Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.
BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग
Bihar Board Class 11 Sociology समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग Additional Important Questions and Answers
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
सामाजिक श्रेणी को परिभाषित कीजिए?
उत्तर:
सामाजिक श्रेणी के अंतर्गत उन व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जिनकी समाज में समान प्रस्थिति तथा भूमिका होती है। सामाजिक श्रेणी एक सांख्यिकीय संकलन है। इनमें व्यक्तियों की विशिष्ट विशेषताओं के आधार पर उनका वर्गीकरण किया जाता है। उदाहरण के लिए समान व्यवसाय वाले अथवा समान आय वाले व्यक्ति ।
प्रश्न 2.
‘समग्र’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
समग्र ऐसे व्यक्यिों का संकलन है, जो एक ही समय व एक ही जगह पर रहते हैं, लेकिन उनमें एक दूसरे के साथ व्यक्तिगत संबंध नहीं पाए जाते हैं। इरविंग गफमेन के अनुसार समग्र व्यक्तियों का ऐसा संकलन है, जिन्में एक-दूसरे के प्रति अंतः क्रिया नहीं पायी जाती है। उदाहरण के लिए 5 फुट लम्बे सभी पुरुषों का संकलन समग्र कहलाएगा।
प्रश्न 3.
प्राथमिक समूह किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्राथमिक समूह मे आमने-सामने के घनिष्ठ संबंध होते हैं। प्राथमिक समूह का आकार छोटा होता है। इसके सदस्यों के उद्देश्य एवं इच्छाएँ साधारणतया समान होती हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री कूले के अनुसार, “प्राथमिक समूह से मेरा तात्पर्य उन समूहों से है जो घनिष्ठ, आमने-सामने के संबंध एवं सहयोग के जरिए लक्षित होते हैं। वे प्राथमिक कई दृष्टिकोणों से हैं, लेकिन मुख्य रूप से इस कारण से है कि वे व्यक्ति की समाजिक प्रकृति तथा आदेशों के निर्माण करने में मौलिक हैं……….”
प्रश्न 4.
कूले द्वारा वर्णित प्राथमिक समूह की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री कूले ने अपनी पुस्तक में प्राथमिक समूह की निम्नलिखत विशेषताएँ बतायी हैं –
- घनिष्ठ आमने-सामने के संबंध
- तुलनात्मक रूप से स्थापित
- सीमित आकार एवं सदस्यों की सीमित संख्यासदस्यों के माध्य आत्मीयता
- सहानुभूति तथा पारस्परिक अभिज्ञान
- हम की भावना
प्रश्न 5.
द्वितीयक समूह किसे कहते हैं?
उत्तर:
द्वितीयक समूह अपेक्षाकृत आकार में बड़े होते हैं। इनमें घनिष्ठता की कमी पायी जाती है। व्यक्तियों के बीच संबंध अस्थायी, अव्यक्तिगत तथा औपाचारिक होते हैं । इनका लक्ष्य विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति होता है तथा सदस्यता ऐच्छिक होती है। आग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, “वे समूह जो घनिष्ठता की कमी का अनुभव प्रस्तुत करते हैं, तो द्वितीयक समूह कहलाते हैं।”
प्रश्न 6.
औपचारिक समूह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
औपचारिक समूह या तो विशाल होते हैं, या विशाल संगठन का एक हिस्सा होते हैं, उदाहरण के लिए श्रम-संगठन तथा सेना। औपचारिक समूह में सदैव एक नियामक स्तरीकृत संरचना अथवा प्रस्थिति व्यवस्था पायी जाती है।
प्रश्न 7.
अनौपचारिक स्तरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अनौपचारिक समूह अपेक्षाकृत लघु होते हैं तथा इनका निर्माण अचानक हो जाता है। इन समूहों में समान उद्देश्य तथा पारस्परिक व्यवहार के आधार पर अंतः क्रियाएँ पायी जाती हैं, उदाहरण के लिए बच्चों के खेल समूह तथा टीम आदि अनौपचारिक समूह हैं। अनौपचारिक समूह एक सामाजिक इकाई हैं तथा इनमें समूह की समस्त विशेषताएँ पायी जाती हैं। इसके सदस्यों में अंतर्वैयक्तिक संबंध, संयुक्त गतिविधियाँ तथा समूह से संबद्ध होने की भावना होती है।
प्रश्न 8.
सामाजिक स्तरीकरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण से तात्पर्य भौतिक या प्रतीकात्मक लाभों तक पहुँच के आधार पर समाज में समूहों के बीच की संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व से है। अतः स्तरीकरण को सरलतम शब्दों में, लोगों के विभिन्न समूहों के बीच की संरचनात्मक असमानताओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
प्रश्न 9.
प्रस्थिति किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्रस्थिति समाज या एक समूह में एक स्थिति है। प्रत्येक समाज और प्रत्येक समूह में ऐसी कई स्थितियाँ होती हैं और व्यक्ति ऐसी कई स्थितियों पर अधिकार रखता हैं। अतः प्रस्थिति से तात्पर्य सामाजिक स्थिति और इन स्थितियों से जुड़े निश्चित अधिकरों और कर्तव्यों से है। उदाहरण के लिए, माता की एक प्रस्थिति होती है जिसमें आचरण के कई मानक होते हैं और साथ ही निश्चित जिम्मेदारियाँ और विशेषाधिकार भी होते हैं।
प्रश्न 10.
भूमिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
भूमिका प्रस्थिति का एक सक्रिय रूप हैं। प्रस्थितियाँ ग्रहण की जाती हैं एवं भूमिकाएँ निभाई जाती हैं। हम यह कह सकते हैं। प्रस्थिति एक संस्थागत भूमिका है। यह वह भूमिका है जो समाज में या समाज की किसी विशेष संस्था में नियमित, मानकीय और औपचारिक बन चुकी है।
प्रश्न 11.
सामाजिक नियंत्रण से क्या आशय है?
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य सामाजिक प्रक्रियाओं, तकनीकों और रणनीतियों से है जिनके द्वारा व्यक्ति या समूह के व्यवहार को नियमित किया जाता है। इनका अर्थ व्यक्तियों और समूहों के व्यवहार को नियमित करने के लिए बल प्रयोग से है और समाज में व्यवस्था के लिए मूल्यों व प्रतिमानों को लागू करने से है।
प्रश्न 12.
सामाजिक नियंत्रण के कोई दो औपचारिक साधन बताइए?
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण के दो औपचारिक साधन निम्नलिखित हैं –
1. कानून – कानून सामाजिक नियंत्रण का एक औपचारिक तथा सशक्त साधन है। वर्तमान समय में द्वितीयक तथा तृतीयक समूह लगातार महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं। कानून के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था के लिए प्रारूप नियमों तथा दंडो की व्यवस्था की जाती है। कानून का शासन तथा कानून के सम्मुख समानता आधुनिक युग की विशेषताएँ हैं।
2. राज्य – राज्य सामाजिक नियंत्रण का औपचारिक साधन है। राज्य संप्रभु होता है अतः समस्त संस्थाएँ समितियाँ तथा समुदाय राज्य क अधीन होते हैं। राज्य के नियमों, व्यवस्थाओं तथा कानून के सम्मुख समानता आधुनिक युग की विशेषताएँ हैं।
प्रश्न 13.
औपचारिक सामाजिक नियंत्रण क्या है?
उत्तर:
औपचारिक सामाजिक नियंत्रण के अंतर्गत राज्य, कानून, सरकार, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका व संवैधानिक व्यवस्थाओं को सम्मिलित किया जाता हैसामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधनों में विधिसम्मत व्यवस्था का अनुसरण किया जाता है। प्रत्येक संस्था तथा निकाय आदि के कार्य सुपरिभाषित तथा स्पष्ट होते हैं।
प्रश्न 14.
अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण क्या है?
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों का विकास समाज की आवश्यकताओं के अनुसार स्वतः होता रहता है। प्राथमिक समूहों तथा आदिवासी समाजों में समाजिक नियंत्रण के अनौपचरिक साधन काफी प्रभावशाली होते हैं।
लोकरीतियों, लोकाचारों, प्रथाओं तथा परम्पराओं आदि को समाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों में सम्मिलित किया जाता है। ई.ए. रॉस के अनुसार, “सहानुभूति, सामाजिकता, न्याय की भावना तथा क्रोध अनुकूल परिस्थितियों में स्वयं एक वास्तविक प्राकृतिक व्यवस्था अथवा वह व्यवस्था है जिसका कोई ढाँचा या योजना नहीं होती ।”
प्रश्न 15.
समाजशास्त्र में हमें विशिष्ट शब्दावली और संकल्पणाओं के प्रयोग की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर:
समाजशास्त्र के वे विषय जिन्हें सामान्य लोग नहीं जानते तथा जिनके लिए सामान्य भाषा में कोई शब्द नहीं है, उनके लिए यह आवश्यक है कि समाजशास्त्र की अपनी एक शब्दावली हो शब्दावली समाजशास्त्र के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह विषय अपने आपमें अपने अनेक संकल्पनाओं को जन्म देता है।
प्रश्न 16.
सामाजिक समूह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति सामान्य उद्देश्य या स्वार्थ हेतु एक-दूसरे से अंतः क्रिया करते हैं तथा एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं, तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।
प्रश्न 17.
सामाजिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सामाजिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना
- लोगों में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंधों का होन
- सदस्यों के बीच स्वार्थ अथवा हित का पाया जाना। पारस्परिक हित समूह के संबंध-सूत्र होते है
- समूह में श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण पाया जाता है
- समूह में पारस्परिक जागरूकता पायी जाती है।
प्रश्न 18.
मानव द्वारा समूहों की रचना क्यों की गई?
उत्तर:
मनुष्यों द्वारा समूहों की रचना निम्नलिखित कारणों से की गई –
- मानव आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु।
- मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए प्रारम्भ से ही दूसरे मनुष्यों पर निर्भर है। उदाहरण के लिए शिशु का पालन-पोषण नहीं हो सकता है।
- समूह मनुष्यों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
- समूह द्वारा भाई-चारे की भावना विकसित होती है जो सामाजिक अंतः क्रिया के लिए जरूरी है।
प्रश्न 19.
समूह की कोई दो विशेषताएँ बताइए?
उत्तर:
समूह की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- कोई एक व्यक्ति समूह की रचना नहीं कर सकता। समूह के सदस्यों के बीच पारस्परिक अंतः क्रिया पायी जाती है। परिवार, जाति तथा नातेदारी आदि समूह के उदाहरण हैं।
- समूह के सदस्यों के संबंधों में स्थायित्व पाया जाता है। समूह की सदस्यता औपचारिक अथवा अनौपचारिक हो सकती है।
प्रश्न 20.
समूह की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “समूह से हमारा तात्पर्य व्यक्तियों के उस संजलन से है जो एक-दूसरे के साथ सामाजिक संबंध रखते हैं।” दूसरे शब्दों में समूह वह है जसमें एकीकृत करने वाले संबंधों के आधार पर कुछ लोग एक स्थान पर एकत्रित होता है।
प्रश्न 21.
सामाजिक नियंत्रण के कोई दो उद्देश्य बताइए?
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण के दो उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
(i) सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना-किबाल यंग के अनुसार, “सामाजिक नियंत्रण का उद्देश्य एक विशिष्ट समूह अथवा समाज की समरूपता, एकता एवं निरंतरता को लाना है।” अतः प्रत्येक समाज अथवा समूह सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखता है। समाज के सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सामाजिक व्यवस्था, मूल्यों तथा प्रतिमानों के अनुरूप कार्य करें।
(ii) सामूहिक निर्णयों का पालन-सामाजिक नियंत्रण के अंतर्गत समाज के सदस्य सामूहिक निर्णयों का पालन करते हैं। सामूहिक निर्णयों के पालन करने से सामाजिक एकरूपता तथा व्यवस्था कायम रहती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
आधुनिक युग में प्राथमिक समूह के क्या-क्या कार्य हैं?
उत्तर:
प्राथमिक समूह समस्त सामाजिक संगठन का केन्द्र बिंदु है। इसका आकार लघु होता है तथा इसमें सदस्यों की संख्या कम होती है।
प्राथमिक समूहों के निम्नलिखित प्रमुख कार्य हैं –
- व्यक्ति के विकास में प्राथमिक समूहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, उदाहरण के लिए परिवार व्यक्ति के विकास की नर्सरी है।
- प्राथमिक समूह सामाजिक नियंत्रण के महत्त्वपर्ण अभिकरण हैं, उदाहरण के लिए परिवार तथा मित्र मंडली आदि सदस्यों को समाज के आदर्शों तथा मूल्यों से अवगत कराते हैं।
- प्राथमिक समूह व्यक्तियों को भावनात्मक तथा मानसिक संतुष्टि प्रदान करते हैं।
- प्राथमिक समूह व्यक्तियों को समाज में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए मंच प्रदान करते हैं प्राथमिक समूहों में व्यक्तियों में समाजिक तथा संस्कारो का पाठ पढ़ाया जाता है।
प्रश्न 2.
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह की तुलना कीजिए?
उत्तर:
प्राथमिक समूह तथा द्वितीयक समूह में निम्नलिखित अन्तर हैं –
प्रश्न 3.
समूह किस प्रकार बनते है?
उत्तर:
(i) मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म के समय केवल एक जैविक समावयव होता है, लेकिन सामाजिक समूहों में उसका समाजीकरण होता है।
(ii) समूह में मनुष्य की जैविक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इस प्रकार समूहों का निर्माण सामान्य स्वार्थों के कारण होता
है। एडवर्ड सेपीर के अनुसार, “किसी समूह का निर्माण इस तथ्य पर आधारित होता है कि कोई स्वार्थ समूह के सदस्यों को परस्पर बांधे रखता है।”
(iii) समूह निर्माण दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा कुछ सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है। बोगार्डस के अनुसार, “एक सामाजिक समूह दो या दो अधिक व्यक्तियों की ऐसी संख्या को कहते हैं जिनका ध्यान कुछ सामान्य उद्देश्यों पर हो तथा जो एक-दूसरे को प्रेरणा दें, जिनमें सामान्य निष्ठा हो तथा जो सामन्य क्रियाओं में सम्मिलित हों।”
(iv) सामाजिक समूह के निर्माण के लिए सदस्यों में पारस्परिक चेतना तथा अंतः क्रिया का होना बहुत आवश्यक है। केवल भौतिक निकटता के द्वारा समूह का निर्माण नहीं होता है।
(v) समूह के सदस्यों में सहयोग, संघर्ष तथा प्रतिस्पर्धा पायी जाती है।
प्रश्न 4.
“व्यक्ति का जीवन समूह का जीवन है। चर्चा कीजिए?
उत्तर:
(i) व्यक्ति तथा समूह एक-दूसरे के पूरक हैं। समूह वास्तविक रूप में समाजिक जीवन के केंद्र बिंदु हैं।
(ii) समूह का अर्थ जैसा कि मेकाइवर तथा पेज ने लिखा है कि “मनुष्यों के ऐसे संकलन से है जो एक-दूसरे के साथ सामाजिक संबंध रखते हैं।
(iii) समूह अपनी समस्त आवश्यकताओं के लिए समूह पर निर्भर रहता है। समूह में ही व्यक्ति अपनी क्षमताओं तथा उपलब्धियों का प्रदर्शन करता है। हॉर्टन तथा हंट के अनुसार, “समूह व्यक्तियों का संग्रह अथवा श्रेणियाँ होती हैं, जिनमें सदस्यता एवं अतः क्रिया की चेतना पायी जाती है।”
(iv) समूहों में पाया जाने वाला विभेदीकरण, श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण सामाजिक जीवन व्यतीत करने का अपरिहार्य तत्त्व है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि समूह द्वारा वह सब प्रस्तुत किया जाता है, जो मानव-जीवन के लिए आवश्यक है।
(v) पारस्परिक संबंध, हम की भावना, अंत: क्रिया, सामान्य हित तथा समूह के आदर्श नियम व्यक्ति के सामजिक तथा जैविक अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। आगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, “……. जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।
सारांशः समूह तथा ब्यक्ति इस प्रकार एक-दूसरे के पूरक हैं कि एक के अभाव में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है।
प्रश्न 5.
समूह के लिए मानकों की सार्थकता बताइए?
उत्तर:
मानक समाज तथा समूह में व्यक्ति का वांछित तथा अपेक्षित व्यवहार है। वे निर्देश, जिनका अनुसरण व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ अंतः क्रिया करते समय करता है, मानक कहलाते हैं।
मानक वस्तुतः समाज में व्यवहार के वे पुंजी है जो व्यक्तियों को परिस्थिति में विशेष में व्यवहार करने के बारे में बतलाता है। ब्रूम तथा सेल्जनिक के अनुसार, “आदर्श मानक व्यवहार की वे रूप-रेखाएँ हैं जो उन सीमाओं का निर्धारण करती हैं जिनके अंदर व्यक्ति अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु विकल्पात्मक विधियों की खोज कर सकता है।”
समूह के लिए मानकों की सार्थकता का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) सभी समाजों के मानकों की एक सुपरिभाषित व्यवस्था होती है जो उचित तथा म ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) समाजशास्त्र वर्ग-11 9 31 अनुचित नैतिक एवं अनैतिक में स्पष्ट भेद करती है। इनका अभाव में सामाजिक व्यवस्था अराजकता ग्रसित हो जाएगी।
(ii) मानक वास्तव में समूह द्वारा मानकीकृत अवधारणाएँ हैं। मानकों के द्वारा व्यक्तियों का व्यवहार सीमित किया जाता है । डेविस के अनुसार, “सामाजिक मानक एक प्रकार का नियंत्रण . है। मानव समाज इन्हीं नियंत्रणों के आधार पर अपने सदस्यों के व्यवहार पर इस प्रकार अंकुश लगाता है, जससे वे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधान के रूप में कार्य करते रहें, भले ही उनकी प्राणीशास्त्रीय जरूरतों में इसे बाधा पहुँचती है।”
(iii) मानकों का औचित्य समाज तथा समूह के अनुसार बदलता रहता है।
(iv) जो मानक हमें एक निश्चित प्रकार का व्यवहार करने का निर्देश देते हैं तथा कुछ कार्य करने से रोकते हैं, आदेशात्मक मानक कहलाते हैं। उदाहरण के लिए यातायात के नियमों के अनुसार हम वाहनों को बाई ओर चला सकते हैं लेकिन लालबत्ती होने पर वाहन चलाना यातायात के नियमों के विरुद्ध है। निषेधात्मक मानक है।
(v) मानकों ही द्वारा व्यक्ति के व्यवहार का समाज में निर्धारण होता है। विशेष सामाजिक परिस्थितियों के लिए विशेष मानक निश्चित होते हैं। उहारण के लिए, किसी व्यक्ति के अंतिम संस्कार के समय अन्य व्यक्तियों से अपेक्षा की जाती है कि वे उदास तथा दुःखी होंगे।
(vi) मानक सार्वभौम होते हैं। बीरस्टीड के असार, “जहाँ आदर्श मानक नहीं है, वहाँ समाज भी नहीं है।”
(vii) सामाजिक मानकों का संबंध सामाजिक उपयोगिता से है।
(viii) आदर्श मानक सामाजिक ताने-बाने को दृढ़ता प्रदान करते हैं।
(ix) मानक व्यक्तियों की मनोवृत्तियों तथा उद्देश्यों को प्रभावित करते हैं।
(x) मानक विहीन समाज असंभव है।
प्रश्न 6.
टिप्पणी लिखिए – (i) प्रदत्त व अर्जित प्रस्थिति, (ii) मानक तथा (iii) भूमिका कुलक।
उत्तर:
(i) (क) प्रदत्त तथा अर्जित प्रस्थिति – समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण निम्नलिखित दो प्रक्रियाओं के द्वारा होता है
प्रदत प्रस्थिति – लेपियर के अदुसार, “वह परिस्थिति जो एक व्यक्ति के जन्म पर या उसके कुछ क्षण बाद ही प्रदत्त होती है, विस्तृत रूप में निश्चित करती है कि उसका समाजीकरण कौन-सी दिशा लेगा।”
व्यक्ति की प्रदत्त स्थिति क निर्धारण में निम्नलिखित तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं –
- लिंग
- आयु
- नातेदारी तथा
- सामाजिक कारक
(ख) (ii) अर्जित प्रस्थिति-अर्जित प्रस्थिति व्यक्ति अपने निजी परिश्रम तथा योग्यता के आधार पर प्राप्त करता है। अर्जित प्रस्थिति आधुनिक समाज की विशेषता है। अर्जित प्रस्थिति के अंतर्गत व्यक्ति के समूह में स्थिति उसमें व्यक्तिगत गुणों के आधार पर निश्चित की जाती है। जिन समाजों के श्रम विभाजन, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण उच्च श्रेणी का होता है, वहाँ अर्जित प्रस्थिति अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है।
मानक – वे निर्देश जिनका पालन समाज में व्यक्ति अन्य व्यक्यिों के साथ अंतः क्रिया करते समय करता है, मानक कहलाते हैं। मानकों द्वारा इस बात का निर्धारण किया जाता है कि परिस्थिति विशेष में व्यक्ति का किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। समाज तथा समूह की प्रकृति के अनुसार मानक बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए एक सामज में किसी कार्य को सामाजिक मान्यता मिलती है, जबकि दूसरे समाज में वही कार्य निंदनीय हो सकता है। मानक दो प्रकार के होते हैं –
- आदेशात्मक मानक तथा
- निषेधात्मक मानक
बर्टन राइट के अनुसार, “सामाजिक मानकों की एक सामान्य यह है कि वे व्यवहार के उचित तरीकों को स्पष्ट करते हैं।”
मानकों की विशेषताएँ –
- उचित तथा अनुचित के आधार पर व्यक्ति के व्यवहार को स्पष्ट करना।
- मानक सामाजिक नियंत्रण के प्रभाव साधन हैं।
- मानक सामाजिक संरचना को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- मानकों का विकास सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार होता है।
- कुछ मानकों की प्रकृति सर्वमान्य होती है।
- मानकों में समाज के नियमों, आदर्शों, विचारों तथा मूल्यों का समावेश होता है।
- सामाजिक मानक समूह की अपेक्षाएँ हैं।
(iii) भूमिका-कुलक – समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति के अनुसार ही उसका अपेक्षित व्यवहार होता है। लुंडबर्ग के अनुसार, “सामाजिक भूमिका किसी समूह अथवा प्रस्थिति में व्यक्ति से प्रत्याशित व्यवहार का प्रतिमान है।” डेविस के अनुसार, भूमिका वह ढंग है जिसके अनुसार कोई व्यक्ति अपने पद के दायित्वों को वास्तविक रूप से पुरा करता है।” प्रत्येक प्रस्थिति से भूमिका अथवा भूमिकाएँ जुड़ी रहती हैं। व्यक्ति की प्रस्थिति संबद्ध समस्त भूमिकाएँ मिलकर भूमिका-कुलक का निर्माण करती है।
रॉबर्ट मर्टन के अनुसार, “भूमिका कुलक संबंधों का वह पूरक है जिसे व्यक्ति किसी एक सामाजिक स्थिति के धारक के कारण प्राप्त करता है।” उदाहरण के लिए एक स्कूल का विद्यार्थी होने के कारण उस विद्यार्थी होने के कारण उस विद्यार्थी को कक्षध्यक्ष अन्य शिक्षकाओं के इस कुलक को भूमिका-कुलक कहते हैं। अपने परिवार में इस विद्यार्थी का भूमिका-कुलक पृथक् होगा । वह माता-पिता, भाई-बहन तथा परिवार के अन्य सदस्यों से अंतः क्रिया करेगा।
प्रश्न 7.
अंत: समूह तथा बाह्य समूह में अंतर है –
उत्तर:
अंतः समूह तथा बाह्य समूह में निम्नलिखित अंतर हैं –
प्रश्न 8.
कुछ समाजशास्त्री सामाजिक स्तरीकरण को अपरिहार्य क्यों मानते हैं?
उत्तर:
कुछ सामजशास्त्री सामाजिक स्तरीकरण को निम्नलिखित कारणों से अपरिहार्य मानते हैं –
(i) मानव समाज में असमानता प्रारम्भ से ही पायी जाती है। असमानता पाये जाने का प्रमुख कारण यह है कि समाज में भूमि, धन, संमत्ति, शक्ति तथा प्रतिष्ठा जैसे संसाधनों का वितरण . समान नहीं होता है।
(ii) विद्वानों का मत है कि यदि किसी समाज के समस्त सदस्यों को समानता का दर्जा दे भी दिया जाए तो कुछ समय पश्चात् उस समाज के व्यक्तियों में असमानता आ जाएगी। इस प्रकार में असमानता एक सामाजिक तथ्य है।
(iii) गम्पलोविज तथा ओपेनहीमर आदि समाजशास्त्रियों का मत है कि सामाजिक स्तरीकरण की शुरूआत एक समूह द्वारा दूसरे समूह पर हुई।
(iv) जीतने वाला समूह अपने को उच्च तथा श्रेष्ठ श्रेणी का समझने लगा। सीसल नार्थ का विचार है कि “जब तक जीवन का शांति पूर्ण क्रम चलता रहा, तब तक कोई तीव्र तथा स्थायी श्रेणी-विभाजन प्रकट नहीं हुआ।”
(v) प्रसिद्ध समाजशास्त्री डेविस का मत है कि सामाजिक अचेतना अचेतन रूप से अपनायी जाती है। इसके माध्यम से विभिन्न समाज यह बात कहते हैं कि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पदों पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का नियुक्त किया गया है । इस प्रकार प्रत्येक समाज में सामाजिक स्तरीकरण अपरिहार्य है।
प्रश्न 9.
स्तरीकरण की खुली व बंद व्यवस्था में अंतर स्पष्ट किजिए?
उत्तर:
स्तरीकरण की खुली तथा बंद व्यवस्था में अग्रलिखित अंतर है –
प्रश्न 10.
औपचारिक तथा अनौपचारिक समूहों में क्या अंतर स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
औपचारिक तथा अनौपचारिक समूहों में निम्नलिखित अंतर हैं –
प्रश्न 11.
प्रदत्त व अर्जित प्रस्थिति में अंतर बताइए ? उचित उदाहरण देकर समझाए ?
उत्तर:
(i) प्रदत्त प्रस्थिति – प्रदत्त प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जो किसी व्यक्ति को उसके जन्म के आधार पर या आयु, लिंग, वंश; जाति तथा विवाह आदि के आधार पर प्राप्त होता है। लेपियर के अनुसार, “वह स्थिति जो एक व्यक्ति जन्म पर या उसके कुछ ही क्षण बाद अभिरोपित होती है, विस्तृत रूप में निश्चित करती है कि उसका समाजीकरण कौन सी दिशा लेगा। अपनी संस्कृति के अनुसार-पुलिंग या स्त्रिीलिंग निम्न या उच्च वर्ग के व्यक्ति के रूप में उसका पोषण किया जो सकेगा। वह कम या अधिक प्रभावशाली रूप में अपनी उस स्थिति से समजीकृत होगा जो उस पर अभिरोपित है।”
प्रदत्त प्रस्थिति का निर्धारण सामाजिक व्यवस्था के मानकों द्वारा निर्धारित किया जाता है। उदाहरण के लिए उच्च जाति में जन्म के द्वारा किसी व्यक्ति को समाज में जो प्रस्थिति प्राप्त होती है वह उसकी प्रदत्त प्रस्थिति है। इसी प्रकार एक धनी परिवार में जन्म लेने वाले बालक की। सामाजिक प्रस्थिति एक निर्धन परिवार में जन्म लेने वाले बालक से भिन्न होती है।
(ii) अर्जित प्रस्थिति अर्जित प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जिसे व्यक्ति अपने निजी प्रयासों से प्राप्त करता है। लेपियर के अनुसार, “अर्जित प्रस्थिति वह स्थिति है, जो साधारणतः लेकिन अनिर्वायता: नहीं किसी व्यक्तिगत सफलता के लिए, इस अनुमान पर पुरस्कारस्वरूप स्वीकृत होती है कि जो सेवाएँ अपने अतीत में की सब भविष्य में भी जारी रहेगी। “उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति अपने निजी प्रयासों के आधार पर डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, अधिकरी आदि बन सकता है।
प्रश्न 12.
सामाजिक नियंत्रण प्राथमिक समूहों में कैसे कार्य करते हैं?
उत्तर:
(i) प्राथमिक समूहों में सामाजिक नियंत्रण काफी अधिक होता है। परिवार, धर्म वैवाहिक नियम, जनरीतियाँ, रूढ़ियाँ प्रथाएँ गोत्र तथा पड़ोस आदि प्राथमिक समूह हैं।
(ii) प्राथमिक समूह व्यक्ति के व्यवहार तथा सामाजिक आचरण पर कठोर नियंत्रण रखते हैं। पी. एच. लैडिस के अनुसार, “जितना ही एक समूह अधिक समरस होता है उतनी ही अधिक कठोर तथा प्रभावी सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था होती है।”
(iii) प्रेम, स्नेह, सहानुभूति, ईमानदारी, निष्ठा, विनम्रता तथा न्याय आदि समूहों के प्राथमिक आदर्श होते हैं। प्राथमिक समूहों में एक-दूसरे की भावनाओं तथा मान-मर्यादा का ध्यान रखा जाता है। उदाहरण के लिए परिवार की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए युवक-युवतियाँ अन्तर्जातीय विवाह के पक्ष में होते हुए भी ऐसा इसलिए नहीं करते हैं, क्योंकि इससे उनके माता-पिता की भावनाओं को ठोस पहुंचेगी।
(iv) प्राथमिक समूहों में प्रतिष्ठा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति ऐसे कार्य नहीं करते हैं जिनके उनके परिवार, जाति या समुदाय की प्रतिष्ठा का धब्बा लगे। व्यक्ति यह भी नहीं चाहते हैं कि दूसरे लोग उनका मजाक करें अथवा उनके बारे में अफवाहें उड़ाएँ । प्राथमिक समूह के लोग यह भी सोचते हैं कि दूसरे लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं अथवा क्या मत रखते हैं।
(v) हँसी भी एक अत्यधिक प्रभावशाली समाजिक नियंत्रण है। कोई भी व्यक्ति अपने समूह में हँसी का पात्र नहीं बनना चाहता है। लैडिस क अनुसार, “हँसी एक प्रसन्नमुखी सिपाही है, ….. यह व्यक्ति की बुद्धिमत्ता की माप है तथा कभी-कभी एक भंयकर हथियार सिपाही है,” . इस प्रकार हम कह सकते है कि सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधन तथा विधियाँ प्राथमिक समूहों में प्रभावशाली ढंग से कार्य करते हैं।
प्रश्न 13.
सामाजिक नियंत्रण में रीति-रिवाजों की क्या भूमिका है?
उत्तर:
(i) रीति-रिवाज सामाजिक नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रीति-रिवाज प्राथमिक समूहों में अत्यधिक प्रभावी होते हैं।
(ii) रीति-रिवाज सामूहिक व्यवहार के रूप में समाज में मान्यता प्राप्त कर लेते हैं तथा व्यक्ति इन्हें बिना सोचे-विचारे स्वीकार कर लेता है। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “समाज से मान्यता प्राप्त कार्य करने की विधियाँ ही समाज की प्रथाएँ हैं।”
(iii) रीति-रिवाजों को सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में स्वीकार कने के पीछे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है। व्यक्ति साधारणतया यह सोचते हैं कि जिस कार्य को उसे पूर्वजों के द्वारा किया गया तथा उसमें उन्हें लाभ हुआ है तो उन कार्यों को जारी रखना चाहिए । इस प्रकार रीति-रिवाजों का पालन करने के पीछे दो भावनाएँ निहित हैं –
- पूर्वजों की भावनाओं का समान करना।
- रीति-रिवाजों का स्थायित्व तथा उपयोगिता।
(iv) रीति-रिवाज समाजिक विरासत के. भंडार हैं। इनके द्वारा संस्कृति का संरक्षण किया जाता है तथा उसे (स्वीकृति को) आने वाली पीढ़ी का हस्तांतरित कर दिया जाता है। बोगार्डस के अनुसार, “रीति-रिवाजों तथा परंपराएँ समूह के द्वारा स्वीकृत नियंत्रण की वे पद्धतियाँ है जो सुव्यवस्थिति हो जाती हैं तथा जिन्हें बिना सोचे-विचारे मान्यता प्रदान कर दी जाती है तथा जो. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती हैं।”
(v) रीति-रिवाजों व्यक्ति के संपूर्ण जीवन के चारों तरफ एक ताना-बाना बुन देते हैं। व्यक्ति के जीवन से मृत्यु तक रीति-रिवाजों का न टूटने वाला सिलसिला जारी रहता है। रीति-रिवाज उनकी मनोवृति, संस्कार तथा आचार, व्यवहार को प्रभावित करते हुए सामाजिक नियंत्रण के प्रमुख साधन हैं। कोई भी समूह, संप्रदाय तथा समाज रीति-रिवाजों से मुक्त नहीं है। बेकन ने रीति-रिवाजों को ‘मनुष्य के जीवन का प्रमुख न्यायाधीश’ माना है जिन-जातियों में रिति-रिवाजों के उल्लंघन की कल्पना की नहीं की जा सकती है।
अतः हम कह सकते हैं कि समाजिक नियंत्रण में रीति-रिवाजों की महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावशाली भूमिका है।
प्रश्न 14.
लिंग के आधार पर स्तरीकरण की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
- लिंग के आधार पर भी सामाजिक संस्तरण किया जाता है। इसके अंतर्गत पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग में अंतर किया जाता है।
- महिला आंदोलन के कारण लिंग पर आधारित भेदभावों को हटाने का सतत् प्रयास किया जा रहा है।
- वर्तमान समाय में लिंग भेद की अवधारणा जैविक भिन्नता से अलग हो गई है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अनुसार भिन्नता भूमिकाओं तथा संबंधों के संदर्भ में देखी जानी चाहिए।
- लिंग की भूमिकाएं अलग-अलग संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न हो सकती हैं लेकिन लिंग आधारित स्तरीकरण सार्वभौमिक होता है। उदाहरण के लिए, पितृसत्तात्मक समाजों में पुरूषों के कार्यों को स्त्रियों की अपेक्षा अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है।
- समाज में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा संस्कृतिक संरचनाओं पर पुरुषों का दबदबा कायम रहता है।
- लिंग की समानता के समर्थक शिक्षा, सार्वजनिक अधिकरों में भागीदारी तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता के जरिए स्त्रियों को समर्थ बनाए जाने के हिमायती हैं।
- वर्तमान समय में लिंग पर आधारित असमानताओं को हटाने की बात अधिक जोरदार तरीके से उठायी जा रही है।
प्रश्न 15.
समाजिक नियंत्रण समाज में किस प्रकार कार्य करता है?
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण समाज में निम्नलिखित प्रकार से कार्य करता है –
- सामाजिक नियंत्रण एक बाह्य शक्ति के रूप में समाज अथवा समूह में व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करता है।
- लैंडिस के अनुसार, “सामाजिक नियंत्रण, व्यक्ति की स्वयं अपने से रक्षा करने तथा समाज को अव्यवस्था से बचाने के लिए आवश्यक है।”
- सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक तथा औपचारिक साधन सामाजिक व्यवहार में एकता, समरूपता तथा स्थायित्व बनाए रखने का कार्य करते हैं।
- के यंग के अनुसार, “समाजिक नियंत्रण का उद्देश्य एक विशिष्ट समूह अथवा सामाज की समरूपता, एकता तथा निरन्तरता का लाना है”
- सामाजिक नियंत्रण के साधन समाज या समूह के अनुरूप बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिमी समाजों की संरचना भारतीय समाज की संरचना से भिन्न है।
- इस भिन्नता के कारण सामाजिक नियंत्रण के कार्यों तथा स्वरूपों में भी भिन्नता आ जाती है।
- सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधन अनौपचारिक साधनों के रूप में भी कार्य करते है।
- ग्रामीण समाजों में प्राथमिक समूह तथा संस्थाएँ जैसे परिवार तथा विवाह संस्था सामाजिक नियंत्रित के प्रभावशाली साधन हैं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
सामाजिक नियंत्रण क्या है? क्या आप सोचते हैं कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में समाजिक नियंत्रण के साधन अलग-अलग होते हैं? चर्चा करें।
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण का अर्थ – समाज सामाजिक संबंधों का जाल है। सामाजिक संबंधों को नियमित, निर्देशित तथा सकारात्मक बनाने के लिए उन्हें नियंत्रित किया जाना आवश्यक है। सामाजिक संगठन के अस्तित्व तथा प्रगति के लिए भी नियंत्रिण आवश्यक है। समाजशास्त्रियों द्वारा नियंत्रण के इन प्रकारों को ही ‘सामाजिक नियंत्रण’ कहा गया है।
सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न साधन – सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए तथा उसे स्थायित्व एवं निरन्तरता प्रदान के लिए सामाजिक नियंत्रण अपरिहार्य है। वस्तुतः सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न साधन तथा प्रकार सामाजिक संरचना तथा समाज के प्रकार के अनुरूप होते हैं। विभिन्न सामाजशास्त्रियों ने सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न प्रकार बताए हैं
(i) ई० ए० रॉस० के अनुसार –
- जनमत
- कानून
- प्रथा
- धर्म
- नैतिकता
- सामाजिक सुझाव
- व्यक्तित्व
- लोकरीतियाँ
- लोकाचार
(ii) किंबाल यंग के अनुसार –
- सकारात्मक साधन
- नकारात्मक साधन
(iii) एफ० ई० लूम्बे के अनुसार –
- बल पर आधारित साधन
- प्रतीकों पर आधारित साधन
वर्तमान समय में समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक नियंत्रण के साधनों को निम्नलिखित दो प्रकारों में बाँटा गया है –
- अनौपचारिक साधन तथा
- औपचारिक साधन
(i) सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधन – समाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों का विकास स्वतः हो जाता है। समाज की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित होने वाले साधन निम्नलिखित हैं –
(a) जनरीतियाँ – जनरीतियाँ सामाजिक व्यवहार की स्वीकृत विधियाँ हैं। सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधन हैं। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “जनरीतियाँ समाज में मान्यताप्राप्त अथवा स्वीकृत व्यवहार करने की विधियाँ हैं। जनरीतियाँ सामाजिक संस्कृति की आधारशिलाएँ हैं। जनरीतियों का उल्लंघन आसानी से नहीं किया जा सकता है।
(b) प्रथाएँ – सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में प्रथाएँ भी अत्यंत प्रभावशाली हैं। वास्तव में, प्रथाएँ जनरीतियों का ही विकसित रूप हैं। प्रथाओं का उल्लंघन करना ‘सामाजिक अपराध’ समझा जाता है। बोगार्डस के अनुसार, “प्रथाएँ तथा परंपराएँ समूह के द्वारा स्वीकृत नियंत्रण की वे पद्धतियाँ हैं जो सुव्यवस्थित हो जाती हैं तथा जिन्हें बिना सोचे-विचारे मान्यता दे दी जाती है और जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती हैं।
(c) रूढ़ियाँ या लोकाचार – रूढ़ियाँ या लोकाचार को समूह कल्याण के लिए आवश्यक समझा जाता है। समाज के लोकाचार समाजिक नियंत्रण के सशक्त साधन हैं। लोकाचार मानव व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। उदाहरण के लिए मद्यनिषेध तथा एक पत्नी विवाह आदि स्थापित लोकाचर हैं। लोकाचार का उल्लघंन करने पर समाज दंड देता है। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “इसलिये ऐसा तर्क दिया जाता है कि जब जनरीतियाँ अपने साथ में समूह के कल्याण की भावना व अनुचित के मापदंड को जोड़ लेती हैं तो वे रूढ़ियों में बदल जाती हैं।”
(d) धर्म – समाज में मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म आस्थाओं पर आधारित होता है। धर्म सामाजिक संबंधों स्वरूप को प्रभावित करता है। होबेल के अनुसार, “धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास पर आधारित है जिसमें आत्मवाद तथा मानववाद सम्मिलित हैं।”
(e) जनमत – जनमत भी समाजिक नियंत्रण का अनौपचारिक साधन है। सार्वजनिक अपमान तथ उपहास के कारण व्यक्ति जनमत की अवहेलना नहीं करता है । व्यक्ति सामज द्वारा स्वीकृत प्रतिमानों के अनुरूप ही कार्य करता है। द्वितीयक तथा तृतीयक समूहों में जनमत का प्रभाव काफी अधिक होता है।
(ii) सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधन –
(a) कानून-सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधनों में कानून सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। जैसे-जैसे समाज विस्तृत तथा जटिल होता चला जाता है वैसे-वैस प्राथमिक संबंधों के स्थान पर द्वितीयक तथा तृतीयक संबंध अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं। आधुनिक समाज में व्यक्तियों के संबंधों को नियमित तथा निर्देशित करने के लिए कानून तथा दंड की व्यवस्था की गई है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि जटिल अथवा आधुनिक समाजों में अनेक जनरीतियों, लोकाचारों तथा प्रथाओं को औपचारीकृत कर कानून का स्वरूप प्रदान कर दिया जाता है।
(b) राज्य – राज्य औपचारिक तरीकों द्वारा सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। राज्य का कार्यक्षेत्र अत्यधिक व्यापक होता है। राज्य के संवैधानिक कानूनों द्वारा व्यक्तियों पर सामजिक नियंत्रण रखा जाता है।
(c) शिक्षा-शिक्षा औपचारिक सामाजिक नियंत्रण किा अत्यंत सशक्त तथा सर्वव्यापी साधन है। शिक्षा के माध्यम से बच्चों को समाजीकरण किया जाता है। तर्कपूर्ण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण के संतुलित विकास हेतु शिक्षा अपरिहार्य है। शिक्षा द्वारा सामाजिक संरचना के उस आधार को विकसित किया जाता है जो व्यक्तियों को सामाजिक विचलन तथा विघटन के नकारात्मक मार्ग से रोकते हैं।
प्रश्न 2.
समाज के सदस्य के रूप में आप समूहों में और विभिन्न समूहों के साथ अंतः क्रिया करते होंगे। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से इन समूहों को आप किस प्रकार देखते हैं?
उत्तर:
समाजशास्त्र मानव के सामाजिक जीवन का अध्ययन है। मानवीय जीवन की एक पारिभाषिक विशेषता यह है कि मनुष्य परस्पर अंतः क्रिया करता है, बातचीत करता है और सामाजिक सामूहिकता को बनाता भी है। समाजशास्त्र का तुलनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण दो स्पष्ट अहानिकारक तथ्यों को सामने लाता है। प्रथम, प्रत्येक समाज में चाहे वह प्राचीन अथवा सामंतीय तथा आधुनिक हो, एशियन या यूरोपियन अथवा अफ्रीकन हो, मानवीय समूह और सामूहिकता पाई जाती है।
द्वितीय, विभिन्न समाजों में समूहों और सामूहिकताओं के प्रकार अलग-अलग होते हैं। – किसी भी तरह से लोगों का इक्ट्ठा होना एक सामाजिक समूह बनाता है। समुच्चय केवल लोगों का जमावड़ा होता है जो एक समय में एक ही स्थान पर होते हैं लेकिन एक-दूसरे से कोई निश्चित संबंध नहीं रखते। एक रेलवे स्टेशन अथवा हवाई अड्डा अथवा बस स्टॉप पर प्रतीक्षा करते यात्री अथवा सिनेमा दर्शक समुच्चयों के उदाहरण हैं। इन समुच्चयस को प्रायः अर्ध-समूहों का नाम दिया जाता है।
एक अर्ध-समूह एक समुच्चय अथवा संयोजन होता है, जिसमें संरचना अथवा संगठन की कमी होती है और जिसके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ अथवा कम जागरूकता होते हैं। सामाजिक वर्गों, प्रस्थिति समूहों, आयु एवं लिंग समूहों व भीड़ को अर्थ-समूह के उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है। जैसा कि उदाहरण दर्शाते हैं, अर्ध-समूह समय और विशेष परिस्थतियों में सामाजिक समूह बन सकते हैं।
उदाहरणार्थ यह संभव है कि एक विशेष सामाजिक वर्ग अथवा जाति अथवा समुदाय से संबंधित व्यक्ति एक सामूहिक निकाय के रूप में संगठित न हो.। उनमें अभी ‘हम’ की भावना आना शेष हो, परन्तु वर्गों और जातियों ने समय के बीतने के साथ-साथ राजनीतिक दलों का जन्म दिया है। उसी प्रकार भारत के विभिन्न समुदायों के लोगों ने लंबे उपनिवेशिक विरोधी संघर्ष के साथ-साथ अपनी पहचान एक सामूहिक और समूह के रूप में विकसित की है: एक राष्ट्र जिसका मिला-जुला अतीत और साझा भविष्य है। महिला आंदोलन ने महिलाओं के समूह और संगठनों का विचार सामने रखा। ये सभी उदाहरण इस बात की ओर ध्यान खींचते हैं कि किस प्रकार सामाजिक समूह उभरते हैं, परिवर्तित होते हैं और संशोधित होते हैं।
एक सामाजिक समूह में कम से कम निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए –
- निरंतरता के लिए स्थायी अंतः क्रिया
- इन अंत: क्रियाओं का स्थिर प्रतिमान
- दूसरे सदस्यों के साथ पहचान बनाने के लिए अपनत्व की भावना
- सांझी रुचि
- सामान्य मानकों और मूल्यों को अपनाना
- एक परिभाषित संरचना।
प्रश्न 3.
अपने समाज में उपस्थित स्तरीकरण की व्यवस्था के बारे में आपका क्या प्रेक्षण है? स्तरीकरण से व्यक्तिगत जीवन कि प्रकार प्रभावित होते हैं?
उत्तर:
हमारे समाज में जाति पर आधारित स्तरीकरण व्यवस्था है, जिसमें व्यक्ति की स्थिति पूरी तरह से जन्म द्वारा प्रदत्त प्रस्थिति पर आधारित होती है न कि उन पदों पर जो व्यक्ति ने अपने जीवन में प्राप्त किए हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि एक वर्ग समाज में उपलब्धि पर कोई योजनाबद्ध प्रतिबंध नहीं होता जो कि प्रजाति और लिंग सरीखी प्रदत्त प्रस्थिति द्वारा थोपा जाता है। हालांकि एक जातिवादी समाज में जन्म द्वारा प्रदत्त एक व्यक्ति की स्थिति को, एक वर्ग समाज की तुलना में ज्यादा पूर्ण ढंग से परिभाषित करती है।
परंपरागत भारतीय समाज में, विभिन्न जातियाँ सामाजिक श्रेष्ठता को श्रेणीबद्ध करती हैं। जाति संरचना में प्रत्येक स्थान दूसरों के संबंध में इसकी शुद्धता या अपवित्रता के रूप में परिभाषित था। इसके पीछे यह विश्वास था कि पुरोहितीय जाति ब्राह्मण जो कि सबसे अधिक पवित्र है, शेष सबसे श्रेष्ठ है और पंचम, जिनको कई बार ‘बाह्य जाति’ कहा गया, सबसे निम्न है। परम्परागत व्यवस्था को सामान्यतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के चार वर्णों; के रूप में व्यक्त किया गया है। वास्तव में व्यवसाय पर आधारित अनगिनत जाति समूह होते हैं जिन्हें जाति कहा जाता है।
स्तरीकरण की इस व्यवस्था से व्यक्तिगत जीवन बहुत अधिक प्रभावित हो रहा है। आज भी बहुत से जातिगत भेदभाव उपस्थित है। समाज में निम्न श्रेणी का कार्य करने वाली जातियों को समाज आज भी हेय दृष्टि से देखता है पर साथ ही लोकतंत्र की कार्य प्रणाली ने जाति व्यवस्था को भी प्रभावित किया है। जाति समूह के रूप में सुदृढ़ हुई है। भेदभावग्रस्त जातियों को समाज में अपने लोकतंत्रीय अधिकारों के प्रयोग के लिए संघर्ष करते भी देखा गया है।
प्रश्न 4.
प्राथमिक समूह का अर्थ, विशेषताएँ तथा महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(i) प्राथमिक समूह का अर्थ – प्रसिद्ध समाजशास्त्री कूले द्वारा प्राथमिक समूह की अवधारणा का प्रतिपादन किया गया। कूले ने अपनी पुस्तक Social Organisation में प्राथमिक समूह की परिभाषा करते हुए लिखा है कि “प्राथमिक समूह से मेरा तात्पर्य उन समूहों से है जिनकी विशेषता आमने-सामने का घनिष्ठ संपर्क तथा सहयोग है । वे प्राथमिक कई दृष्टिकोणों से हैं, परंतु मुख्यतः इस कारण से हैं कि वे व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति एवं आदर्शों के निर्माण करने में मौलिक हैं………जिसके लिए ‘हम’ स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।”
कूले की प्राथमिक समूह की परिभाषा से निम्नलिखित बिन्दु स्पष्ट हो जाते हैं –
- प्राथमिक समूह में आमने-सामने के घनिष्ठ संपर्क होते हैं।
- प्राथमिक समूह में ‘हम की भावना’ पायी जाती है।
- प्राथमिक समूह में सहानुभूति तथा एकता पायी जाती है।
- प्राथमिक समूहों में घनिष्ठ वैयक्तिक संबंध पाए जाते हैं, उदाहरण के लिए परिवार, क्रीड़ा मंडली, मित्र-मंडली तथा पड़ोस आदि प्राथमिक समूह हैं।
(ii) प्राथमिक समूह की विशेषताएँ –
- शारीरिक समीपता-प्राथमिक समूहों में व्यक्तियों के बीच शारीरिक समीपता पायी जाती है। प्राथमिक समूह के सदस्य साथ-साथ रहते हैं तथा उनमें भावनात्मक घनिष्ठता पायी जाती है। सदस्यों के बीच वैयक्तिक संबंध होते हैं।
- लघु आकार-प्राथमिक समूहों का आकार छोटा होता है तथा सदस्यों की संख्या कम होती है। समूह के सदस्यों के बीच आमने-सामने के संबंध पाए जाते हैं।
- निरन्तरता तथा स्थिरता-प्राथमिक समूहों में आपसी संबंधां में निरंतरता तथा स्थिरता पायी जाती है। उदाहरण के लिए परिवार के सदस्यों के बीच निरन्तरता तथा स्थिरता पायी जाती है।
- उद्देश्यों की समानता-प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच उद्देश्यों की समानता पायी जाती है। समूह के सभी सदस्य उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए मिल-जुलकर प्रयत्न करते हैं। पारस्परिक कल्याण तथा हित प्रमुख उद्देश्य होता है।
- संबंध स्वयं साध्य होता है-प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच संबंध किसी विशिष्ट उद्देश्य के साधन के रूप में न होकर साध्य होते हैं, उन्हें आर्थिक या सामाजिक पैमानों पर नहीं मापा जा सकता है।
- उदाहरण के लिए, पिता-पुत्र तथा पति-पत्नी के बीच संबंधों को अनिवार्य रूप से स्वीकार नहीं कराया जाता अपितु वे स्वयं विकसित हो जाते हैं।
- संबंध वैयक्तिक होते हैं-प्राथमिक समूहों में सदस्यों के बीच वैयक्तिक संबंध पाए जाते हैं। इन संबंधों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, भाई तथा बहन के बीच संबंधों का प्रतिस्थापन नहीं किया जा सकता है।
- स्वाभाविक संबंध-प्राथमिक समूहों के सदस्यों के बीच स्वाभाविक संबंध पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए परिवार के सदस्यों के बीच संबंध किसी दबाव से स्थापित नहीं होते है, वरन् संबंधों का आधार स्वाभाविक होता है।
- अत्यधिक नियंत्रण शक्ति-प्राथमिक समूह में नियंत्रण के मानक सामान्य आदर्शों, परंपराओं तथा सांस्कृतिक नियामकों पर आधारित होते हैं।
- उदाहरण के लिए बच्चों पर माता-पिता का नियंत्रण होता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि नियंत्रण के सूत्र प्राथमिक संबंधों को बाँधे रखते हैं।
(iii) प्राथमिक समूह का महत्व –
- प्राथमिक समूह सदस्यों को सामाजिक, मानसिक, आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए बच्चों के संतुलित तथा समुचित विकास के लिए परिवार एक स्वाभाविक वातावरण प्रस्तुत करता है।
- प्राथमिक समूह सामाजिक अनुकूलन में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए बच्चा परिवार, पड़ोस, मित्र-मंडली तथा खेल समूहों में अनुकूलन तथा पारस्परिक सामंजस्य का महत्वपूर्ण पाठ सीखता है।
- प्राथमिक समूह में सदस्य सहानुभूति, दया तथा सहयोग के गुणों को सीखता है। उदाहरण के लिए संतान के प्रति माता-पिता का त्याग अतुलनीय है।
- प्राथमिक समूह सामाजिक नियंत्रण तथा संगठन को बनाए रखते हैं। सामाजिक नियंत्रण सामाजिकता को दिशा प्रदान करता है।
प्रश्न 5.
समूहों का वर्गीकरण करने के लिए किस प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है? विस्तार से लिखिए।
उत्तर:
सामाजिक समूहों का वर्गीकरण एक कठिन समस्या है। फिर भी, अनेक समाजशास्त्रियों ने आकार, सदस्य संख्या, उद्देश्य, साधन, स्थिरता, व्यवहार तथा हितों आदि के आधार पर समूहों का वर्गीकरण किया है। प्रमुख समाजशास्त्रियों द्वारा किए गए समूह के वर्गीकरण निम्नलिखित हैं –
(i) कूले के अनुसार –
- प्राथमिक समूह-प्राथमिक समूहों में आमने-सामने के घनिष्ठ संबंध होते हैं।
- द्वितीयक समूह-द्वितीय समूह में परोक्ष संबंध पाए जाते हैं। सदस्यों के बीच सामाजिक दूरी होती है।
(ii) एफ. एच. गिडिंग्स के अनुसार –
- जननिक समूह-परिवार एक जननिक समूह है।
- इकट्ठे समूह-यह ऐच्छिक समूह होते हैं।
(iii) मिलर के अनुसार
- उर्ध्वाधर समूह-से समूह आकार में छोटे होते हैं।
- क्षैतिज समूह-ये समूह आकार में विशाल होते हैं।
(iv) विलियम ग्राहम समनर के अनुसार
- अंत: समूह-इनमें सामाजिक निकटता तथा हम की भावना पायी जाती है।
- बाह्य समूह-इनमें सामाजिक दूरी तथा एकता का अभाव होता है।
कुछ समाजशास्त्रियों ने समूहों को निम्नलिखित रूप में भी बाँटा है –
- औपचारिक समूह-आकार में छोटे होते हैं तथा सदस्यों के बीच वैयक्तिक संबंध पाए जाते हैं।
- अनौपचारिक समूह-आकर में बड़े होते हैं तथा सदस्यों के बीच अवैयक्तिक संबंध पाए जाते हैं।
(v) जॉर्ज हासन के अनुसार –
- असामाजिक समूह-असामाजिक समूह समाज के मानकों तथा मूल्यों का विरोधी होता है।
- आभासी सामाजिक समूह-आभासी सामाजिक समूह अपने हितों के लिए सामाजिक जीवन में भाग लेता है।
- समाज विरोधी समूह-यह समूह समाज के हितों के विरुद्ध गतिविधियाँ करता है।
- समाज समर्थक समूह-यह समाज के हितों के लिए रचनात्मक कार्य करता है।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से समूहों का वर्गीकरण पृथक-पृथक रूपों तथा आधारों पर किया है। व्यक्तियों के उद्देश्य, हित, स्वार्थ तथा संबंध सदैव परिवर्तनशील तथा गतिशील हैं। मानव-व्यवहार की जटिलता के कारण ही अभी तक समाजशास्त्री समूहों का कोई सर्वमान्य वर्गीकरण नहीं दे पाए हैं। इस संबंध में क्यूबर ने उचित ही कहा है कि “समाजशास्त्रियों ने समूहों का वर्गीकरण करने में काफी समय तथा प्रयत्न लगाया है।
यद्यपि शुरू में तो ऐसा करना आसान प्रतीत होता तथापि आगे सोचने पर इसमें बहुत-सी कठिनाइयाँ महसूस होंगी । वास्तव में ये कठिनाइयाँ इतनी अधिक हैं कि अभी तक हमारे पास समूहों का कोई क्रमबद्ध वर्गीकरण नहीं है जो सभी समाजशास्त्रियों को पूर्णतया स्वीकार्य हो।”
प्रश्न 6.
अनौपचारिक सामाजिकरण नियंत्रण की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति एवं समूह के व्यवहारों के नियमन की पद्धति प्रत्येक समाज में पायी जाती है। इसी पद्धति को सामाजिक नियंत्रण कहा जाता है। एच. सी. ब्रियरले के अनुसार, “सामाजिक नियंत्रण उन प्रक्रियाओं, चाहे वे नियोजित अथवा अनियोजित हों के लिए सामूहिक शब्द है जिनके द्वारा व्यक्तियों को समूह के रिवाजों तथा जीवन मूल्यों के अनुरूप बनने के लिए शिक्षा दी जाती है, अनुनय किया जाता है या विवश किया जाता है।”
सामाजिक नियंत्रण के दो प्रमुख रूप हैं –
- औपचारिक साधन तथा
- अनौपचारिक साधन
1. औपचारिक साधन – सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधनों का विकास समाज में स्वतः हो जाता है। उनके निर्माण अथवा विकास के लिए किसी विशेष अभिकरण की जरूरत नहीं होती है। औपचारिक सामाजिक नियंत्रण के साधन गैर-सरकारी होते हैं। ये साधन छोटे अथवा प्राथमिक समूहों में अधिक प्रभावशाली होते हैं । क्रोसबी ने अपनी पुस्तक Interaction in Small Groups में अनौपचारिक नियंत्रण के निम्नलिखित चार मूलभूत प्रकार बताए हैं।
(a) सामाजिक परितोषिक – सामाजिक पारितोषिक के अंतर्गत मुस्कुराना, स्वीकृति की सहमति एवं अधिक परिवर्तन वाले कार्य जैसे कर्मचारी की प्रोन्नति, परितोषिक अनुरूपता आदि सम्मिलित किए जाते हैं। ये सभी कारक प्रत्यक्ष रूप से विचलन को दूर करते हैं।
(b) दंड – दंड के अंतर्गत अप्रसन्नता, आलोचना तथा शारीरिक धमकियाँ आदि सम्मिलित किए जाते हैं। इनमें प्रत्यक्ष रूप से विचलित कार्यों को रोकने का लक्ष्य सम्मिलित किया जाता है।
(c) अनुनय – अनुनय के माध्यम से विचलित व्यक्तियों को सामाजिक नियमों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए कहा जाता है। उदाहरण के लिए, बेसबॉल के खिलाड़ी को जो नियमों का उल्लंघन कता है, खेल के नियमों को गंभीरता पूर्वक पालन करने के लिए अनुनय किया जाता है।
(d) पुनः परिभाषित प्रतिमान-बदली हुई परिस्थितियों तथा मूल्यों में प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करना सामाजिक नियंत्रण का एक अन्य जटिल प्रकार है। उदाहरण के लिए, नगरीय परिवेश में काम करने वाली पत्नियों के पति गृह-कार्य करते हैं तथा बच्चों की देखभाल करते हैं। हालांकि, कुछ समय पहले यह सब कुछ अकल्पनीय था।
2. सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधन – परिवार, समुदाय, पड़ोस, गोत्र, जनरीतियाँ, सामाजिक रूढ़ियाँ, रीतिरिवाज तथा धर्म आदि सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधन हैं।
(a) परिवार – परिवार अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण का एक सशक्त तथा स्थायी साधन है। क्लेयर ने कहा है कि “परिवार से हम संबंधों की वह व्यवस्था समझते हैं जो माता-पिता तथा उनकी संतानों के बीच पायी जाती है।” परिवार सामाजिक नियंत्रण की प्राथमिक म अनौपचारिक पाठशाला है। बर्गेस तथा लॉक के अनुसार, “परिवार बालक पर सांस्कृतिक प्रभाव डालने वाली एक मौलिक समिति है तथा पारिवारिक परम्परा बालक को उसके प्रति प्रारंभिक व्यवहार, प्रतिमान एवं आचरण का स्तर प्रदान करती है।”
(b) समुदाय, पड़ोस तथा गोत्र – समुदाय, पड़ोस तथा गोत्र भी सामाजिक नियंत्रण के अनौपचाकि साधन हैं। उदाहरण के लिए व्यक्ति के व्यवहार तथा कार्यों पर रक्त संबंधों का काफी सामाजिक दबाव रहता है। विवाह के पश्चात् नव-वधू को नए पारिवारिक-परिवेश के साथ अनुकूलन करना पड़ता है। ग्रामीण समुदाय भी अपने सदस्यों पर काफी अधिक नियंत्रण रखते हैं। समुदाय के नियमों की अवहेलना करने पर व्यक्तियों को सामाजिक निन्दा तथा सामाजिक प्रताड़ना अथवा बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।
(c) जनरीतियाँ – जनरीतियाँ समूह के सामूहिक व्यवहार का प्रतिमान हैं तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती हैं। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “जनरीतियाँ समाज में मान्यता प्राप्त या स्वीकृत व्यवहार करने की पद्धतियाँ हैं।” गिडिंग्स जनरीतियों को राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों से भी अधिक प्रभावी मानता है। जनरीतियाँ व्यक्तियों के अवैयक्तिक व्यवहार का नियमन करती हैं।
(d) सामाजिक रूढ़ियाँ – सामाजिक रूढ़ियाँ भी सामाजिक नियंत्रण के प्रभावी साधन हैं। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, जब जनरीतियाँ अपने साथ समूह के कल्याण की भावना तथा उचित व अनुचित के प्रभावों को जोड़ लेती हैं तब वे रूढ़ियों में बदल जाती हैं। रूढ़ियों को समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए जातीय नियमों की अवहेलना करना निन्दनीय समझा जाता है।
(e) धर्म – धर्म भी सामाजिक नियंत्रण का प्रभावशाली साधन है। हॉबेल के अनुसार, “धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास पर आधारित है जिसमें आत्मवाद तथा मानववाद सम्मिलित हैं।” दुर्खाइम का मत है कि धर्म जीवन का वह पक्ष है जिसका संबंध पवित्र वस्तुओं से है। धर्म पाप तथा पुण्य की धारणा से जुड़ा है। धर्म का उल्लंघन करना ‘पाप’ है अतः धर्म सामाजिक नियंत्रण का सशक्त अनौपचारिक साधन है।
(f) प्रथाएँ – प्रथाएँ भी अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण के साधन हैं। प्रथाएँ सामाजिक व्यवहार हैं तथा व्यक्ति इन्हें बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेते हैं। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “समाज से मान्यता प्राप्त कार्य करने की विधियाँ ही समाज की प्रथाएँ हैं। प्रथाएँ व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्रथाएँ जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति के जीवन को नियमित तथा निर्देशित करती हैं।
प्रश्न 7.
द्वितीयक समूहों का अर्थ, विशेषताएँ तथा महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(i) द्वितीयक समूह का अर्थ – द्वितीयक समूह आकार में बड़े होते हैं तथा इनके द्वारा विशिष्ट स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। द्वितीयक समूहों में घनिष्ठता, एकता तथा आमने-सामने के संबंधों का अभाव पाया जाता है। संबंधों की प्रकृति अवैयक्तिक होती है। ऑग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, “वे समूह जो घनिष्ठता की कमी का अनुभव प्रस्तुत करते हैं, द्वितीयक समूह कहलाते हैं।” केडेविस के अनुसार, “द्वितीयक समूहों को मोटे तौर पर प्राथमिक समूहों के विरोधी समूहों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
एच. टी. मजूमदार के अनुसार, “जब सदस्यों के संबंधों में आमने-सामने के संपर्क नहीं होते हैं, तो द्वितीयक समूह होता है। पी. एच. लैंडिस के अनुसार, “द्वितीयक समूह वे हैं जो संबंधों में अपेक्षाकृत अनिरंतर तथा अवैयक्तिक होते हैं।” रॉबर्ट बीरस्टेड के अनुसार, “वे समूह द्वितीयक हैं, जो प्राथमिक नहीं हैं।”
(ii) द्वितीयक समूहों की विशेषताएँ –
(a) बड़ा आकर – द्वितीयक समूहों का आकार बड़ा होता है इनका विस्तार राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है। उदाहरण के लिए, राजनीतिक दल तथा यूनेस्को आदि द्वितीयक समूह हैं।
(b) सहयोग की प्रकृति – द्वितीयक समूहों के सदस्यों के बीच साधारणतया परोक्ष सहयोग पाया जाता है। द्वितीयक समूहों में व्यक्ति मिलकर काम करने के बजाए एक-दूसरे के लिए कार्य करते हैं। समूह के सदस्यों का सहयोग उद्देश्य विशेष की प्राप्ति तक ही सीमित होता है।
(c) औपचारिक संरचना – द्वितीयक समूह औपचारिक नियमों के द्वारा संचालित होते हैं। सदस्यों के कार्य श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण के नियमों के द्वारा निर्धारित होते हैं।
(d) अस्थायी संबंध – द्वितीयक समूह उद्देश्य की पूर्ति के लिए, कायम किए जाते हैं। सदस्यों के बीच औपचारिक संबंध होते हैं। अतः सदस्यों के बीच स्थायी संबंध नहीं पाए जाते हैं।
(e) सीमित उत्तरदायित्व – द्वितीयक समूहों के सदस्यों के बीच औपचारिक संबंध पाए जाते हैं। वैयक्तिक संबंधों के अभाव में उत्तरदायित्व भी सीमित होता है अतः हम कह सकते हैं कि द्वितीयक समूहों में प्राथमिक समूहों जैसे असीमित उत्तरदायित्व न होकर सीमित उत्तरदायित्व होता है।
(f) ऐच्छिक सदस्यता – द्वितीयक समूहों की सदस्यता आमतौर पर ऐच्छिक होती है। उदाहरण के लिए, लायन्स क्लब या किसी राजनीतिक दल की सदस्यता लेना अनिवार्य नहीं है।
(iii) द्वितीयक समूहों का महत्त्व –
- द्वितीयक समूह समाजीकरण के व्यापक तथा विस्तृत प्रतिमान प्रस्तुत करते हैं।
- द्वितीयक समूह मानव प्रगति के द्योतक हैं।
- द्वितीयक समूह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की व्याख्या करते हैं।
- द्वितीयक समूह श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण को बढ़ावा देते हैं।
- द्वितीयक समूह समाज में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देते हैं।
प्रश्न 8.
सामाजिक नियंत्रण के अभिकरणों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अभिकरण एवं साधन संयुक्त रूप से सामूहिक एवं व्यक्तिगत व्यवहार को नियमित करते हैं और सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था को प्रभावशली बनाते हैं। सामाजिक नियंत्रण के प्रमुख अभिकरणों के उल्लेख निम्नलिखित हैं –
(i) परिवार – परिवार सामाजिक नियंत्रण का सबसे महत्वपूर्ण अभिकरण है परिवार को सामाजिक जीवन की सर्वोत्तम पाठशाला कहा गया है। परिवार में बच्चा प्रक्ताओं और परम्पराओं के बीच पतला है। परिवार में माँ का प्यार एवं पिता के संरक्षण में बच्चे पलते हैं। सामाजिक नियंत्रण में परिवार की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है।
(ii) धर्म – सामाजिक नियंत्रण में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। धर्म का प्रभाव प्रत्येक समाज में होता है। प्रत्येक धर्म का आधार किसी शक्ति पर विश्वास है और यह मानव से श्रेष्ठ है। धर्म के विरुद्ध कार्य करने से लोग डरते हैं। लोगों को विश्वास है कि धर्म के अनुकूल कार्य करने में ही उनका हित सुरक्षित होता है।
(iii) प्रथा – प्रथा सामाजिक नियंत्रण का अनौपचारिक सशक्त अभिकरण है। प्रथा का व्यक्ति पर कठोर नियंत्रण होता है। प्रथाएँ समाज द्वारा मान्यता प्राप्त व्यवहार की विधियाँ हैं। प्रथाओं सामाजिक अनुकूलन में सहायता प्रदान करती हैं, प्रथाओं के पीछे समाज के अनुभवों का लम्बा इतिहास होता है।
(iv) कानून – कानून सामाजिक नियंत्रण का महत्वपूर्ण अभिकरण है। वर्तमान युग में कानून सामाजिक नियंत्रण का प्रमुख आधार है।
(v) नैतिकता – नैतिकता सामाजिक नियंत्रण का अनौपचारिक अभिकरण है। नैतिक नियमों की अवहेलना से समाज को भय होता है। वर्तमान समय में नैतिकता का प्रभाव अधिक है।
(vi) शिक्षा – शिक्षा सामाजिक नियंत्रण का प्रभावशाली अभिकरण है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति में अच्छे गुणों का विकास होता है। वर्तमान समय में शिक्षा का महत्व दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहा है।
(vii) नेतृत्व – नेता का प्रमुख कार्य अपने अनुयायियों को मार्गदर्शन करना है। नेता का चरित्र उसके अनुयायी को प्रभावित करता है।
(viii) प्रचार – वर्तमान युग प्रचार का युग है। प्रचार द्वारा वस्तु विशेष के गुणों पर प्रकाश डाला जाता है।
(ix) जनमत – जनमत भी सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में प्रमुख भूमिका अदा करता है। प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे से संबंधित होते हैं । जनमत व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रित करता है।
प्रश्न 9.
सामाजिक नियंत्रण की संस्थाओं का वर्णन करें। किसी एक संस्था की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण की संस्थाएँ तथा उनके कार्य-सामाजिक संस्थाओं द्वारा व्यक्ति तथा. समूह के व्यवहार को नियंत्रित एवं नियमित किया जाता है। सामाजिक नियंत्रण की विभिन्न संस्थाओं का अध्ययन करने से पहले संस्था का समाजशास्त्रीय अर्थ जान लेना आवश्यक है।
डब्लू. जी. समनर के अनुसार, “एक संस्था एक अवधारणा (विचार, मत, सिद्धांत या स्वार्थ) तथा एक ढाँचे से मिलकर बनती है।” रॉस के अनुसार, “सामाजिक संस्था सामान्य इच्छा से स्थापित या अभिमति प्राप्त संगठित मानव संबंधों का समूह है।” बोगार्डस के अनुसार, “एक सामाजिक संस्था समाज का वह ढाँचा होता है जो मुख्य रूप से सुव्यवस्थित विधियों द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संगठित किया जाता है।”
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक संस्थाएँ व्यक्तियों अथवा समूह की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जनरीतियों तथा रूढ़ियों का समूह है।
संस्थाओं के प्रमुख प्रकार्य निम्नलिखित हैं –
- व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति
- एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संस्कृति का हस्तांतरण
- व्यक्तियों के व्यवहार पर नियंत्रण
- व्यक्तियों के व्यवहार में एकता तथा अनुरूपता उत्पन्न करना
- समाज की समसामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना तथा मार्गदर्शन करना
- संस्थाएँ व्यक्ति तथा समूह के व्यवहारों को सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप ढालती हैं।
सामाजिक नियंत्रण की प्रमुख संस्थाएँ-सामाजिक नियंत्रण की प्रमुख संस्थाएँ निम्नलिखित हैं –
- परिवार
- नातेदारी
- जाति
- धर्म
- राज्य
- आर्थिक संगठन और
- शिक्षा
सामाजिक नियंत्रण की उपरोक्त संस्थाओं में राज्य तथा धर्म की संस्थाएँ संभवतः सर्वाधिक शक्तिशाली हैं। संस्थाएँ अनौपचारिक तथा औपचारिक रूप से सामाजिक नियंत्रण करती हैं। राज्य तथा विद्यालय औपचारिक संस्थाएँ हैं जबकि परिवार, नातेदारी, धर्म आदि अनौपचारिक संस्थाएँ हैं।
संस्थाओं के महत्त्व –
- संस्थाएँ प्रतिस्थापित, प्रतिमानों, मूल्यों तथा अवधारणाओं का अवलंबन करती हैं।
- संस्थाएँ सामाजिक स्वास्थ्य की प्रतीक हैं।
- संस्थाओं के द्वारा विचलन, अलगावाद तथा आपराधिक मनोवृत्तियों पर अंकुश लगाया जाता है।
- संस्थाएँ सामाजिक ढाँचे तथा तान-बाने को बनाए रखती हैं।
- संस्थाओं द्वारा स्थापित प्रतिमान समाज, समूह तथा समुदाय को व्यवस्थित तथा निर्देशित करते हैं।
परिवार सामाजिक नियंत्रण की एक सार्वभौमिक संस्था है। यह समाज की प्राथमिक इकाई है। व्यक्ति परिवार में ही भाषा, व्यवहार, पद्धति तथा सामाजिक प्रतिमानों को ग्रहण करता है।
यद्यपि परिवार का स्वरूप सार्वदेशिक होता है, तथापि इसकी संरचना में व्यापक भिन्नताएँ पायी जाती हैं –
- कृषक समाजों तथा जनजाति समाजों में संयुक्त परिवार पाए जाते हैं।
- औद्योगिक समाजों तथा नगरीय समुदायों में एकाकी परिवार पाए जाते हैं।
परिवार की परिभाषा –
- मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “परिवार वह समूह है जो यौन संबंधों पर आधारित है तथा काफी छोटा एवं स्थायी है वह बच्चों को प्रजनन और पालन-पोषण की व्यवस्था करने योग्य है।”
- आग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, “परिवार, पति-पत्नी, बच्चों सहित या उनके बिना अथवा मनुष्य अथवा स्त्री अकेले या बच्चों सहित कम या अधिक; स्थिर समिति है।”
- जुकरमेन के अनुसार, “एक परिवार समूह, पुरुष स्वामी, उसकी स्त्री या स्त्रियों तथा उनके बच्चों को मिलाकर बनता है। कभी-कभी एक या अधिक अविवाहित पुरुषों को भी सम्मिलित किया जा सकता है।”
दी गई परिभाषाओं के आधार पर परिवार की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –
- सार्वभौमिकता
- भावनात्मक आधार
- सीमित आकार
- सामाजिक संरचना में केन्द्रीय स्थिति
- सदस्यों में उत्तरदायित्व की भावना
- सामाजिक नियमन
- स्थायी तथा अस्थायी प्रकृति
परिवार के कार्य – एक संस्था के रूप में परिवार सामाजिक संगठन की महत्त्वपूर्ण ईकाई है। परिवार के प्रकार्य बहु-आयामी हैं। मैरिल के अनुसार “किसी भी संस्था के विविध कार्य होते हैं। सम्भवतया समस्त संस्थाओं में परिवार अत्यन्त विविध कार्यों वाली संस्था है।”
परिवार के प्रमुख प्रकार्य निम्नलिखित हैं –
(i) डेविस के अनुसार –
- संतानोत्पत्ति
- भरण-पोषण
- स्थान-व्यवस्था
- बच्चों का समाजीकरण
(ii) मरडोक के अनुसार –
- यौनगत
- प्रजननात्मक
- आर्थिक
- शैक्षणिक
(iii) गुडे के अनुसार –
- बच्चों का प्रजनन
- पविार के सदस्यों की सामाजिक सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा
- परिवार के सदस्यों की स्थिति का निर्धारण
- समाजीकरण तथा भावनात्मक समर्थन
- सामाजिक नियंत्रण।
(iv) मेकाइवर ने परिवार के प्रकार्यों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा है –
(a) अनिवार्य प्रकार्य-इसके अनुसार परिवार के निम्नलिखित प्रकार्य हैं –
- यौन आवश्यकताओं की पूर्ति
- प्रजनन तथा पालन-पाषण
- घर की व्यवस्था।
(b) ऐच्छिक प्रकार्य-ऐच्छिक प्रकार्यों में निम्नलिखित प्रकार्य सम्मिलित किए गए हैं –
- धार्मिक प्रकार्य
- शैक्षिक प्रकार्य
- आर्थिक प्रकार्य
- स्वास्थ्य संबंधी प्रकार्य तथा
- मनोरंजन संबंधी प्रकार्य
उपरोक्त समाजशास्त्रियों द्वारा बताए गए परिवार के प्रकार्यों के आधार पर निम्नलिखित प्रकार्य प्रमुख हैं –
- जैविक प्रकार्य
- सामाजिक प्रकार्य
- मनोवैज्ञानिक प्रकार्य
- आर्थिक प्रकार्य
एक संस्था के रूप में परिवार के कार्य व्यापक हैं। आधुनिक युग में नगरीकरण, औद्योगीकरण, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक संस्थाओं के प्रकार्यों में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। अतः आधुनिक परिवार के प्रकार्यों में भी परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
प्रश्न 10.
परिवार के कार्यों की विवेचना करें।
उत्तर:
परिवार समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई है। परिवार में ही व्यक्ति का समाजीकरण होता है और वह एक सामाजिक प्राणी बन जाता है। समाज का अस्तित्व बहुत हद तक परिवार नाम की संस्था पर निर्भर है। प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है। जिसे परिवार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित एवं प्रवाहित करता है। परिवार का सार्वभौमिक संस्था के रूप में प्रत्येक समाज में पाया जाता है और परिवार एक संस्था के साथ-साथ समिति भी है। परिवार में प्रेम, सेवा, कर्त्तव्य, सहयोग एवं सहानुभूति की भावना पायी जाती है। परिवार अंग्रेजी शब्द ‘Family’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Famules’ शब्द से हुई है, जिसके अन्तर्गत माता-पिता, बच्चे नौकर और गुलाम सम्मिलित हैं।
परिवार एक अनोखा संगठन है जिनकी पूर्ति अन्य संगठन, संस्था या समिति द्वारा नहीं हो सकती। परिवार के विभिन्न कार्यों के माध्यम से ही मानव आज सभ्यता के उच्च शिखर पर पहुँच गया है। परिवार के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –
- जैविकीय कार्य
- शारीरिक सुरक्षा संबंधी कार्य
- आर्थिक एवं सामाजिक कार्य
- सांस्कृतिक कार्य और
- मनोवैज्ञानिक कार्य
1. जैविक कार्य – इस कार्य के अन्तर्गत परिवार यौन संबंधों की पूर्ति करता है साथ ही मानव अपनी प्रजातीय तत्त्वों की निरंतरता को बनाये रखता है।
शारीरिक सुरक्षा संबंधी कार्य-इस कार्य के अन्तर्गत बूढ़े, असहाय, अनाथ, विधवा तथा रोगी सदस्यों को शारीरिक सुरक्षा मिलती है।
(iii) आर्थिक कार्य-परिवार एक आर्थिक इकाई है। आर्थिक क्षेत्र में भी परिवार के द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित होते हैं। उत्पादन का कार्य परिवार द्वारा होता है। परिवार अपने सदस्यों के मध्य श्रम विभाजन का कार्य करता है। सम्पत्ति का निर्धारण परिवार द्वारा होता है।
(iv) सामाजिक कार्य-परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाजीकरण की प्रक्रिया परिवार से ही आरंभ होती है। प्रत्येक समाज के अपने नियम और तरीके होते हैं। सामाजिक कार्य के माध्यम से परिवार समाज पर नियंत्रण रखता है। परिवार समाज को अनुशासन की शिक्षा प्रदान करता है।
(v) सांस्कृतिक कार्य-संस्कृति तत्वों को परिवार के माध्यम से हस्तांतरित करती है । परिवार अपने सदस्यों को सांस्कृतिक विशेषताओं को सिखाने का प्रयत्न करता है।
(vi) वैज्ञानिक कार्य-इस कार्य के अन्तर्गत सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानसिक सुरक्षा तथा संतोष प्रदान करना है। अतः उपर्युक्त परिवार के कार्य हैं जो स्वाभाविक रूप से परिवार द्वारा सम्पादित किये जाते हैं।
प्रश्न 11.
समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दार्थ से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषता पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में वह जन्म लेता और समाज में ही उसका भरण-पोषण होता है। व्यक्ति समाज से जो कुछ भी सीखता है या अर्जित करता है। उसकी संस्कृति कहलाती है। संस्कृति के अनुरूप ही व्यक्ति अपने आप को ढालने की कोशिश करता है। समाज में अच्छे-बुरे हर प्रकार के लोग निवास करते हैं। बुरे व्यवहारों पर समाज द्वारा जो रोक लगाया जाता है उसे सामाजिक नियंत्रण कहा जाता है।
“दबाव प्रतिमान है जिसके द्वारा समाज में व्यवस्था कायम रखी जाती है तथा स्थापित नियमों को बनाये रखने हेतु जो प्रस्तुत किया जाता है सामाजिक नियंत्रण कहलाता है। “सामाजिक नियंत्रण का अर्थ उस तरीक से है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में एकता एवं स्थायित्व बना रहता है तथा जिसके द्वारा सम्पूर्ण व्यवस्था एक परिवर्तनशील संतुलन के रूप में क्रियाशील रहती है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक नियंत्रण एक विधि है, जिसके द्वारा व्यक्तियों के सामाजिक आदर्शों एवं मूल्यों का पालन कराया जाता है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
प्राथमिक समूह की अवधारणा सर्वप्रथम किस समाजशास्त्री ने दिया?
(a) ऑगबर्न एवं निमकॉफ
(b) डेविस
(c) समनर
(d) कूर्ल
उत्तर:
(b) डेविस
प्रश्न 2.
सामाजिक नियंत्रण का अर्थ उस तरीके से है जिसके द्वारा सम्पूर्ण व्यवसायी एक परिवर्तन संतुलन के रूप में क्रियाशील रहती है?
(a) प्लेटो
(b) रॉस
(c) काम्टे
(d) मेकाइवर
उत्तर:
(b) रॉस
प्रश्न 3.
किस विज्ञान का कहना है? सामाजिक परिवर्तनों से तात्पर्य उन परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना एवं प्रकार्यों में उत्पन्न होते हैं ………………..
(a) फिक्टर
(b) मेकाइवर
(c) किंग्सले डेविस
(d) जिन्सवर्ग
उत्तर:
(c) किंग्सले डेविस
प्रश्न 4.
सामाजिक नियंत्रण हो सकता है …………………..
(a) सकारात्मक केवल
(b) सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों
(c) केवल नकारात्मक
(d) उपर्युक्त कोई नहीं
उत्तर:
(b) सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों
प्रश्न 5.
नागरिकता के अधिकारों में शामिल है …………………..
(a) सामाजिक
(b) राजनैतिक
(c) नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक
(d) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 6.
सामाजिक समूह की एक विशेषता है ……………………..
(a) निरंतरता हेतु दीर्घ अत:क्रिया
(b) लघुस्थायी अन्तःक्रिया
(c) लघु अंतःक्रिया
(d) निरंतरता हेतु अस्थायी क्रिया
उत्तर:
(a) निरंतरता हेतु दीर्घ अत:क्रिया
प्रश्न 7.
प्रत्यक्ष सहयोग पाया जाता है।
(a) प्राथमिक समूहों में
(b) द्वितीयक समूहों में
(c) संदर्भ समूहों में
(d) भीड़ में
उत्तर:
(a) प्राथमिक समूहों में
प्रश्न 8.
गिलिन एवं गिलिन के अनुसार भीड़ एवं श्रोता समूह किस प्रकार के समूह हैं?
(a) संस्कृतिक समूह
(b) अस्थायी समूह
(c) प्राथमिक समूह
(d) संदर्भ समूह
उत्तर:
(d) संदर्भ समूह
प्रश्न 9.
किसने कहा है? जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक-दूसरे से मिलते हैं और एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तो एक समूह का निर्माण करते हैं।
(a) मेकाइवर
(b) ऑगबर्न एवं निमकॉफ
(c) फिक्टर
(d) वीयर स्टीड
उत्तर:
(b) ऑगबर्न एवं निमकॉफ