को आगे और बढ़ाते हुए, सोच-समझकर धैयपूर्वक किसी कार्य को सम्पन्न करना चाहता है, वहीं दूसरी ओर, नई पीढ़ी अर्थात् युवाओं में स्फूर्ति एवं जोश होता है। वे नवीनता ही हाड़ में आगे निकलना चाहते हैं, अत: वे परम्पराओं की अवहेलना करने में संकोच नहीं करते हैं।
उननके कार्य करने का तरीका भी पुरानी पीढ़ी से भिन्न होता है। ये किसी भी कार्य का अधिक-सोचे-बिना, अधैर्यता से तथा शीघ्र करना चाहते हैं। वास्तप में दोनों पीढ़ियों को एक-दूसरे में दोष व कमियाँ दिखाई देती हैं, फलस्वरूप वे अपने विचारों एवं कार्यप्रणाली में समन्वय एवं ताल-मेल नहीं बैठा पाते, जिसका परिणाम आपसी सम्बन्धी में तनाव, कटुता एवं कभी-कभी संघर्ष भी हो जाता है। कभी-कभी परिवार में इसके गम्भीर प्ररणाम भी दिखाई देते हैं।
वैसे तो पीढ़ियों के मध्य यह दूसरी समाज में सदैव विद्यमान रही है, क्योंकि आज जिन विचारों, वस्तुओं, मूल्यों, भावनाओं आदि को हम नवीनता कहते हैं, अगली पीढ़ी के लिए वे ही तथ्य परम्परा के रूप में परिणत हो जाते हैं। समाज हमेशा अदलता रहता है और उसी के साथ-साथ परम्परा एवं आधुनिकता भी बदलती रहती है। पुरानी पीढ़ी सदैव परम्परा के पक्ष में रहती है और नवीन पीढ़ी आधुनिकता के।
अतः यह स्वाभाविक है कि पीढ़ियों के मध्य दूरी तक न कुछ अंशें में सदैव विद्यमान रहीत है, लेकिन साथ-साथ यह भी कहा जा सकता है कि दोनों पीढ़ियों के व्यक्ति साझेदारी से काम लें और एक-दूसरे के विचारों, भावनाओं तथा समय की मांग को समझें तो यह दूरी निश्चित रूप से कम हो सकती है। शिक्षा के विकास के साथ-साथ भी यह दूरी कम होनी-ऐसा निश्तिच रूप से कहा जा सकता है?
अंतर-पीढ़ी संघर्ष विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है, ये क्षेत्र प्रमुख रूप से निम्नलिखित हैं –
(i) अंतर-पीढ़ी प्रजातीय संघर्ष – जब दो या दो से अधिक प्रजातियाँ एक ही स्थान पर एक साथ निवास करने लगती हैं और उसमें एक-दूसरे की शारीरिक विशेषताओं के प्रति चेतना उत्पन्न हो जाती है तब प्रजातीय संघर्ष की उत्पत्ति होती है। प्रायः अमेरिका में नीग्रो और श्वेत प्रजाति और अफ्रीका में श्वेत एवं वहाँ के मूल निवासियों तथा भारतीयों के बीच संघर्ष चला करता है। इन प्रजातियों में संघर्ष का कारण शारीरिक विभिन्नताओं के अतिरिक्त एवं सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भी हैं ये विभिन्नताएँ प्रजातीय संघर्ष को बढ़ावा देती हैं।
श्वेत प्रजाति नीग्रो लोगों को अपने से निम्न समझती है और उनसे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक विभेद बनाए रखने का प्रयास करती है। दूसरी और नीग्रो श्वेत या गोरे लोगों के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाते हैं और अपने अधिकारों की मांग करते हैं। ऐसा करने में कई नीग्रो को जीवन से हाथ धो लेना पड़ता है। इस प्रकार प्रजातीय भेद के कारण ही पुरानी एवं नवीन पीढ़ी में अंतर-पीढ़ी संघर्ष पाया जाता है।
(ii) अंतर-पीढ़ी वर्ग संघर्ष – प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी आधार पर वर्ग व्यवस्था पाई जाती है। प्रायः वर्गों का विभाजन आर्थिक आधार पर किया जाता है। इस आधार पर प्रत्येक। समाज में प्रायः तीन वर्ग पाए जाते हैं-उच्च, मध्यम तथा निम्न । इसके मध्य भी अंतर-पीढ़ी संघर्ष पाया जाता है। ‘साम्यवाद’ के समर्थक केवल दो वर्गों का समर्थन करते हैं मजदूर वर्ग तथा पूँजीवादी वर्ग। इन वर्गों में आपस में संघर्ष चलता रहता है। पूँजीवादी वर्ग मजदूरों को नाममात्र की मजदूरी देकर उनका शोषण करते हैं।
मजदूर वर्ग श्रम-संगठन बनाकर इस शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में इस प्रकार का संघर्ष चलता ही रहता है। साम्यवादी इस संघर्ष को मिटाने के लिए पूँजीपति का जड़ से विनाश करना चाहते हैं।
(iii) अंतर-पीढ़ी जातीय संघर्ष – जातीय आधार पर पुरानी पीढ़ी के बीच संघर्षों का उल्लेख विभिन्न समाजशास्त्रियों ने किया है। प्राचीन समय में कुछ जातियों द्वारा निम्न जातियों का शोषण किया जाता था, जबकि आज की पीढ़ी ने शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई है तथा विभिन्न जातिों के बीच संघर्ष भी देखा जा सकता है। आरक्षण के कारण पुरानी और नई पीढ़ी में भी संघर्ष उत्पन्न हुआ है, हिंसक कार्य-जनित गतिविधियाँ हो रही हैं तथा उच्च और निम्न जातियों में इस बात को लेकर तनाव एवं संघर्ष पाया जाता है।
(iv) अंतर-पीढ़ी धार्मिक संघर्ष – भारत एक विशाल देश है, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि अनेक धर्मों के अनुयायी निवास करते हैं। भारत में जब से अंग्रेज व मुसलमानों का आगमन हुआ है, तब से धार्मिक संघर्ष की समस्या उत्पन्न हुई है, जिसे सांप्रदायिकता के नाम से जाना जाता है। विभिन्न धर्मों के अलग-अलग आध्यात्मिक सिद्धांत पूजा-पाठ के तरीके, आचार-व्यवस्था, कर्मकाण्ड आदि होते हैं।
मानवता के अनुसार जो व्यक्ति किसी धर्म को मानता है तो उसे उस धर्म के नियमों व आचार-व्यवहार को अपनाने व उनका पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए, किन्तु तब एक धर्मावलम्बी अपने धर्म को श्रेष्ठ व दूसरे धर्म को हीन घोषित करने की चेष्टा कर अपने धर्म के अनुयायियों को दूसरे धर्म के अनुयायियों के विरुद्ध भड़काने का कार्य करता है, तो धार्मिक संघर्ष या साम्प्रदायिकता की समस्या उत्पन्न होती है। भारत में धार्मिक संघर्ष हिन्दू एवं मुसलमानों में ही नहीं, वरन् अन्य धर्मावनलंबियों; जैसे-शिया एवं सुन्नियों, जैनियों, निरंकारियों एवं अकालियों, बौद्धों और ईसाईयों में भी हुए हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है।
(v) अंतर-पीढ़ी राजनैतिक संघर्ष – दो राष्ट्र के माध्यम या एक ही राष्ट्र के विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच भी अंतर-पीढ़ी संघर्ष पाया जाता है। अंतर पीढ़ी राजनैतिक संघर्ष दो भागों में बाँटा जा सकता है
(a) अन्तर्देशीय संघर्ष – प्रजातंत्रीय देशों में विचारों की अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। जनता अपने विचारों के अनुकूल सरकार बनाने के लिए दो या दो से अधिक राजनैतिक दलों को विकसित कर लेती है। प्रायः इन राजनैतिक दलों के नेता तथा सक्रिय समर्थक राज्यसत्ता पर अधिकार करने के उद्देश्य से चुनाव, संसद या विधानसभाओं की बैठक आदि के समय एक-दूसरे से संघर्ष कर बैठते हैं। कभी-कभी चुनाव के समय संघर्ष का रूप इतना विकराल हो जाता हैं कि कई लोगों की हत्याएँ तक हो जाती हैं । राष्ट्र के अंदर ‘क्रांति’ का जन्म होना राजनैतिक संघर्ष का सबसे बड़ा स्वरूप है।
(b) अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष – जब से विज्ञान की प्रगति के परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों में सम्पर्क स्थापित हुआ, तब से अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष भी प्रारम्भ हो गया है। प्रायः देखा जाता है कि जिन राष्ट्रों के बीच किसी बात पर वैमनस्य हो जाता है, तो उन राष्ट्रों की जनता तथा सरकार एक-दूसरे राष्ट्र की जनता तथा सरकार से घृणा तथा वैमनस्य करने लगती है। कभी-कभी घृणा तथा वैमनस्य का रूप इतना उग्र हो जाता है कि उनकी अभिव्यक्ति ‘युद्ध’ के रूप में होने लगती है। युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का सबसे भयंकर रूप है।
संघर्ष को कम करने के उपाय – किसी भी संघर्ष को कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए :
(i) पुरानी पीढ़ी का यह कर्तव्य है कि वह नयी पीढ़ी की आकांक्षाओं व आवश्यकताओं को महसूस करे और नये युग के अनुकूल अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करे।
(ii) पुरानी पीढ़ी को चाहिए कि वह नयी पीढ़ी से सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करे, सद्परामर्श दे और उनके मार्ग में रूढ़ि या प्रथा सम्बन्धी कोई बाधा उपस्थिति न करे। यदि नवीन पीढ़ी के कुछ कार्य उसे पसंद आयें, तो वह उनकी भरपूर प्रशंसा भी करे।
(iii) युवा कल्याण सम्बन्धी नवीन नीतियों का निर्माण करते समय सरकार को युवकों से बातचीत आवश्य करनी चाहिए। बातचीत से समझौते का मार्ग प्रशस्त होगा तथा युवक कम-से-कम गलतफहमी के शिकार नहीं होंगे।
(iv) नवीन पीढ़ी को यह महसूस अवश्य होना चाहिए कि सरकार द्वारा उनके संबंध में जो नीति बनाई जा रही हैं, वह उनके लिए कल्याणकारी है यदि नीतियाँ बनाते समय सरकार युवकों के दृष्टिकोण में समन्वय स्थापित हो जाये तो फिर युवकों में अंतर-पीढ़ी संघर्ष जन्म ही न लेगा।
(v) नवीन पीढ़ी का समाजीकरण इस प्रकार से किया जाए कि वे समानता एवं राष्ट्रीय विकास के मूल्यों के प्रति आस्था को रख सकें। इससे दोनों पीढ़ियों में संघर्ष के स्थान पर सहयोग उत्पन्न होगा।
(vi) जाति, वर्ण, धर्म, प्रजाति आदि क्षेत्रों में पुरानी पीढ़ी के विचारों का सम्मान करना चाहिए तथा उनके चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में मार्गदर्शन करना चाहिए। नई पीढ़ी को भी चाहिए कि वह पुरानी पीढ़ी के मार्गदर्शन को स्वीकार करे।
(vii) शिक्षा में नैतिक मूल्यों व अध्यात्मवाद की शिक्षा पर विशेष बल दिया जाये। नवीन युवा पीढ़ी में यह समझ विकसित होनी चाहिए कि जीवन में धन साधन है, साध्य नहीं तथा धन कमाने हेतु अनुचित व अनैतिक साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(viii) सभी राजनैतिक दलों का यह कर्तव्य है कि वे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नवीन। युवा पीढ़ी का अपने हित में शोषण न करें।
प्रश्न 9.
समाज के स्तरीकरण में जाति का आधार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जाति एक ऐसे पदसोपानीकृति संबंध को बताती है जिसमें व्यक्ति जन्म लेता है तथा जिसमें व्यक्ति का स्थान, अधिकार तथा कर्तव्य का निर्धारण होता है। व्यक्तिगत उपलब्धियाँ तथा गुण व्यक्ति की जाति में परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। जाति व्यवस्था वस्तुतः हिंदु सामाजिक संगठन का आधार है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री लुई ड्यूमो ने अपनी पुस्तक होमो हाइराकीकस में जाति व्यवस्था का मुख्य आधार शुद्धता तथा अशुद्धता की अवधारणा बताया है। ड्यूमो ने पदसोपानक्रम को जाति-व्यवस्था की विशेषता माना है।
प्रारम्भ में हिंदू समाज निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित था –
- ब्राह्मण
- क्षत्रिय
- वैश्य
- शूद्र
शुद्धता तथा अशुद्धता के मापदंड पर ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च तथा शूद्र का निम्न होता है। वर्ण व्यवस्था में पदानुक्रम के अनुसार क्षत्रियों का द्वितीय तथा वैश्य का तृतीय स्थान होता है। एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार जिस प्रकार जाति व्यवस्था की इकाई कार्य करती है, उस संदर्भ में वह जाति है, वर्ग नहीं है। हालांकि, जाति-व्यवस्था के लक्षणों को वर्ण व्यवस्था से ही लिया गया है लेकिन वर्तमान संदर्भ में जाति प्रारूप अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
एम.एन. श्रीनिवास ने जाति की परिभाषा करते हुए कहा है, कि –
- जाति वंशानुगत होती है।
- जाति अंत:विवाही होती है।
- जाति आमतौर पर स्थानीय समूह होती है।
- जाति परंपरागत व्यवस्था से संबद्ध होती है।
- जाति की स्थानीय पदसोपानक्रम में एक विशिष्ट स्थिति होती है।
- अतर्जातीय खान-पान पर प्रतिबंध होता है।
- जातियों में परस्पर संबंध शुद्धता तथा अशुद्धता के नियमों पर आधारित होते हैं।
जातीय संस्तरण को कर्म तथा धर्म के विचार पर विभाजित किया जाता है। कर्म का विचार एक हिंदू को सिखाता है कि वह अपने पिछले जन्म के लिए गए कर्मों के आधार पर एक जाति-विशेष के जन्म लेने का अधिकारी है। कर्म के सिद्धांत के अनुसार यदि व्यक्ति ने पिछले जन्म में अच्छे कर्म किए हैं तो उसे पुस्कारस्वरूप उच्च वर्ग में जन्म मिलता है। इसके विपरीत, उसे कर्मों के आधार पर ही दंड स्वरूप नीची जाति में जन्म मिलता है । यदि व्यक्ति अपने जाति के अनुसार व्यवहार करता है तो उसका जन्म ऊँची जाति में तय हो जाता है। यही कारण है कि परंपरागत भारतीय समाज में जाति संस्तरण की व्यवस्था में लंबवत गतिशीलता अत्यधिक कठिन है।
एम.एन. श्रीनिवास ने जाति-व्यवस्था की नमनीयता अथवा लचीलेपन को संस्कृतीकरण कहा है। संस्कृतीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत निम्न जाति, जनजाति अथवा अन्य समूहों के सदस्य अपने रीति-रिवाजों, विश्वासों, विचारधारा तथा जीवन-शैली में उच्च जाति का अनुसरण करके ऊपर की ओर गतिशीलता कर सकते हैं। श्रीनिवास ने 1960 में अनुभव किया कि भारत में जातीय चेतना तथा जातीय संगठन की भावना बढ़ रही है। वर्तमान समय में जाति राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता प्राप्त करने के सशक्त संसाधन बनती जा रही है।
स्वतंत्रता के पश्चात् बनाए गए कानूनों तथा शिक्षा के प्रकार के कारण जाति संरचना में परिवर्तन हुए हैं । अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए शिक्षा तथा रोजगार के विशेष प्रावधान किए गए हैं। इन सबका प्रभाव सामाजिक सरंचना तथा स्तरीकरण पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा है।
प्रश्न 10.
वर्ग को सामाजिक स्तरीकरण का आधार क्यों माना गया है? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का आधार स्वीकार करने के महत्वपूर्ण कारण निम्नलिखित हैं –
- वर्ग एक विस्तारित सामाजिक समूह है जो समान आर्थिक स्रोतों में भागीदार होते हैं।
- वर्गों की सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण संपत्ति, धन, निजी उपलब्धि तथा व्यक्तिगत क्षमताओं से होता है। वर्ग के आधार प्रतिस्पर्धा तथा व्यक्तिगत क्षमता होता है।
- समाजवादी दृष्टिकोण के अंतर्गत वर्ग व्यवस्था को प्रायः अर्जित प्रस्थिति तथा मुक्त स्तरीकरण के साथ संबद्ध किया जाता है।
- वर्तमान समय की पूँजीवादी औद्योगिक संरचना में वर्ग प्रमुख समूह है।
- एक वर्ग के व्यक्तियों में समान आर्थिक हित तथा वर्ग चेतना पायी जाती है।
वर्ग व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- वर्ग वास्तव में समूह होते हैं लेकिन उनकी कानूनी मान्यता होती है।
- वर्ग की सदस्यता विरासत में प्राप्त नहीं होती है।
- वर्गों के मध्य सुपरिभाषित सीमाएँ नहीं पायी जाती हैं।
- वर्गों की सदस्यता आमतौर पर अर्जित होती है।
- वर्ग व्यवस्था अवैयक्तिक संबंधों द्वारा संचालित होती है।
समाजशास्त्री टी.बी. बोटमोर तथा एंथोनी गिडस ने आधुनिक विश्व में निम्नलिखित चार प्रकार के वर्गों का उल्लेख किया है –
- उच्च वर्ग
- मध्य वर्ग
- श्रमिक वर्ग
- कृषक वर्ग
प्रसिद्ध विद्वान कार्ल मार्क्स के अनुसार, पूँजीवाद औद्योगिक व्यवस्था में निम्नलिखित दो वर्ग पाए जाते हैं –
- पूँजीपति वर्ग
- श्रमिक वर्ग
प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वैबर की सामाजिक असमानता की अवधारणा मार्क्स की अवधारणा से निम्नलिखित रूप में पृथक है –
- मार्क्स ने समाज में दो मुख्य वर्गों का उल्लेख किया है। वैबर का मत है कि समाज में दो से अधिक वर्ग पाये जाते हैं।
- मार्क्स ने वर्गों के बीच पारस्परिक संबंधों को अत्यधिक महत्व दिया है। वैबर वर्गों के पारस्परिक संबंधों के बारे में अत्यधिक संदेह व्यक्त करता है
- मार्क्स ने सामाजिक असमानता के आर्थिक पहलू को ही अत्यधिक महत्व दिया है।
वैबर ने असमानता के लिए उत्तरदायी अनेक कारण बताए हैं –
- धन
- शक्ति
- प्रतिष्ठा तथा सम्मान
मैक्स वैबर ने वर्ग को व्यक्तियों की एक बड़ी संख्या के रूप में परिभाषित किया है जिनके पास समान संसाधन होने के कारण समान जीवन संयोग पाये जाते हैं। मैक्स वैबर ने वर्ग के अलावा स्तरीकरण के दो मूल पहलू बताए हैं –
- प्रस्थिति
- शक्ति
प्रश्न 11.
संघर्ष से सामाजिक एकीकरण कैसे संभव होता है? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संघर्ष न केवल विघटनकारी प्रवृति है, वरन यह सामाजिक एकीकरण भी उत्पन्न करती है। के. डेविस के अनुसार, “इसलिए आंतरिक एकता तथा बाह्य संघर्ष एक ही ढाल के दो पहलू हैं।” पार्क तथा बर्गेस के अनुसार, “संघर्ष अति तीव्र उद्वेग तथा अत्यधिक शक्तिशाली उत्तेजना को जागृत कर देता है तथा ध्यान व प्रयत्न को एकाग्रचित कर देता है।” संघर्ष द्वारा निम्नलिखित प्रकार से एकीकरण की स्थिति भी उत्पन्न की जाती है
(i) संघर्ष सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देता है-संघर्ष सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देता है। इस प्रकार संघर्ष तथा परिवर्तन सामाजिक प्रक्रिया के मध्य सेतु का कार्य करते हैं। संघर्ष के परिणाम सदैव नकारात्मक नहीं होते हैं, वे कभी-कभी सकारात्मक भी होते हैं। इस संबंध में कोसर ने कहा कि “ढीले संचरित समूहों तथा खुले समाजों में संघर्ष तनावों को कम कर स्थिरता तथा एकता की भूमिका निभाता है।”
(ii) अत्यधिक संघर्ष विघटन के कारणों को समाप्त करने का कार्य करते हैं तथा समाज में पुनः एकता स्थापित करते हैं-विरोधी द्वारा तात्कालिक एकता की अभिव्यक्ति सामाजिक व्यवस्था में असंतोष को समाप्त करके सामाजिक संबंधों में दोबारा समांजस्य कायम करने में सहायक होती है। अतः संघर्ष द्वारा समाज में विघटन के कारणों को समाप्त करके पुनः एकता कायम की जाती है।
(iii) बाह्य संघर्ष से समूह में एकीकरण स्थापित होता है-बाह्य संघर्षों में लिप्त समूहों में एकता उत्पन्न होती है। अंतर समूह संघर्षों द्वारा अंत:समूहों में वैमनस्य तथा शिकायतें कम करने में सहायता की जाती है। बाह्य संघर्षों द्वारा समूह के अंदर सदस्यों को निष्ठापूर्वक सहयोग हेतु बाध्य किया जाता है। सिमेल का मत है कि बाह्य संघर्षों से समूह में एकीकारण स्थापित होता है।
(iv) संघर्ष रचनात्मक व सकारात्मक लक्ष्यों की पूर्ति करता है-प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिमेल संघर्ष को समाज के निर्माण तथा विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। उनका मत है कि संघर्ष रहित समरस समूह का अस्तित्व असंभव तथा अयथार्थवादी है। सिमेल का कहना है कि संघर्ष एक प्रकार से सामाजिक एकता प्राप्त करने की पद्धति है।
संघर्ष के द्वारा समाज में फैला हुआ विरोध समाप्त हो जाता है। उदाहरण के लिए परिवार तथा दंपतियों के मध्य आंतरिक वैमनस्य, विरोध तथा बाहरी विवाद उन्हें परस्पर संबद्ध रखते हैं। सिमेल कहते हैं कि संघर्ष द्वारा अपने आप नई सामाजिक संरचना का सृजन नहीं किया जाता है। वस्तुतः संघर्ष समाज की एकता बढ़ाने वाले विभिन्न कारकों के साथ मिलकर नहीं, सामाजिक संरचना को जन्म देता है।
कोसर का मानना है कि संघर्ष खुले समाजों में तनाव के समाधान द्वारा सामाजिक स्थिरता को मजबूत बनाता है। व्यक्ति तथा समूह संघर्ष के दौरान परस्पर संबंध विकसित करते हैं । राल्फ डाहरण डार्फ का मत है कि सामाजिक संघर्ष द्वारा समाज की वास्तविक स्थिति का प्रकटीकरण किया जाता है। बाह्य संघर्ष के समय सभी समूहों में सहयोग के लिए मित्रता की मनोवृति पायी जाती है, लेकिन शांति काल में यह भावना अनुपस्थिति रहती है। संघर्ष द्वारा समूह में चेतना तथा संगठन उत्पन्न किया जाता है। ग्रीन के अनुसार, “युद्ध सामूहिक चेतना तथा सामूहिक समानता को बढ़ाता है।”
प्रसिद्ध समाजशास्त्री मजूमदार ने संघर्ष के निम्नलिखित सकारात्मक प्रकार्य बताए हैं –
- संघर्ष द्वारा अंत:समूह के मनोबल को सुदृढ़ किया जाता है उसकी शक्ति में वृद्धि की जाती है।
- संघर्ष के द्वारा मूल्य-प्रणालियों की परिभाषा दोबारा हो।
- संकटों के निवारण हेतु संघर्ष अहिंसात्मक साधनों की खोज के प्रेरित कर सकता है।
- संघर्षरत पक्षों की सापेक्ष प्रस्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है।
- संघर्ष के द्वारा नई सहमति की उत्पत्ति हो सकती है।
हार्टन तथा हंट के अनुसार संघर्ष द्वारा विवाद स्पष्ट किए जाते हैं। समूह की एकता में वृद्धि कर सदस्यों के हितों के प्रति चेतना उत्पन्न की जाती है।
प्रश्न 12.
सामाजिक स्तरीकरण में सजातीयता का आधार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सजातीयता का शाब्दिक अर्थ-सजातीयता शब्द ग्रीक भाषा के शब्द ‘एथनिकोस’ से लिया है, जो कि ‘एथनोस’ का विशेषण है। ‘एथनोस’ का तात्पर्य एक जनसमुदाय अथवा राष्ट्र से है। अपने समकालीन रूप में सजातीयता की अवधारणा उस समूह के लिए प्रयोग की जाती है जिसमें कुछ अंशों में सामंजस्य तथा एकता पायी जाती हो।
इस प्रकार, सजातीयता का अर्थ समूहिकता से है। सजातीयता की परिभाषा-सजातीयता की अवधारणा उस समूह के लिए प्रयुक्त की जाती है जिसमें सामंजस्य तथा आपसी भाईचारा पाया जाता है तथा जिसमें सदस्य अपने समान उद्गम तथा समान हित को स्वीकारते हैं। इस प्रकार, सजातीयता का तात्पर्य सामूहिकता से है।
एंथोनी गिडिंस के अनुसार –
- सजातीय समूह के सदस्य समाज में स्वयं को एक अलग सांस्कृतिक समूह के रूप में देखते हैं।
- अन्य व्यक्तियों को इस पृथकता का अनुभव होता है।
सजातीय समूह वस्तुतः एकता की भावना, पारस्परिक जागरुकता, समान उद्भव एवं हितों के कारण अस्तित्व में आते हैं। ए. शेर्मरहोर्न के अनुसार एक सजातीय समूह में एक व्यापक समाज में सामूहिकता है जिनका एक वास्तविक तथा काल्पनिक पूर्वज तथा समान ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है।
सजातीय समूह वस्तुतः नातेदारी, गोत्र व्यवस्था, धार्मिक समूह तथा भाषा समूह से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। शिबूतनी ओर क्वान के सजातीय समूह की पहचान हेतु एक अतिरिक्त तत्व का उल्लेख किया है। उनके अनुसार, “सजातीय समूह के अंतर्गत वे व्यक्ति आते हैं जिनका एक वास्तविक अथवा काल्पनिक पूर्वज होता है तथा उनमें सह-अस्तित्व की भावना पायी जाती है।”