Bihar Board Class 12th Hindi Book Solutions
Bihar Board Class 12th Hindi व्याकरण संक्षेपण
- संक्षेपीकरण प्रारम्भ करने से पहले यह आवश्यक है कि परीक्षार्थी पहले अत्यन्त सावधान होकर मूल अवतरण को दो – तीन बार पढ़े ताकि उसका मूल भाव उसकी समझ में आ जाए।
- अवतरण पढ़ते समय आवश्यक बातों को परीक्षार्थी रेखांकित करते चले और जब अवतरण का सारा अंश उनकी समझ में आ जाए तो पहले उसका एक रफ तैयार कर लेना चाहिए। सम्भव है कि रफ में अधिक शब्दों का प्रयोग हुआ हो तथा भाषा प्रभावपूर्ण न हो।
- अतएव उस रफ का संशोधन करना चाहिए तथा भाषा को प्रभावपूर्ण बनाने का प्रयत्न भी आवश्यक है। जब अंतिम रूप से संक्षेपण तैयार हो जाए तो प्रारंभिक रूप को काट देना चाहिए।
- अंतिम रूप तैयार हो जाने के उपरान्त एक “शीर्षक” देना चाहिए। संक्षेपीकरण का शीर्षक आकर्षक ढंग का होना चाहिए ताकि उसे पढ़कर ही संक्षेपीकरण के मूल भाव की झाँकी मिल जाए। शीर्षक अवतरण का प्रतिनिधित्व करता है।
- शीर्षक लम्बा न हो, इसके लिए बहुत थोड़े शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
- संक्षेपीकरण के लिए अपनी ओर से कुछ भी बढ़ाना अनुचित है। इसमें व्यक्तिगत टीका – टिप्पणी करने की भी आवश्यकता नहीं।
- संक्षेपीकरण में स्पष्टता आवश्यक है। सरल शब्दों के प्रयोग से कही जाने वाली बात स्पष्ट रूप में उल्लिखित हो।
- संक्षेपण के एक – से – अधिक दो या तीन शीर्षक भी हो सकते हैं परन्तु जो सबसे उपयुक्त लगे उसे ही लिखना चाहिए।
- संक्षेपण का एक – तिहाई ही लिखना चाहिए। अधिक शब्दों में लिखने से अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। आगे कुछ संक्षेपण के उदाहरण दिए जा रहे हैं।
उदाहरण – 1
आज चारों ओर ह्रास दिखायी पड़ रहा है। चरित्र में भी ह्रास होता जा रहा है। किन्तु अगर हम सब मिलकर सोचें और इस दिशा में तन – मन से लग जाएँ तो चरित्र की निरंतर नीचे लुढ़कती जा रही गाड़ी के हम स्वयं कुशल चालक बन जा सकते हैं और चरित्र रूपी यान को लुढ़कने से बचाकर उसे सही दिशा में अग्रसर कर दे सकते हैं। किन्तु इसके लिए पहले हमें चरित्रवान बनना होगा और मौन व्रतधारी की तरह इस दिशा में बढ़ना होगा, दीपक की तरह तिल – तिल करके अपने प्राणों की आहुति देनी होगी।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 96)
शीर्षक : चरित्र का महत्त्व
मानव अपने चरित्र का निर्माता स्वयं होता है। चरित्र – भ्रष्ट व्यक्ति चतुर्दिक ह्रास का कारण बनता है। अतः हम सभी को चरित्रवान बनने से ही चहुँमुखी विकास संभव हो सकेगी।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 28)
उदाहरण – 2
अवकाश मनुष्य को यांत्रिक दिनचर्या के कारागार से निकालकर उन्मुक्त वायु में विचलित करा देने वाला दैवीय वरदान है। यह ऐसा श्यामल मेघ है जो हमारे परितृषित परिशुष्क जीवन को रसमय बना देता है। अवकाश ऐसा अश्ववत्थ तरु है जिसकी छतनार उलियों पर मन की बुलबुल चहकती है। यह ऐसा सांध्य नीलगगन है जिसमें मनुष्य कल्पना से रंगीन डैने फड़फड़ाता अवनि और अंबर को एक डोर में बाँधता रहता है। अतः जीवन में ईश्वर की खोज जितनी आवश्यक है, उतनी ही व्यस्त जीवन में अवकाश की खोज।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 99)
शीर्षक : अवकाश का महत्त्व
मानव – जीवन में कार्यव्यवस्थाओं से राहत के लिए अवकाश सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। दैवी वरदान के रूप में इससे जहाँ उन्मुक्तता प्राप्त होती है वहीं शुष्कता दूर कर कल्पनालोक की सैर भी करता है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 33)
उदाहरण – 3
भारत में अतिथि सत्कार की एक अद्भूत और गौरवमयी परम्परा रही है। इतिहास साक्षी रहा है कि अतिथि प्राण से भी प्यारे होते हैं। ‘साधु न भूखा जाय’ यहाँ का गृह – सत्कार मंत्र रहा है। गृहस्वामिनी द्वार पर आए अतिथि को अपना पेट काटकर भी खिलाती है। उसके हृदय की विशालता और उदारता भारत की धरोहर है। अतिथियों को यहाँ देवता माना गया है। ‘अतिथि देवो भव’ यहाँ की जीवन मंत्र है। अतिथियों की जूठन के कण गृहस्वामी और गृहस्वामिनी के लिए गंगा के पवित्र जलकण हैं और उसके चरणों की धूलि मस्तिष्क पर धारण करने के पवित्र रजकण है। भारत का गाँव – गाँव, झोपड़ी – झोपड़ी और झोपड़ी में निवास करने वाले जन – जन इस आत्मीय भाव से भरे पूरे हैं। वे इस परम्परा की अवहेलना नहीं करते हैं, भूखे रहकर भी अपने अतिथि को संतुष्ट करते हैं। भारतीय चरित्र की विशालता और उदारता विश्व में अकेली परम्परा है।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 146)
शीर्षक : अतिथि सत्कार
अतिथि सत्कार हमारे पूर्वजों का अनन्य देन है। भारतीय इतिहास इस बात की साक्षी पेश करता है कि अतिथि सत्कार की बलिवेदी पर कइयों ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया है। अतिथि को देवता मानकर भारतीय गृहस्वामी और गृहस्वामिनी उनके जूठन खाकर और उनके चरण – रज को अपने माथे पर लगाकर अपने जीवन को कृतार्थ करते हैं। अतिथि सत्कार सामाजिक जीवन की अनमोल साँस है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 65)
उदाहरण – 4
सुधारवादी तत्त्वों की स्थिति और भी उपहासास्पद है। धर्म, अध्यात्म, समाज एवं राजनीतिक क्षेत्रों में सुधार एवं उत्थान के नारे जोर – शोर से लगाए जाते हैं। पर उन क्षेत्रों में जो हो रहा है, जो लोग कर रहे हैं, उसमें कथनी और करनी के बीच जमीन – आसमान जैसा अंतर दिखाई पड़ता है। ऐसी दशा में उज्जवल भविष्य की आशा धूमिल होती जा रही है। क्या हम सब ऐसे ही समय की प्रतीक्षा में, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे, अपने को असहाय और असमर्थ अनुभव करते रहते तथा स्थिति बदलने के लिए. किसी दूसरे पर आशा लगाए बैठे रहें? मानवी पुरुषार्थ कहता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए। उसके लिए सतत् प्रयास करना चाहिए। तभी उज्ज्वल भविष्य को उजागर कर सकते हैं और फिर से नयी दुनिया संवार सकते हैं। यह धरती पर अवतरित मानव की कामना होनी चाहिए।
मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 126)
शीर्षक : कथनी और करनी
आज राजनीतिक नेताओं की वाणी में माधुर्य है, भावना में जनकल्याण की कामना, वेश में साधुता पर हृदय में लोलुपता और स्वार्थ। भोली – भाली जनता उनकी कुटिलता की जाल में फंसकर प्रतिकार नहीं करते। जबतक जनता प्रतिकार नहीं करते। जबतक जनता प्रतिकार नहीं करेगी तबतक जनकल्याण की आशा व्यर्थ है।।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 43)
उदाहरण – 5
वसन्त ऋतु के आते ही शीत की कठोरता जाती रही। पश्चिम के पवन ने वृक्षों के जीर्ण – शीर्ण पत्ते गिरा दिए। वृक्षों और लताओं में नये पत्ते और रंग – बिरंगे फूल निकल आए। उनकी सुगन्ध से दिशाएँ गमक उठीं। सुनहले बालों से युक्त गेहूँ के पौधे खेतों में, हवा से झूमने लगे। ऐसा मानो प्रकृति में सर्वत्र नवजीवन का संचार हो उठा।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 75)
शीर्षक : वसंत।
वृक्षों में लगे नवपल्लव और रंग – बिरंगे फूल तथा हवा में विहार करते गेहूँ के पौधे वसंतागमन . के सूचक हैं जिससे प्रकृति में नवजीवन संचारित हुआ है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 25)
उदाहरण – 6
ताला सज्जनों और साधुजनों के लिए लगाया जाता है, चोरों और डाकुओं के लिए नहीं। ताला देखकर सज्जन समझ जाते हैं कि गृहस्वामी नहीं है ओर वे उल्टे पाँव लौट जाते हैं। किन्तु चारों के लिए तो वह स्निग्ध निमंत्रण है।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 51)
शीर्षक : ताला
ताला सज्जनों के लिए होता है चोर – डाकुओं के लिए नहीं, इन्हें तो वह निमंत्रण देता है।।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 17)
उदाहरण – 7
हम स्वर्ग की बात क्यों करें? हम वृक्षारोपन करके यहाँ ही स्वर्ग क्यों न बनाएँ? समस्त इतिहास में महान् सम्राट अशोक ने कहा है “रास्ते पर मैंने वट – वृक्ष रोप दिये हैं, जिनसे मानव – पशुओं को छाया मिल सकती है। आम्र – वृक्षों के समूह भी लगा दिए हैं।”
आज प्रभुत्व – सम्पन्न भारत ने इस महाराजर्षि के राजचिह्न के लिए हैं। 23 सौ वर्ष पूर्व उन्होंने देश में जैसी एकता स्थापित की थी, वैसी ही हमने भी प्राप्ति कर ली है। क्या हम उनके इस सन्देश को सुन नहीं सकेंगे? हम इस सन्देश को सुनकर निश्चय ही ऐसा प्रबंध करेंगे जिससे भारत के सभी प्रजाजन कह सकें कि हमने जो रास्ते पर वृक्ष लगाए थे, वे मानवों और पशुओं को छाया देते हैं।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 120)
शीर्षक : वृक्षारोपण का महत्व
सम्राट अशोक ने मानव पशुओं के हित में सड़कों पर वृक्ष लगा कर भूमि को स्वर्ग बनाया। उन्होंने देश में एकता स्थापित की थी। वर्तमान सरकार ने उन्हीं के सन्देश के आधार पर देश में एकता स्थापित की है और वृक्षारोपण किये हैं।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 40)
उदाहरण – 8
अकबर विद्वान न था पर रसिक अवश्य था। हिन्दी कवियों का वह बड़ा आदर करता और स्वयं कविता करता था। वह विद्या – प्रेमी भी था और उसने भिन्न भिन्न भाषाओं की पुस्तकों का संग्रह कर एक बड़ा पुस्तकालय स्थापित किया था। वह अच्छी – अच्छी पुस्तकों का अनुवाद भी करता था। उसके ऐश्वर्यपूर्ण राजत्वकाल में फारसी, संस्कृत, उर्दू और हिन्दी का पठन – पाठन जोरों से चलता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों साहित्य से प्रेम रखते थे और कविता करते थे। उस समय के हिन्दू – मुसलमानों की एकता प्रशंसनीय थी, कारण कि दोनों को साहित्य का परस्पर ज्ञान और सहानुभूति थी। साथ ही सत्कवियों का आदर भी था। जब बादशाह इन लोगों को . मानता ब उसके दरबार के अमीर – अमराव भी अपनी शक्ति के अनुसार मान में कमी नहीं करते थे।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 124)
शीर्षक : अकबर की विद्या – प्रेम
अकबर विद्वान न था, पर विद्या – प्रेमी था। उसके दरबार में सत्कवियों का आदर होता था। वह कवि और अनुवादक था। उसके पुस्तकालय में विभिन्न भाषाओं की पुस्तकें थी। हिन्दू – मुसलमान हिले – मिले रहते और परस्पर एक – दूसरे से प्रेम रखते थे।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 40)
उदाहरण – 9
विश्वविद्यालय की शिक्षा किसी को कवि बनाने में शायद ही कभी सफल सिद्ध हुई हो। रवीन्द्र इसको अपना सौभाग्य समझते थे कि वे स्कूल और कालेज की नियमबद्ध शिक्षा से मुक्त रह सके। पंतजी को जब स्वतन्त्रता मिली, समय मिला, शान्ति मिली और अपने जीवन के सबसे अधिक भावप्रवण काल में जो भावनाएँ और कल्पनाएँ अल्मोड़ा की सुन्दर पहाड़ियों और घाटियों में उन्होंने संयोजी थी और जो वर्षों से उनकी स्मृति में सुप्त पड़ी थी जब वे फिर से सजग होने लगी। इसकी परिणति ‘पल्लव’ में हुई।
इसके पूर्व हिन्दी कवियों की कोई पुस्तक इतने ठाट – बाट के साथ प्रकाशित नहीं हुई थी। एक से अधिक अर्थों में पल्लव युग – प्रवर्तक रचना थी।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 124)
शीर्षक : पन्त और पल्लव विश्वविद्यालय की शिक्षा पाकर कोई कवि नहीं हो जाता, स्वतन्त्र वातावरण में इसका विकास होता है। अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा ने पन्त को संवेदनशील बना दिया था, जो उन्मुक्त वातावरण पाकर “पल्लव” के रूप में परिणत हुआ। यह एक युगान्तकारी रचना है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 41)
उदाहरण – 10
जब भक्त कवि भगवान को शिशु रूप देते हैं तो वे सर्वथा शिशु हो उठते हैं। जैसे सूर . के बाल श्री कृष्ण और संसार के किसी दूसरे व्यक्ति के बच्चे की चेष्टाओं में कोई अंतर नहीं।
जब सूर भगवान का प्रणयी रूप में चित्रण करते तब वे (कृष्ण) हमारे सामने हाड़ – मांस के प्राणी बन उठते हैं। उनमें कोई अपार्थिकता नहीं रह जाती। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास को बार – बार रामचरितमानस में याद दिलानी पड़ी कि राम दशरथ के पुत्र होते हुए भी परब्रह्म ही हैं, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि राम की पार्थिव लीलाओं के वर्णन में उनका सच्चिदानन्द रूप और ब्रह्मत्व तिरोहित न हो जाय। अत: वास्तविकता यह है कि भक्ति – भाव भगवान को मनुष्य के निकट नहीं लाता, भगवान को मनुष्य बनाकर उनकी सृष्टि कर देता है।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 130)
शीषक : भक्ति – काव्य
भक्त कवियों ने मानवीय रूप देकर कृष्ण और राम के लौकिक रूप का वर्णन किया है जिसमें अलौकिकता का भ्रम नहीं होता। यही कारण है कि तुलसीदास को राम के ब्रह्मत्व की याद दिलानी पड़ती है। अतः भक्ति काव्य भगवान को मनुष्य बनाकर सृष्टि करता है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 44)
उदाहरण – 11
राष्ट्रीय जागृति तभी ताकत पाती है, तभी कारगर होती है, तब उसके पीछे संस्कृति की जागृति हो और यह तो आप जानते ही हैं कि किसी भी संस्कृति की जान उसके साहित्य में, यानि उसकी भाषा में है। इसी बात को हम यों कह सकते हैं कि बिना संस्कृत के राष्ट्र नहीं और बिना भाषा . के संस्कृति नहीं। कुछ लोग ऐसा समझ सकते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा के लिए नियम ही ज्यादा बनाए, उसे बाँधा था, उसमें जान नहीं फूंकी, इसलिए बड़ी बात नहीं की। लेकिन ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि बिगुल बजाकर सिपाही को जगाने और जोश दिखाने वाले का नाम जितना महत्व का है, कम – से – कम उतना ही महत्व उस आदमी का भी है जो सिपाही को ठीक ढंग से वर्दी पहनाकर और कदम मिलाकर चलने की तमीज सिखाता है। संस्कृति की चेतना को जगाने के काम में तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की क्या कोई बराबरी करेगा, लेकिन उसे संगठित करने के काम में महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्थान किसी से दूसरा नहीं है।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 168)
शीर्षक : संस्कृति और भाषा
राष्ट्रीय जागृति संस्कृति पर निर्भर करती है और संस्कृति भाषा और साहित्य के विकास पर। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा में अनुशासन लाकर साहित्य में नयी जान फूंक दी। जिस प्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर संस्कृति की चेतना को जगाने में अकेले थे, उसी प्रकार संस्कृति को संगठित करने में द्विवेदी जी का स्थान किसी में कम नहीं है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 56)
उदाहरण – 12
धरती का कायाकल्प, यही देहात की सबसे बड़ी समस्या है। आज धरती रूठ गई है। किसान धरती में मरता है पर धरती से उपज नहीं होती। बीज के दाने तक कहीं – कही धरती पचा जाती है। धरती से अन्न की इच्छा रखते हुए गाँव के किसानों ने परती – जंगल जीत डाले, बंजर तोड़ते – तोड़ते किसानों के दल थक गए पर धरती न पसीजी और किसानों की दरिद्रता बढ़ती चली गई। ‘अधिक अन्न उपजाओं’ का सूग्गा – पाठ किसान सुनता है। वह समझता है अधिक धरती जोत में लानी चाहिए। उसने बाग – बगीचे में पेड़ काट डाले, खेतों को बढ़ाया पर धरती ने अधिक अन्न नहीं उपजाया। अधिक धरती के लिए अधिक पानी चाहिए, अधिक खाद चाहिए। धरती रूठी है, उसे मनाना होगा, किसी रीति से उसे भरना होगा।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 128)
शीर्षक : धरती की समस्या
धरती का कायाकल्प देहात की बड़ी समस्या है। अधिक अन्न उपजाने के लिए किसानों के दल बंजर – परती और बाग – बगीचे जोतते – जोतते थक गये, लेकिन अधिक अन्न नहीं उपजा। इसके लिए अधिक पानी और खाद चाहिए। इसी से रूठी धरती मान सकेगी।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 42)
उदाहरण – 13
किसी देश की संस्कृति जानने के लिए वहाँ के साहित्य का पूरा अध्ययन नितांत आवश्यक है। साहित्य किसी देश तथा जाति के विकास का चिह्न है। साहित्य से उस जाति के धार्मिक विचारों, सामाजिक संगठन, ऐतिहासिक घटनाचक्र तथा राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब मिल जाता है। भारतीय संस्कृति के मूल आधार हमारे साहित्य के अमूल्य ग्रन्थ – रत्न हैं, जिसके विचारों से भारत की आंतरिक एकता का ज्ञान हो जाता है। हमारे देश की बाहरी विविधता भारतीय वाङ्गमय के रूप में बहनेवाली विचार और संस्कृति की एकता को ढंक लेती है। वाङ्गमय की आत्मा एक है, पर अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में हमारे सामने आती है।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 104)
शीर्षक : साहित्य से संस्कृति का ज्ञान
देश या जाति की संस्कृति, धर्म, समाज, इतिहास और राजनीति के प्रतिबिम्ब स्वरूप साहित्य में होती है। भारतीय संस्कृति का मूलाधार विविधता में एकता है जो अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में भी एकात्म है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 35)
उदाहरण – 14
राजनीतिक दाव – पेंच के इस युग से चुनाव को व्यवसाय बना दिया गया है। चुनाव में मतदाताओं को ठगने एवं उनको मायाजाल में फंसाने के लिए रंग – बिरंगे वायदे किए जाते हैं। गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, सड़क बनवाने, स्कूल खुलवाने, नौकरी दिलवाने आदि अनेक प्रकार के वायदे चुनाव के समय किए जाते हैं। गरीबी और बेरोजगारी को हटाने के लिए उद्योगों की स्थापना करनी होगी, नयी परियोजनाओं का संचालन करना होगा। शिक्षा को रोजगार से जोड़ना होगा, न कि केवल चुनावी वायदों का वाग्जाल फैलाकर मतदाता को फंसाकर रखने से गरीबी और बेरोजगारी हटेगी। चुनावी वायदों की रंगीन परिकल्पनाओं से मतदाता की आस्था धीरे – धीरे समाप्त होने लगेगी।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 108)
शीर्षक : चुनावी वायदों के कोरे वाग्जाल
आजकल चुनावी व्यवसाय में उम्मीदवार मतदाताओं को गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, स्कूल खुलवाने जैसे – अनेक रंगीन वादों से ठगते हैं। परन्तु बेरोजगारी और गरीबी उद्योगों की स्थापना से मिटेगी, न कि नकली वाग्जाल से। अन्यथा हससे हमारी आस्था समाप्त हो जाएगी।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 38)
उदाहरण – 15
भारत के लिए लोक अदालत कोई अपरिचित नाम नहीं है। यहाँ पंचों के माध्यम से विवाद के निपटारे की व्यवस्था अत्यन्त प्राचीन है। यह हमारी संस्कृति का पहचान चिह्न है, जिसे विश्व के समृद्ध से समृद्ध राष्ट्र हमारी गौरव – निधि मानते हैं। यही पहले जब न्याय पंचायतें नहीं थी गाँव के चौपाल पर अपने विवादों का निपटारा किया करते थे। विक्रमादित्य का सिंहासन पहाड़ी टीले के नीचे दबा हुआ था, उस पहाड़ी टीले पर बैठकर जो भी न्याय करता था वह नीर क्षीर – विवेक का प्रतीक होता था।
जहाँगीर घंटे की आवाज पर जानवरों को भी न्याय प्रदान करता था। उसी क्रम में यहाँ पर धीरे – धीरे अदालती – प्रथा प्रारंभ हुई। अदालती प्रथा ने देश में विधि। शासन व्यवस्था की स्थापना अवश्य की, लेकिन यह औपचारिकताओं में इतनी जकड़ गयी कि लोग वर्षों तक न्याय के लिए तरसने लगे। न्याय उनके लिए मृगतृष्णा बन गया। न्यायालयों के प्रति आम आदमी की आस्था डगमगाने लगी, ऐसे में लोग अदालतों का प्रचलन डूबते के लिए तिनका साबित हुआ।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 174)
शीर्षक : लोक अदालतों का महत्त्व
भारत में लोक अदालतों की व्यवस्था अत्यंत प्राचीन है। गाँव के चौपालों में आपसी विवादों का निपटारा उत्तम ढंग से होता था। विक्रमादित्य और जहाँगीर का इन्साफ आज भी प्रसिद्ध है। दुर्भाग्य से अदालतों के विकास से इसे धक्का लगा है। लोगों को वर्षों तक औपचारिकताओं के चक्कर में न्याय नहीं मिल पाता। अतः आज भी जनास्था के लिए लोक अदालतों का प्रचलन कल्याणकारी होगा।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 60)
उदाहरण – 16
लेखक का काम बहुत अंशों में मधुमक्खियों के काम से मिलता – जुलता है। मधुमक्खियाँ मकरंद संग्रह के लिए कोसों चक्कर लगाती हैं और अच्छे – अच्छे फूलों पर बैठकर उनका रस लेती हैं। तभी तो उनके मधु में संसार की श्रेष्ठ मधुरता रहती है। यदि आप अच्छा लेखक बनना चाहें तो आपको यही प्रवृति ग्रहण करनी चाहिए। अच्छे – अच्छे ग्रन्थों का खूब अध्ययन कीजिए और उनकी बातों पर मनन कीजिए। फिर आपकी भी रचनाओं में मधु – सा माधुर्य आने लगेगा। कोई अच्छी उक्ति, कोई अच्छा विचार – भले ही दूसरों से ग्रहण किया गया हो, पर यदि यथेष्ट मनन कर उसे अपनी रचना में स्थान देंगे तो वह आपका हो जाएगा।
(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 106)
शीर्षक : लेखक का कर्तव्य
लेखक का कार्य मधुमक्खियों के समान है, जिस प्रकार मधुमक्खियाँ कोसों चक्कर लगाकर अच्छे – अच्छे फूलों पर बैठकर अपने “मधु” से संसार को श्रेष्ठ मधुरता प्रदान करती हैं, उसी प्रकार लेखक भिन्न – भिन्न प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन एवं चिन्तन कर अपनी रचना को सर्वश्रेष्ठ बनाता है।
(संक्षेपित शब्द – संख्या – 48)