Bihar Board Class 9 Hindi अपठित गद्यांश

Bihar Board Class 9 Hindi Book Solutions Bihar Board Class 9 Hindi अपठित गद्यांश Questions and Answers, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Hindi अपठित गद्यांश

Bihar Board Class 9 Hindi अपठित गद्यांश Questions and Answers

 

साहित्यिक गद्यांश [12 अंक]

1. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी।

महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था।

श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिन्दगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।

जिन्दगी की दो सरतें हैं। एक तो यह कि आदमी बड़े से बडे मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली का जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पाँव न हटाए।

दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए जो न तो बहत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहत अधिक दुख पाने का ही संयोग है, याकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती हैं जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है। इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे जिन्दगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी जिन्दगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनन्द नहीं है?

अगर रास्ता आगे ही आगे निकल रहा हो तो फिर असली मज़ा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है।

साहस की जिन्दगी सबसे बडी जिन्दगी होती है। ऐसी जिन्दगी की सबसे बडी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोंग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।

साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।

साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। झुंड में चलना और झुंड में चरना, यह भैंस और भेड़ का काम है। सिंह तो बिल्कुल अकेला होने पर भी मग्न रहता है।

प्रश्न
1. इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
2. लेखक के अनुसार, पांडवों की जीत क्यों हुई?
3. ‘गोधूलि’ जीवन की किस स्थिति का प्रतीक है?
4. बँधे घाट का पानी पीने का अर्थ बताइए।
5. जिन्दगी के साथ जुआ खेलने का क्या आशय है?
6. दुनिया की असली ताकत किस मनुष्य को कहा गया है?
7. क्रांतिकारियों के क्या लक्षण हैं?
8. साधारण जीव कैसा जीवन जीते हैं?
9. ‘साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
10. भैंस और भेड़ कैसे जनों के प्रतीक हैं?
11. “हिम्मत’ के लिए किस पर्यायवाची शब्द का प्रयोग हुआ है?
12. ‘भाग खड़े होना’ का विलोम लिखिए।
उत्तर
(1) शीर्षक : “संकट तथा साहस”
(2) पांडवों की जीत इसलिए हुई क्योंकि उन्होनें लाक्षागृह का कष्ट झेला था और बनवास के खतरा को पार करने में सफल हुए थे।
(3) गोधूलि जीवन की उस स्थिति का प्रतीक है जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है।
(4) व्यक्ति द्वारा अपनी गतिविधियों को एक संकुचित क्षेत्र तक बाँध (सीमित) लेने का अर्थ बँधे घाट का पानी पीना है।
(5) बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, सफलता-असफलता की परवाह किए बिना अपनी जिन्दगी को दाँव पर लगा देने का अर्थ जिन्दगी के साथ जुआ खेलना है।
(6) जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला व्यक्ति दुनिया की असली ताकत होता है।
(7) क्रांतिकारी अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम करते हैं, यही उनका लक्षण होता है।
(8) साधारण जीव सुखी जीवन नहीं जी सकता। उसका जीवन कष्टमय एवं निराशापूर्ण होता है।
(9) अपने विचारों में मग्न जो व्यक्ति अकेले ही अपनी मंजिल तय करता है तथा झुंड में भेड़ों की तरह नहीं चलता, ऐसे मनुष्य से ही तात्पर्य है, “साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता।”
(10) भैंस और भेड़ ऐसे लोगों के प्रतीक हैं जो स्व-विवेक से काम नहीं लेते एवं दूसरे लोगों की नकल करते हैं वे उनके पीछे झुंड लगाकर चलते हैं।
(11) “साहंस”
(12) निडर होना, बेखौफ होना।

2. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

वर्ष 1956 की बात है डॉ. हरिवंश राय बच्चन अब तक हिंदी के कवियों में सबसे अगली पंक्ति में आ खड़े हुए थे। वे यह ठान बैठे कि वे प्रयाग विश्वविद्यालय के अंग्रेजी प्रोफेसर का गरिमा-भरा पद छोड़कर दिल्ली चले जाएँगे-विदेश मंत्रालय में अंडर सेक्रेटरी का नाचीज़ पद सँभालने। इलाहाबाद प्रतिभा-पूर्ण शहर है, लेकिन प्रतिभाओं को समुचित आदर देने में कुछ-कुछ कृपण। “कुछ-कुछ नहीं बहुत कृपण”। बच्चन जी ने मेरी भाषा सुधारते हुए मुझसे कहा था। वर्ष 1984 और बच्चन जी उन दिनों ‘दशद्वार से सोपान तक’ पुस्तक पर काम कर रहे थे। उन्होंने कहा भी है कि किस तरह उनके विरुद्ध बहुत कुछ कहा ही नहीं गया, लिखा भी गया और छापे में भी आया। उनकी ‘मधुशाला’ पर ‘अभ्युदय’ पत्रिका में लेख छपा, जिसमें बच्चन के हिन्दी के उमर खैयाम बनने के स्वप्न पर कटु व्यंग्य करते हुए लेख का शीर्षक दिया गया था- ‘घूरन के लता कनातन से ब्योत बाँधे’ (घुरे की हिंदी चली है कनात से अपनी गाँठ बाँधने)। ‘मधुशाला’ तो पाठकों की सच्ची सराहना पाकर साहित्य के सर्वोच्च सोपान पर जा बैठी और अभ्युदय का लेख रह गया वहीं घूरे पर पड़ा हुआ।

बच्चन जी ने बहुत कष्ट देखे थे। बहुत संघर्ष किया था और महाकवि निराला की ही तरह आँसुओं को भीतर ही भीतर पीकर उनकी ऊर्जा और सौंदर्य में अपनी कविता को सोना बनाया था। स्पष्ट है इस कष्टसाध्य प्रक्रिया से वही कलाकार गुजर सकता है जिसके भीतर दुर्घर्ष जिजीविषा हो। दिल्ली आकर विदेश मंत्रालय में बड़े अधिकारी के ठंडे और हिंदी-विरोधी तेवरों ने उन्हें खिन्न तो किया, लेकिन बच्चन जी ने फिर कविता का आश्रय लिया। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है ‘भला-बुरा जो भी मेरे सामने आया है, उसके लिए मैंने अपने को ही उत्तरदायी समझा है। गीता पढ़ते हुए मैं दो जगहों पर रुका। एक तो जब भगवान अर्जुन से कहते है- अर्जुन, आत्मवान बनो अर्थात् अपने सहज रूप से विकसित गुण-स्वभाव-व्यक्तित्व पर टिको। दूसरी जगह जब वे कहते हैं कि गुण स्वभाव-प्रकृति को मत छोड़ो। बच्चन जी, तुम भी आत्मवान बनो। बच्चन द्वारा उमर खैयाम की मधुशाला का अनुवाद एक बड़े कवि द्वारा दूसरे बड़े कवि की कविता की आत्मा से साक्षात्कार करना और अपने साहित्यिक व्यक्तित्व के अनुसार उसे अपनी भाषा में अपनी तरह से अभिव्यक्त करना है।

हर बड़ा साहित्यकार साहित्य और विशेषकर शब्द की गरिमा और मर्यादा पर लड़ मरने को तैयार रहता है। बच्चन जी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। उन्होंने जितना आदर अपने साहित्य का किया, उतना ही भारत तथा विदेशों के साहित्य का भी और इसलिए समय-समय पर अनुवाद संबंधी नीति बनाते हुए उन्होंने भाषा की गरिमा बनाए रखने पर बहुत बल दिया। विदेश मंत्रालय में उन दिनों भी कठिन अंग्रेजी का अनुवाद हाट-बाजार वाली हिंदी में करने के बारे में एक आग्रह था। इस पर बच्चन जी बहुत बिगड़ते थे। उनका कहना था कि अंग्रेजी का अनुवाद बाजार स्तर की हिंदी में माँगना हिंदी के साथ अन्याय करना है। जब-जब हिंदी अंग्रेजी के स्तर तक उठने की कोशिश करती है तो उस पर तुरंत दोष लगाया जाता है कि वह कठिन और क्लिष्ट है और जब वह उससे घबराकर अति सरलता की ओर जाती है तो उसे अपरिपक्व कह दिया जाता है। बच्चन जी ने अपने गद्य और पद्य दोनों में ही एक सुंदर, सुगठित और सरल हिंदी का प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया कि आवश्यकता के अनुसार संस्कृत की ओर झुकती हिंदी भी लोकप्रिय और लोकरंजक हो सकती है।

लेखक हेनरी जेम्स ने कहा है कि हर बड़ा लेखक अपने जीवन और लेखन में जितना भी जझारू हो. अंतत: उसके भीतर मानव-जीवन के प्रति एक गहरी आ होती है। यह गहरी आस्था बच्चन जी के पूरे लेखन में व्याप्त है। ‘दशद्वार से सोपान तक’ के अंत में वह कहते है ‘जनार्दन के समक्ष जब प्रस्तुत होना होगा, वो होगा पर मैं जानता हूँ कि जनता जनार्दन के सामने मेरी सृजनशील लेखनी ने मेरी । संपूर्ण अपूर्णताओं के साथ मुझे प्रस्तुत कर दिया है।

प्रश्न
1. उचित शीर्षक दीजिए।
2. ‘अगली पंक्ति में आ खड़े होने’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
3. बच्चन जी ने हिंदी को कैसा रूपाकार दिया?
4. हरिवंशराय इलाहाबाद से किस कारण खिन्न थे?
5. अभ्युदय के संपादक ने कवि बच्चन की किसलिए निंदा की थी?
6. महाकवि निराला और बच्चन के जीवन में कौन-सी समानता थी?
7. “दुर्घर्ष जिजीविषा’ का तात्पर्य स्पष्ट कीजिए।
8. ‘ठंडे तेवर’ से क्या आशय है?
9. बच्चन जी ने गीता के संदेश से कौन-सा गण सीखा?
10. ‘अपर्णता’ तथा ‘जझारू’ के पर्यायवाची शब्द लिखिए।
11. अंग्रेजी का हिंदी अनुवाद करते हुए उन्हें कौन-सी बात दुख देती थी।
12. ‘काम’ का तत्सम शब्द लिखिए।
उत्तर
(1) शीर्षक : बच्चन की हिन्दी सेवा
(2) ‘अगली पंक्ति में आ खड़े होना’ का अर्थ है विशिष्ट स्थान प्राप्त करना। अपनी प्रतिभा, संकल्प, लगन तथा परिश्रम से सफलता के उत्कर्ष पर पहुँचने के अर्थ में इसे प्रयुक्त किया जा सकता है।
(3) बच्चन जी ने अपने गद्य और पद्य दोनों में ही एक सुन्दर, सुगठित और सरल हिन्दी का प्रयोग करके सिद्ध कर दिया कि आवश्यकता के अनुसार संस्कृत की ओर झुकती हिन्दी भी लोकप्रिय और लोकरंजक हो सकती है।
(4) इलाहाबाद में प्रतिभाओं को समुचित आदर नहीं दिया जाता था।
(5) कवि “बच्चन’- के काव्य “मधुशाला’ लिखने पर, उनपर हिन्दी के उमर खैयाम बनने की व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए ‘अम्युदय’ पत्रिका के सम्पादक ने कटु निंदा (आलोचना) की थी।
(6) ‘बच्चन’ जी ने महाकवि ‘निराला’ की भाँति ही कष्ट झेले, संघर्ष किया तथा आँसुओं को पीकर उनकी ऊर्जा और सौंदर्य द्वारा अपनी कविता को सोना बनाया था।
(7) ‘दुर्घर्ष जिजीविषा’ का तात्पर्य संघर्ष करने की असीम क्षमता एवं आकांक्षा है।
(8) ठंडे तेवर का आशय- नरम (निस्तेज) तथा उपेक्षापूर्ण रुख।
(9) बच्चन जी ने गीता के संदेश द्वारा आत्मवान बनने तथा अपने गुण, स्वभाव-प्रकृति पर टिके रहना तथा उसे नहीं छोड़ने का गुण सीखा।
(10) (1) अपूर्णता- अधूरापन, अपर्याप्त।
(2) जुझारू- संघर्षशील
(11) अंग्रेजी का हिन्दी में अनवाद करने के बारे में उनका एक स्पष्ट आग्रह था। वह हाट बाजार वाली स्तरहीन हिन्दी में अनुवाद के प्रबल विरोधी थे। हिन्दी के साथ इस प्रकार का दुर्व्यवहार उन्हें दुख देता था।
(12) काम का तत्सम् शब्द – कार्य।

3. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानन को दिया जा सकता। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरू हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।

इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए। आज भी वह मनष्य से प्रेम करता है. महिलाओं का सम्मान करता है. झट और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है।

समाचार पत्रों में जो भ्रष्टाचार के प्रति इतना आक्रोश है, वह यही साबित करता है कि हम ऐसी चीजों को गलत समझते हैं और समाज से उन तत्त्वों की प्रतिष्ठा कम करना चाहते हैं जो गलत तरीके से धन या मान संग्रह करते हैं।

दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है। बुराई यह मालूम होती है कि किसी आचरण के गलत पक्ष को उदघाटित करते समय उसमें रस लिया जाता है और दोषोद्घाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है। बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई को उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है। सैकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं जिन्हें उजागर करने से लोकचित में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है।

एक बार रेलवे स्टेशन पर टिकट लेते हुए गलती से मैंने दस के बजाय सौ ‘रुपये का नोट दिया और मैं जल्दी-जल्दी गाड़ी में आकर बैठ गया। थोड़ी देर में टिकट बाबू उन दिनों के सैकेंड-क्लास के डिब्बे में हर आदमी का चेहरा पहचानता हुआ उपस्थित हुआ। उसने मुझे पहचान लिया और बड़ी विनम्रता के साथ मेरे हाथ में नब्बे रुपये रख दिए और बोला, “यह बहुत बड़ी गलती हो गई थी। आपने भी नहीं देखा, मैंने भी नहीं देखा।” उसके चेहरे पर विचित्र संतोष की गरिमा थी। मैं चकित रह गया।

ठगा भी गया हूँ धोखा भी खाया है, परन्तु बहुत कम स्थलों पर विश्वासघात नाम की चीज मिलती है। केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखो, जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कष्टकर हो जाएगा, परन्तु ऐसी घटनाएँ भी बहुत कम नहीं हैं जब लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाँढ्स दिया है और हिम्मत बँधाई है। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक प्रार्थना गीत में भगवान से प्रार्थना की थी कि संसार में केवल नुकसान ही उठाना पड़े, धोखा ही खाना पड़े, तो ऐसे अवसरों पर भी हैं प्रभ! मझे ऐसी शक्ति दो कि में तुम्हार.ऊपर सदह न करू।

मनुष्य की बनाई विधियाँ गलत नतीजे तक पहुँच रही हैं तो इन्हें बदलना होगा। वस्तुतः आए दिन इन्हें बदला ही जा रहा है। लेकिन अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है, बनी रहेगी। मेरे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है।

प्रश्न
1. इस गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
2. व्यक्ति-चित्त की विशेषता बताइए।
3. ‘दकियानूसी’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
4. उन्नति के साथ-साथ कौन-से विकार बढ़ते चले गए?
5. धर्म और कानून में क्या अंतर कर दिया गया है?
6. ‘धर्मभीरू’ से क्या आशय है?
7. धर्मभीरू लोग कानून के साथ कैसा व्यवहार करते हैं?
8. भ्रष्टाचार के समाचार क्या सिद्ध करते हैं?
9. दोषों का पर्दाफाश करने मे बुराई कब आती है?
10. पर्दाफाश और दोषोद्घाटन के अर्थ बताइए।
11. बराई और अच्छाई के प्रदर्शन में कौन-सी बात बरी है?
12. टिकट बाबू के चेहरे पर संतोष की गरिमा क्यों थी?
उत्तर
(1) शीर्षक : “धर्म और कानून”
(2) व्यक्ति चित्त की विशेषता यह है कि वह ऐसी चीजों को गलत समझता है जिसके द्वारा गलत तरीके से धन या मान संग्रह किया जाता है।
(3) ‘दकियानूसी’ का अर्थ होता है, निरर्थक पुरानी परम्पराओं को ढोना। यदि मनुष्य द्वारा पूर्व में बनाई विधियाँ गलत नतीजे तक पहुँच रही हैं और हम उसका अंधानुकरण करते हैं तो इसे ‘दकियानूसी’ आचरण कहा जाएगा।
(4) राष्ट्र तथा समाज की उन्नति और विकास के साथ भ्रष्टाचार, छल-प्रपंच एवं अनाचार जैसे विकारों में वृद्धि हुई है।
(5) कानून को धर्म से अलग कर दिया गया है जिसके कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं धर्म द्वारा सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता की भावना आज के कानून में गौण हो गई है। कानून अपराध के लिए सजा का प्रावधान करता है। अपराध मिटा नहीं सकता जबकि धर्म सच्चरित्रता के माध्यम से अपराध करने से रोकता है।
(6) ‘धर्मभीरूं’ का शाब्दिक अर्थ है- धर्म अर्थात् सत्कर्म के प्रति आस्था एवं भीरू होना अर्थात् डरना (आचरण करना)। अतः धर्मभीरू से तात्पर्य है- धर्माचरण।
(7) धर्मभीरू लोग कानून की बेटियों से लाभ उठाने का प्रयास करते हैं।
(8) समाचार-पत्रों में भ्रष्टाचार के समाचारों से यह प्रमाणित होता है कि लोगों में भ्रष्टाचार के प्रति जर्बदस्त आक्रोश है तथा वे ऐसी वस्तुओं को गलत समझते हैं जो अनैतिक ढंग से धन या मान अर्जित कर समाज तथा देश को कलंकित करती
(9) दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है। लेकिन बुराई तब आती है जब किसी के आचरण के गलत पक्ष को जोर-शोर से उद्घाटित किया जाय तथा उसमें गहरी रुचि ली जाए।
(10) ‘पर्दाफाश करना’ का अर्थ रहस्य पर से पर्दा उठाना है, दोषी व्यक्ति के दोष को उजागर करना है। दोषोद्घाटन से तात्पर्य है दोषी व्यक्ति के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करना एवं उसकी बुराई में रस लेना है।
(11) बुराई और अच्छाई के प्रदर्शन में बुरी बात यह है कि कि इसके द्वारा गलत पक्ष का तो रहस्योद्घाटन किया जाता है, लेकिन उसके उन्मूलन का सार्थक प्रयास नहीं किया जाता है साथ ही अच्छाई को उतनी ही उत्सुकता से उजागर नहीं किया जाता है, जिन्हें प्रचारित करने में लोकचित में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है।
(12) रेलवे स्टेशन का टिकट बाबू लेखक द्वारा टिकट के लिए दिए गए सौ रुपए की शेष राशि नब्बे रुपए देना भूल गया था। लेखक भी जल्दी बाजी में गाड़ी में आकर बैठ गया। टिकट बाबू उसे खोजते हुए सेकेंड क्लास के उस डिब्बे में जा पहुँचा जहाँ लेखक बैठा था। टिकट बाबू ने क्षमा माँगते हुए उक्त राशि उसे (लेखक) दे दी। इसी खुशी में टिकट बाबू के चेहरे पर संतोष का भाव (गरिमा) झलक रहा था।

4. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखए :

कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी, क्योंकि एक तो कर्मकाल में उसका जीवन बीता, वह संतोष या आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। फल पहले से कोई बना-बनाया पदार्थ नहीं होता। अनुकूलन प्रयत्न-कर्म के अनुसार, उसके एक-एक अंग की योजना होती है। बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ही प्रयत्न है। किसी मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है। वह वैद्यों के यहाँ से जब तक औषधि ला ला कर रोगी को देता जाता है और इधर-उधर दौड धप करता जाता है तब तक उसके चित्त में जो संतोष रहता है- प्रत्येक नये उपचार के साथ जो आनन्द का उन्मेष होता रहता है यह उसे कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा रहता। प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीता, अप्रयत्न की दशा में उतना ही अंश केवल शोक और दुःख में कटता। इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस कठोर दुःख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच-सोचकर होता कि मैंने पूरा प्रयत्न नहीं किया।

कर्म में आनंद अनुभव करने वालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्ता को वे कर्म ही फलस्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और पुष्टि होती है वही लोकोपकारी कर्म-वीर का सच्चा सुख है। उसके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न हो जाये, बल्कि उसी समय से थोड़ा-थोड़ा करके मिलने लगता है जब से वह कर्म की ओर हाथ बढ़ाता है।

कभी-कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनंद के कारण एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है। जो बहुत से कामों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर रहती है। इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे अपना काम बड़े उत्साह से किए जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्प और तत्परता को भी लोग उत्साह ही कहते हैं। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सख-प्राप्ति को आशा या निश्चय से उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और दूसरे व्यापारों के साथ संलग्न होकर, उत्साह के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग में लगे हैं जिससे आगे चलकर हमें बहुत लाभ या सुख की । आशा है तो हम उस उद्योग को तो उत्साह के साथ करते ही हैं, अन्य कार्यों में भी प्रायः अपना उत्साह दिखा देते हैं।

यह बात उत्साह में नहीं अन्य मनोविकारों में भी बराबर पाई जाती है। यदि हम किसी बात पर क्रुद्ध बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात सीधी तरह भी पूछता है, तो भी हम उस पर झुझला उठते हैं। इस झुंझलाहट का न तो कोई निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की स्थिति के _व्याघात को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है। इस झुंझलाहट द्वारा हम यह प्रकट करते हैं कि हम क्रोध में है और क्रोध में ही रहना चाहते हैं। क्रोध को बनाये रखने के लिए हम उन बातों में भी क्रोध ही संचित करते हैं जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव प्राप्त करते इसी प्रकार यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो हम अन्य विषय में भी अपना उत्साह दिखा देते हैं।

प्रश्न
(i) अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) फल क्या है?
(iii)कर्मण्य किसे कहते हैं?
(iv) मनुष्य को कौन कर्म की ओर अग्रसर कराती है?
(v) हम प्रायः उत्साह कब प्रकट करते हैं?
(vi) उत्साह में झुंझलाहट क्या है?
(vii) उत्साही मनष्य किस मार्ग पर चलता है?
(viii) किसी फल की प्राप्ति के लिए किसी योजना की जाती है?
(ix) प्रयत्न क्या है?
(x) अप्रयत्न की दशा में जीवन कैसे कटता है?
(xi) दिव्य आनंद किस में भरा रहता है?
(xii) क्रोध क्या है?
उत्तर
(i) शीर्षक : “कर्मवीर” ।
(ii) अनुकूलन प्रयत्न-कर्म के अनुसार, उसके एक-एक अंग की योजना होती है। यही फल का आधार होती है।
(iii) कर्म में आनन्द अनुभव करने वालों का ही नाम कर्मण्य है।
(iv) ‘स्फूर्ति’ मनुष्य को कर्म की ओर अग्रसर कराती है।
(v) हमारे अन्दर जब आनन्द के कारण स्फूर्ति उत्पन्न होती है तो हम अपना कार्य प्रसन्नता और तत्परता से करते हैं। इसमें हमारा उत्साह प्रकट होता है।
(vi) जिस प्रकार उत्साह एक मनोदशा है उसी प्रकार झुंझलाहट भी एक मनोदशा ही है।
(vii) उत्साही मनुष्य उस मार्ग पर चलता है जिस पर उसे लाभ हो। हर्ष और तत्परता से वह उस मार्ग का अनुसरण करता है।
(viii) फल की प्राप्ति के लिए प्रत्येक योजना अनुकूलन प्रयत्न-कर्म के एक-एक अंग के अनसार की जाती है।
(ix) कर्म के मार्ग पर आनन्दपूर्वकं चलना ही प्रयत्न कहलाता है।
(x) अप्रयत्न की दशा में जीवन शोक और दुःख में कटता है।
(xi) धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही दिव्य आनन्द भरा रहता है।
(xii) क्रोध एक प्रकार का मनोविकार है।

5. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

जातियाँ इस देश में अनेक आई हैं। लड़ती-झगड़ती भी रही हैं, फिर प्रेमपूर्वक बस भी गई हैं। सभ्यता की नाना सीढ़ियों पर खड़ी और नाना ओर मुख करके चलने वाली इन जातियों के लिए एक सामान्य धर्म खोज निकालना कोई सहज बात नहीं थी। भारतवर्ष के ऋषियों ने अनेक प्रकार से इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी। पर एक बात उन्होंने लक्ष्य की थी। समस्त वर्णों और समस्त जातियों का एक सामान्य आदर्श भी है। वह है अपने ही बंधनों से अपने को बांधना। मनुष्य पशु से किस बात में भिन्न है? आहार-निद्रा आदि पशु-सुलभ स्वभाव उसके ठीक वैसे ही हैं, जैसे अन्य प्राणियों के लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न है। उसमें संयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति समवेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्याग है। यह मनुष्य के स्वयं के उदभावित बंधन हैं। इसीलिए मनष्य झगडे-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़ दौड़ने वाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। यह किसी खास जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। वह मनुष्य-मात्र का धर्म है। महाभारत में इसीलिए निर्वेर भाव, सत्य और अक्रोध को वर्णो का सामान्य धर्म कहा है

एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत।
निर्वेरत महाराज सत्यमक्रोध एव च।

अन्यत्र इसमें निरंतर दानशीलता को भी गिनाया गया है। (अनुशासन 12010)। गौतम ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि सबके दुःख-सुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्म-निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। अहिंसा, सत्य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्स यही है मुझे आश्चर्य होता है कि अनजाने में भी हमारी भाषा से यह भाव कैसे रह गया है। लेकिन मुझे नाखून के बढने पर आश्चर्य हुआ था अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है। और आदमी है कि सदा उससे लोहा लेने को कमर कसे है।

मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े बड़े नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओं, और उत्पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्धि करो और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढ़ा था। उसने कहा था- बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो। आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, आत्म-पोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो। उसने कहा- प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है। बूढ़े की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई। आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। मैं हैरान होकर सोचता हूँ-बूढ़े ने कितनी गहराई में पैठ कर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था।

प्रश्न
(i) अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) ऋषियों ने क्या किया था?
(iii)मनुष्य में पशु से भिन्न क्या है? .
(iv) मनुष्य किसे गलत आचरण मानता है?
(v) मनुष्य की मनुष्यता क्या है?
(vi) पशु की मूल प्रवृत्ति क्या है?
(vii) विभिन्न जातियाँ पहले क्या कर रही थीं?
(viii) तरह-तरह की जातियों के लिए क्या खोजना कठिन था?
(ix) सभी वर्गों और सभी जातियों का सामान्य आदर्श क्या है?
(x) मनुष्य किसे अपना आदर्श नहीं मानता?
(xi) महाभारत में सब वर्गों का सामान्य धर्म किसे माना गया है?
(xii) ‘स्व’ का बंधन किसका स्वभाव है?
उत्तर
(i) शीर्षक : मानव जीवन का उद्देश्य अथवा मनुष्यता तथा पशुता
(ii) देश में रहनेवाली विभिन्न जातियों के लिए एक सामान्य धर्म खोज निकालना एक कठिन कार्य था। भारतवर्ष के ऋषियों ने इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी।
(iii) मनुष्य में आहार-निद्रा जैसे पशु-सुलभ स्वभाव के बावजूद भी उसमें पशु से भिन्न गुण हैं। मनुष्य में संयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति संवेदना है, श्रद्धा है, तप तथा त्याग है।
(iv) मनुष्य वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है।
(v) मनुष्य की मनुष्यता यही है कि सबके सुख-दुख को सहानुभूति के साथ देखता है।
(vi) उच्छृखलता पशु की मूल प्रवृत्ति है।
(vii) विभिन्न जातियाँ पहले आपस में लड़ती-झगड़ती रहती थीं।
(viii) विभिन्न जातियों के लिए एक सामान्य धर्म खोज निकालना कठिन कार्य था।
(ix) सभी वर्गों और सभी जातियों का सामान्य आदर्श अपने ही बंधनों से अपने (स्वयं) को बाँधना था।
(x) मनुष्य झगड़े-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता।
(xi) महाभारत में निर्वैर भाव, सत्य तथा अक्रोध (क्रोध रहित गुण) सब वर्गों का सामान्य धर्म कहा गया है।
(xii) ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है।

6. निम्नलिखित अनुच्छेद को सावधानीपूर्वक पढ़कर उसके नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर अति संक्षेप में लिखिए।

1. देश-प्रेम है क्या? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आलंबन क्या है? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत सहित सारी भूमि। यह प्रेम किस प्रकार का है? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें बराबर आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है। सारांश यह है कि जिनके सान्निध्य का हमे अभ्यास पड़ जाता है, उनके प्रति लोभ या राग हो सकता है। देश-प्रेम यदि वास्तव में यह अंत:करण का कोई भाव है तो यही हो सकता है। यदि यह नहीं है तो वह कोरी बकवाद या किसी और भाव के संकेत के लिए गढ़ा हुआ शब्द है।

यदि किसी को अपने देश से सचमुच प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सबसे प्रेम होगा, वह सबको चाहभरी दृष्टि से देखेगा, वह सबकी सुध करके विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते है कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो यह भी आँख भर नहीं देखते कि आम प्रणय-सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, ये यदि दस बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का पता बताकर देश-प्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि भाइयो! बिना रूप-परिचय का यह प्रेम कैसा? जिनके दुःख-सुख के तुम कभी साथी नहीं हुए, उन्हें तुम सुखी देखना चहते हो, यह कैसे समझें। उनसे कोसों दूर बैठे-बैठे, पड़े-पड़े या खड़े-खड़े तुम विलायती बोली में ‘अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो।’ प्रेम हिसाब-किताब नहीं है। हिसाब-किताब करने वाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं, पर प्रेम करने वाले नहीं।

हिसाब-किताब से देश की दशा का ज्ञान मात्र हो सकता है। हित चिंतन और हितासाधन की प्रवृत्ति कोरे ज्ञान से भिन्न है। वह मन के वेग या ‘भाव’ पर अवलंबित है, उसका संबंध लोभ या प्रेम से है, जिसके बिना अन्य पक्ष में आवश्यक त्याग का उत्साह हो नहीं सकता।

पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं, उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही है। परिचय प्रेम का प्रवर्तक है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यदि देश-प्रेम के लिए हृदय में जगह करनी है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए। बाहर निकलिए तो आँख खोलकर देखिए कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, कछारों में चौपायों के झुंड इधर-उधर चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गाँव झाँक रहे हैं; उनमें घुसिए, देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिले उनसे दो-दो बाते कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी-आध-घड़ी बैठ जाइए और समझिए कि ये सब हमारे देश के हैं। इस प्रकार जब देश का रूप आपकी आँखों में समा जाएगा, आप उसके अंग-प्रत्यंग से परिचित हो जाएंगे, तब आपके अंत:करण में इस इच्छा का सचमुच उदय होगा कि वह कभी न छूटे, वह सदा हरा-भरा और फला-फूला रहे, उसके धनधान्य की वृद्धि हो, उसके सब प्राणी सुखी रहे।

पर आजकल इस प्रकार का परिचय बाबुओं की लज्जा का एक विषय हो रहा है। वे देश के स्वरूप से अनजान रहने या बनने में अपनी बड़ी शान समझते हैं। मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ साँची का स्तूप देखने गया। वह स्तूप एक बहुत सुंदर छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर है। नीचे छोटा-मोटा जंगल है, जिसमें महुए के पेड़ भी बहुत से हैं। संयोग से उन दिनों वहाँ पुरातत्व विभाग का कैंप पड़ा हुआ था। रात हो जाने से उस दिन हम लोग स्तूप नहीं देख सके, सवेरे देखने का विचार करके नीचे उतर रहे थे। वसंत का समय था। महुए चारों ओर टपक रहे थे। मेरे मुँह से निकला- “महुओं की कैसी महक आ रही है।” इस पर लखनवी महाशय ने चट मुझे रोककर कहा- “यहाँ महुए-सहुए का नाम न लीजिए, लोग देहाती समझेंगे।” मैं चुप हो रहा, समझ गया कि महुए का नाम जानने से बाबूपन में बड़ा भारी बट्टा लगता है। पीछे ध्यान आया कि वह वही लखनऊ है जहाँ कभी यह पूछने वाले भी थे कि गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा है या बड़ा।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का शीर्षक दीजिए।
(ख) ‘साहचर्यगत प्रेम’ से क्या आशय है
साथियों का प्रेम
साथ-साथ रहने के कारण उत्पन्न प्रेम
देश-प्रेम
इनमें से कोई नहीं।
(ग) अंत:करण का एक पर्यायवाची लिखिए।
(घ) ‘आँख भर देखना’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ङ) ‘प्रेम हिसाब-किताब नहीं है’ में क्या व्यंग्य है?
(च) देश-प्रेम का संबंध किससे है

  • हिसाब-किताब से
  • ज्ञान से
  • मन के वेग से
  • हितचिंतन से।

(छ) “परिचय प्रेम का प्रवर्तक है’- का क्या आशय है?
(ज) देश-प्रेम के लिए पहली आवश्यकता क्या है?
(झ) लेखक ने किन बाबुओं पर व्यंग्य किया है?
(ञ) लखनवी दोस्त ने लेखक को महुओं का नाम लेने से क्यों रोका?
(ट) लखनऊ के लोगों पर क्या कटाक्ष किया गया है?
(ठ) “विलायती बोली’ के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
(ड) लेखक की नजरों में रसखान देशप्रेमी क्यों हैं?
(ढ) पुरातत्व विभाग का क्या काम होता है?
(ण) ‘वन’ का पर्यायवाची ढूंढ़िए।
(त) हानि पहुँचना’ के लिए किस मुहावरे का प्रयोग हुआ है?
उत्तर
(क) देश-प्रेम और स्वदेश-परिचय।
(ख) साथ-साथ रहने के कारण उत्पन्न प्रेम।
(ग) हृदय।
(घ) तृप्त होकर देखना, जी भरकर देखना।
(ङ) देश का हिसाब-किताब रखना अर्थात् आर्थिक उन्नति के बारे में सोचना देश-प्रेम की पहचान नहींहै।
(च) मन के वेग से।।
(छ) परिचय से ही प्रेम का आरंभ होता है।
(ज) देशप्रेम के लिए पहली आवश्यकता है-देश को पूरी तरह जानना।
(झ) लेखक ने उन शहरी बाबुओं पर व्यंग्य किया है जिन्हें देश के देशी फूल-पत्तों का नाम सुनकर अपने देहाती होने का अपमान अनुभव होता है।
((ञ)) लखनवी दोस्त महुओं की सुगंध में देहातीपन महसूस करते थे। इसलिए उन्होंने लेखक को महुओं का नाम लेने से रोका।
(ट) लेखक ने लखनऊ के लोगों के अज्ञान पर कटाक्ष किया है। वहाँ के कुछ लोग गाँव, खेती और कृषि से बिल्कुल अनजान थे।
(ठ) अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग अंग्रेजी बोलकर देशहित की कितनी ही बातें करें, किंतु वे सच्चे देशप्रेमी नहीं हो सकते।
(ड) लेखक की नजरों में रसखान को देश की ब्रजभूमि से असीम प्रेम है। इसलिए वे सच्चे देशप्रेमी हैं।
(ढ) पुरातत्व विभाग का काम देश की पुरानी धरोहरों को सुरक्षित रखना होता है।
(ण) जंगल
(त) बट्टा लगना।

7. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर दीजिए।

एक आदमी को व्यर्थ बक-बक करने की आदत है। यदि वह अपनी आदत को छोड़ता है, तो वह अपने व्यर्थ बोलने के अवगुण को छोड़ता है। किंतु साथ ही। अनायास ही वह मितभाषी होने के सदगण को अपनाता चला जाता है। यह तो हुआ ‘हाँ’ पक्ष का उत्तर। किंतु एक दूसरे आदमी को सिगरेट पीने का अभ्यास है। वह सिगरेट पीना छोड़ता है और उसके बजाय दूध से प्रेम करना सीखता है, तो सिगरेट पीना छोड़ना एक अवगुण को छोड़ना है और दूध से प्रेम जोड़ना एक सद्गुण को अपनाना है। दोनों ही भिन्न वस्तुएँ हैं- पृथक-पृथक।

अवगुण को दूर करने और सद्गुण को अपनाने के प्रयत्न में, मैं समझता हूँ कि अवगणों को दर करने के प्रयत्नों की अपेक्षा सदगणों को अपनाने का ही महत्त्व अधिक है। किसी कमरे में गंदी हवा और स्वच्छ वायु एक साथ रह ही नहीं सकती। कमरे में हवा रहे ही नहीं, यह तो हो ही नहीं सकता। गंदी हवा को निकालने का सबसे अच्छा उपाय एक ही है-सभी दरवाजे और खिड़कियाँ खोलकर स्वच्छ वायु को अंदर आने देना।

अवगुणों को भगाने का सबसे अच्छा उपाय है, सद्गुणों को अपनाना। ऐसी बातें पढ-सनकर हर आदमी वह बात कहता सनाई देता है जो किसी समय बेचारे दुर्योधन के मुँह से निकली थी-

“धर्म जानता हूँ, उसमें प्रवृत्ति नहीं।
अधर्म जानता हूँ, उससे निवृत्ति नहीं।”

एक आदमी को कोई कुटेव पड़ गई- सिगरेट पीने की ही सही। अत्यधिक सिनेमा देखने की ही सही। बेचारा बहुत संकल्प करता है, बहुत कसमें खाता है कि अब सिगरेट न पीऊँगा, अब सिनेमा देखने न जाऊँगा, किंतु समय आने पर जैसे आप ही आप उसके हाथ सिगरेट तक पहुँच जाते हैं और सिगरेट उसके मुँह तक। बेचारे के पाँव सिनेमा की ओर जैसे आप-ही-आप बढ़े चले जाते हैं।

क्या सिगरेट न पीने का और सिनेमा न देखने का उसका संकल्प सच्चा नहीं? क्या उसने झूठी कसम खाई है? क्या उसके संकल्प की दृढ़ता में कमी है? नहीं, उसका संकल्प तो उतना ही दृढ़ है जितना किसी का हो सकता है। तब उसे बार-बार असफलता क्यों होती है?

इस असफलता का कारण और सफलता का रहस्य कदाचित इस एक ही उदाहरण से समझ में आ जाए।
जमीन पर एक छ: इंच या एक फुट लंबा-चौड़ा लकड़ी का तख्ता रखा है। यदि आपसे उस पर चलने के लिए कहा जाए तो आप चल सकेंगे?

कोई पूछे क्यों? आप इसके अनेक कारण बताएँगे। सच्चा कारण एक ही है। आप नहीं चल सकते, क्योंकि आप समझते है आप नहीं चल सकते। यदि आप विश्वास कर लें कि आप चल सकते हैं, और उसी लकड़ी के तख्ते को थोड़ा-थोड़ा जमीन से ऊपर उठाते हुए उसी पर चलने का अभ्यास करें तो आप उस पर बड़े आराम से चल सकेंगे। सरकस वाले पतले-पतले तारों पर कैसे चल लेते हैं? वे विश्वास करते हैं कि वे चल सकते हैं, तदनुसार अभ्यास करते हैं और वे चल ही लेते हैं।

यदि आप किसी अवगुण को दूर करना चाहते हैं, तो उससे दूर रहने के दृढ़ संकल्प करना छोड़िए, क्योंकि जब आप उससे दूर-दूर रहने की कसमें खाते हैं, तब भी आप उसी का चिंतन करते हैं। चोरी न करने का संकल्प भी चोरी का ही संकल्प है। पक्ष में न सही, विपक्ष में सही। है तो चोरी के ही बारे में। चोरी न करने की इच्छा रखने वाले को चोरी के संबंध में कोई संकल्प-विकल्प नहीं करना चाहिए।

हम यदि अपने संकल्प-विकल्पों द्वारा अपने अवगुणों को बलवान न बनाएँ तो हमारे अवगुण अपनी मौत आप मर जाएँगे।
आपकी प्रकृति चंचल है, आप अपने ‘गंभीर स्वरूप’ की भावना करें। यथावकाश अपने मनमें ‘गंभीर स्वरूप’ का चित्र देखें। अचिरकाल से ही आपकी प्रकृति बदल जाएगी।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) ‘अनायास’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ग) मितभाषी का विपरीतार्थक लिखिए।
(घ) “पृथक्’ और ‘अभ्यास’ के कौन-कौन से पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए
(ङ) गंदी हवा को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
(च) अवगुण को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
(छ) ‘धर्म जानता हूँ, उसमें प्रवृत्ति नहीं’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ज) ‘अधर्म जानता हूँ, उसमें निवृत्ति नहीं’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
(झ) लेखक अवगुणों को छोड़ने का संकल्प क्यों नहीं करना चाहता?
(ञ) अवगुण कब अपनी मौत मर जाते हैं?
(ट) ‘तुरंत’ या ‘शीघ्र’ के लिए किस नए शब्द का प्रयोग किया गया है।
(ठ) चंचल स्वभाव को छोड़ने के लिए क्या करना चाहिए?
(ड) ‘अनायास’ का संधिविच्छेद कीजिए।
उत्तर
(क) सद्गणों को अपनाने के उपाय।
(ख) बिना प्रयास किए।
(ग) अतिभाषी, वाचाल।
(घ) पृथक् – भिन्न
अभ्यास – आदत।
(ङ) गंदी हवा को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है- स्वच्छ हवा को आने देना।
(च) अवगुण को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है- सद्गुणों को अपनाना।
(छ) इसका आशय है- मैं धर्म के सारे लक्षण तो जानता हूँ किंतु उस ओर मेरा रुझान नहीं है। मैं धर्म को अपनाने में रुचि नहीं ले पाता।
(ज) इसका आशय है- मैं अधर्म के लक्षण जानता हूँ किंतु जानते हुए भी उनसे बच नहीं पाता। मैं अधर्म के कार्यों में फंस जाता हूँ।
(झ) लेखक अवगुणों को छोड़ने का संकल्प इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उससे अवगुण और पक्के होते हैं। उससे अवगुण चिंतन के केंद्र में आ जाते हैं।
(ञ) अवगुणों के बारे में कोई निश्चय-अनिश्चय न किया जाए तो वे अपनी मौत स्वयं पर जाते हैं, अर्थात् अपने-आप नष्ट हो जाते हैं।
(ट) अचिरकाल
(ठ) चंचल स्वभाव को छोड़ने के लिए अपने सामने अपने गंभीर रूप की भावना करनी चाहिए।
(ड) अन +आयास।

8. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए:

भारत वर्ष बहुत पुराना देश है। उसकी सभ्यता और संस्कृति भी बहुत पुरानी है। भारतवासियों को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर बड़ा गर्व है। वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा प्राप्त नए साधनों को अपनाते हुए भी जब अनेक अन्य देशवासी अपने पुराने रहन-सहन और रीति-रिवाज को बदलकर नए तरीके से जीवन बिताने लगे तब भी भारतवासी अपनी पुरानी सभ्यता और संस्कृति पर डटे रहे और बहुत काल तक यह देश ऋषि मुनियों का देश ही कहलाता रहा। विश्व के मानव-जीवन के उस नए दौर का असर पूर्ण रूप से भारतवासियों पर पड़ा नहीं।

हवाई जहाज की सैर की सुविधा के मिलने के बाद भी पैदल की जाने वाली तीर्थ यात्राएँ होती ही रहीं। पाँच नक्षत्रवाले होटलों में ‘शावरबाथ’ की सुविधाओं के होते हुए भी गंगा-स्नान और संध्या-वंदन का दौर चलता ही रहा। कारण यह है कि जब जीवन में उन्नति के लिए अन्य देशवासी नए आविष्कारों और उनके द्वारा प्रदान की गई सुविधाओं के पीछे भाग रहे थे, तब भी भारतवासियों का अपने रीति-रिवाज और रहन-सहन पर पूरा विश्वास था और संपूर्ण रूप से नए आविष्कारों का शिकार होना नहीं चाहते थे। इसका कारण यह भी था कि विज्ञान के आविष्कारों के नाम से जीवन को आसान बनवाने वाली सुविधाओं को अपने देहाती ढंग से प्राप्त करके जीने का तरीका प्राचीन काल से भारतवासी जानते थे।

इसी भाँति छोटी क्षेत्रफल वाली जमीन को जोतने की बात तो अलग है। पर आज ट्रैक्टरों का इस्तेमाल करके विशाल क्षेत्रफल वाली भूमि को भी थोड़ी ही देर में आसानी से जोत डालने की सुविधा तो है। इसका मतलब यह नहीं था कि हमारे पूर्वज इस प्रकार की सुविधाओं के अभाव से विशाल क्षेत्रफल वाली भूमि को जोतते ही नहीं थे। उस जमाने में भी उस समय पर प्राप्त सामग्रियों का इस्तेमाल करके विशाल से विशाल भूमि को भी जोत डालते ही थे। ऐसी विशाल जमीन के चारों ओर सबसे पहले एक छोटे से द्वार मात्र को छोड़कर आट लगाते थे। पूरी जमीन पर जंगली पौधे अपने आप उग लेंगे ही। फिर सिर्फ एक रात्रि मात्र के लिए जमीन पर जंगली सूअरों को भगाकर द्वार बंद कर देते थे। पौधों की जड़ को खाने के उत्साह से जंगली सूअर जमीन खोदने लगेंगे। सुबह देखने पर पूरी जमीन जोतने के बराबर हो जाएगी। बाद में सूअरों को भगाकर जमीन समतल कर लेते थे। और खेती बारी करते थे।

उस कार्य के पीछे विज्ञान का नाम मात्र न था। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि ट्रेक्टर नाम के इस नए आविष्कार के प्रेरक तो जंगली सूअर ही थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक साधनों का पूरा फायदा उठाना हमारे पूर्वज खूब जानते थे। बाद में वैज्ञानिकों ने जो सुविधाएँ प्रदान की थी, उनमें से अधिकांश को पूर्वकाल में ही प्रकृति पर निर्भर होकर हमारे पूर्वजों ने पा लिया था। यही कारण था कि नए आविष्कारों पर उन्हें इतना विस्मय न था जिनता अन्य देशवासियों को था। यही कारण था कि हम अपनी पुरानी सभ्यता और संस्कृति पर डटे रहे।

चिकित्सा और औषधियों के मामलों पर भी बात यही थी। रोगों से छुटकारा पाने के लिए जो काम आज दवा की गोलियाँ किया करती हैं, उसे जंगली बूटियाँ करती थीं। मृत व्यक्ति को जीवित कराने के लिए भी बूटियाँ उपलब्ध थीं। श्रीमद् रामायण में संजीवनी बूटी का जो उल्लेख हुआ है, वह इस बात का साक्षी है। प्राचीनकाल के सिद्ध जो थे, वे तपश्चर्या करने के साथ-साथ वैद्य का काम भी किया करते थे। पहाड़ियों में विचरण करना और विशिष्ट प्रकार की दवा बूटियों को ढूँढ लेना भी उनका काम था। विभिन्न प्रकार के रोगों के निवारण के लिए तरह-तरह की बूटियों को खोज रखा था उन्होंने। आज भी भारत के पहाड़ी इलाकों में बसे घने जंगलों में विभिन्न प्रकार के रोगों के लिए बूटियों का होना वैज्ञानिकों द्वारा मान लिया गया है।

प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखें।
(ख) आज तीर्थ-यात्राएँ किस प्रकार संपन्न की जाती हैं?
(ग) पाँच. नक्षत्र वाले होटल से क्या तात्पर्य है?
(घ) शावरबाथ और संध्या-वंदन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करें।
(ङ) ट्रैक्टर से आविष्कार की प्रेरणा किस से मिली?
(च) रामायण में संजीवनी बूटी का प्रयोग किस पात्र पर किया गया?
(छ) अत्युक्ति का क्या आशय है?
(ज) साक्षी व तपश्चर्या शब्दों का अर्थ बताओ।
(झ) आट लगाना का क्या अर्थ है?
(ञ) भारतीय जन अपनी प्राचीन रीतियों को क्यो अपनाते चले आ रहे हैं?
(ट) ट्रैक्टर के आने से पहले भारतीय लोग अपनी विशाल धरती को किनकी सहायता से जोतते थे?
(ठ) प्राचीन भारत में दवा की गोलियों की बजाय किससे काम लिया जाता था?
(ड) संजीवनी बूटी किसे कहा जाता था?
(ढ) ‘भारतवासी’ का विग्रह करके समास का नाम लिखिए।
(ण) ‘रहन-सहन’ में कौन-सा समास है?
उत्तर
(क) महान भारतीय संस्कृति।
(ख) पैदल चलकर।
(ग) पाँच सितारा होटल। (Five Star Hotel)
(घ) शावरबाथ – फव्वारे द्वारा किया गया. स्नान संध्या-वंदन – सायंकाल होने वाली पूजा-अर्चना।
(ङ) ट्रैक्टर के आविष्कार के प्रेरक जंगली सूअर थे।
(च) संजीवनी बूटी का प्रयोग लक्ष्मण पर किया गया।
(छ) अत्युक्ति अर्थात् अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा कर कहना।
(ज) साथी – गवाह तपश्चर्या – तप करने की क्रिया, तपस्या करना।
(झ) आट लगाना अर्थात् बाड़ लगाना, घेराबंदी करना।
(ञ) भारतीय जन अपनी रीतियों पर आस्था रखने के कारण ही उन्हें आज तक अपनाते चले आ रहे हैं।
(ट) ट्रैक्टर के आने से पहले भारतीय लोग अपनी विशाल धरती को सूअरों की सहायता से जोत डालते थे।।
(ठ) जड़ी-बूटियों और प्रभावकारी वनस्पतियों से।
(ड) वह बूटी, जिसे खाकर मरा हुआ मनुष्य भी जीवित हो उठता है।
(ढ) भारत का वासी; तत्पुरुष समास।
(ण) द्वंद्व समास।

9. नीचे दिये गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए:

शास्त्री जी की एक सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे एक सामान्य परिवार में पैदा हुए थे, सामान्य परिवार में ही उनकी परवरिश हुई और जब वे देश के प्रधानमंत्री जैसे महत्त्वपूर्ण पद पर पहुंचे, तब भी वह सामान्य ही बने रहे।’ विनम्रता, सादगी और सरलता उनके व्यक्तित्व में एक विचित्र प्रकार का आकर्षण पैदा करती थी। इस दृष्टि से शास्त्री जी का व्यक्तित्व बापू के अधिक करीब था और कहना न होगा कि बापू से प्रभावित होकर ही सन् 1921 ई० में उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ी थी। शास्त्री जी पर भारतीय चिन्तकों, डॉ. भगवानदास तथा बापू का कुछ ऐसा प्रभाव रहा कि वह जीवन-भर उन्हीं के आदर्शों पर चलते रहे और औरों को इसके लिए प्रेरित करते रहे। शास्त्री जी के संबंध में मुझे बाइबिल की वह उक्ति बिल्कुल सही जान पड़ती है कि विनम्र ही पृथ्वी के वारिस होंगे।

शास्त्री जी ने हमारे देश के स्वतंत्रता-संग्राम में तब प्रवेश किया था, जब वे एक स्कूल के विद्यार्थी थे और उस समय उनकी उम्र 17 वर्ष की थी। गाँधीजी के आह्ववान पर वे स्कूल छोड़कर बाहर आ गये थे। इसके बाद काशी विद्यापीठ में उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। उनका मन हमेशा देश की आजादी और सामाजिक कार्यों की ओर लगा रहा। परिणाम यह हुआ कि सन् 1926 ई. में वे ‘लोक सेवा मंडल’ में शामिल हो गए, जिसके वे जीवन-भर सदस्य रहे। इसमें शामिल होने के बाद से शास्त्री जी ने गाँधी जी के विचारों के अनुरूप अछूतोद्वार के काम में अपने आपको लगाया। यहाँ से शास्त्री जी के जीवन का नया अध्याय प्रारंभ हो गया। सन् 1930 ई० में जब ‘नमक कानून तोड़ों आंदोलन’ शुरू हुआ, तो शास्त्रीजी ने उसमें भाग लिया जिसके परिणामस्वरूप उनहें जेल जाना पड़ा। यहाँ से शास्त्री जी की जेल-यात्रा की जो शुरूआत हुई तो वह सन् 1942 ई. में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन तक निरंतर चलती रही। इन 12 वर्षों के दौरान वे सात बार जेल गये। इसी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके अंदर देश की आजादी के लिए कितनी बड़ी ललक थी। दूसरी जेल-यात्रा उन्हें सन् 1932 ई. में किसान आंदोलन में भाग लेने के लिए करनी पडी। सन् 1942 ई. की उनकी जेल-यात्रा 3 वर्ष की था, जा सबस लंबी जेल-यात्रा थी।

इस दौरान शास्त्री जी जहाँ तक एक ओर गाँधीजी द्वारा बताये गये रचनात्मक कार्यों में लगे हुए थे, वहीं दूसरी ओर पदाधिकारी के रूप में जनसेवा के कार्यों में भी लगे रहे। इसके बाद के 6 वर्षों तक वे इलाहाबद की नगरपालिका से किसी न किसी रूप से जुड़े रहे। लोकतंत्र की इस आधारभूत इकाई में कार्य करने के कारण वे देश की छोटी-छोटी समस्याओं और उनके निराकरण की व्यावहारिक प्रक्रिया से अच्छी तरह परिचित हो गये थे। कार्य के प्रति निष्ठा और मेहनत करने की अदम्य क्षमता के कारण सन् 1937 ई० में वे संयुक्त प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के लिए निर्वाचित हुए। सही मायने में यहीं से शास्त्री जी के संसदीय जीवन की शुरुआत हुई, जिसका समापन, देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने में हुआ।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) शास्त्री जी के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाले गुण कौन-कौन से थे?
(ग) किस गुण के कारण शास्त्री जी का जीवन गाँधी जी के करीब था?
(घ) ‘विनम्र ही पृथ्वी के वारिस होंगे’ का क्या आशय है?
(ङ) शास्त्री जी ने स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेने की शुरूआत कब से की?
(च) शास्त्री जी सन् 1942 ई० में किस सिलसिले में जेल गए?
(छ) बारह वर्षों के दौरान शास्त्री जी कितनी बार जेल गये?
(ज) शास्त्री जी ने जनसेवक के रूप में किस नगर की सेवा की?
(झ) किस ई० में शास्त्री जी संयुक्त प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के लिए निर्वाचित हुए?
(ञ) ‘अछूतोद्वार’ का सविग्रह समास बताएँ।
(ट) “ललक’ के दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
(ठ) इस गद्यांश से उर्दू के दो शब्द छाँटकर लिखिए।
उत्तर
(क) कर्मयोगी लाल बहादुर शास्त्री।
(ख) विनम्रता, सादगी और सरलता।
(ग) सादगी, सरलता और कर्मनिष्ठा के कारण।
(घ) प्रलयोपरांत विनम्र लोग ही बचेंगे जो धरती के सब सुख को भोग सकेंगे।
(ङ) 17 वर्ष की उम्र में विद्यार्थी जीवन से।
(च) भारत छोड़ो आंदोलन के सिलसिले में।
(छ) सात बार।
(ज) इलाहाबाद नगरपालिका की
(झ) 1932 ई.
(ञ) अछूतों का उद्वार-तत्पुरूष समास
(ट) ललक-उत्सुकता, व्यग्रतम।
(ठ) वारिस, परवरिश।

10. नीचे दिये गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

हँसी भीतरी आनन्द का बाहरी चिन्ह है। जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम से-उत्तम वस्तु एक बार हँस लेना तथा शरीर को अच्छा रखने की अच्छी-से-अच्छी दवा एक बार खिलखिला उठना है। पुराने लोग कह गये हैं कि हँसो और पेट फुलाओ। हँसी कितने ही कला-कौशलों से भली है। जितना ही अधिक आनंद से हँसोगे उतनी ही आयु बढ़ेगी। एक यनानी विद्वान कहता है कि सदा अपने कर्मों खींझने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया. पर प्रसन्न मन डेमोक्रीटस 109 वर्ष तक जिया। हँसी-खुशी ही का नाम जोवन है। जो रोते हैं, उनका जीवन व्यर्थ है। कवि कहता है ‘जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है. मर्दादिल खाक जिया करते हैं।

मनुष्य के शरीर के वर्णन पर एक विलायती विद्वान ने एक पुस्तक लिखी है। उसमें वह कहता है कि उत्तम सुअवसर की हँसी उदास-से-उदास मनुष्य के चित्त को प्रफुल्लित कर देती है। आनन्द एक ऐसा प्रबल इंजन है कि उससे शोक और दुःख की दीवारों को ढा सकते हैं। प्राण-रक्षा के लिए सदा सब देशों में उत्तम-से-उत्तम मनुष्य के चित्त को प्रसन्न रखना है। सुयोग्य वैद्य अपने रोगी के कानों में आनंदरूपी मंत्र सुनाता है।

एक अँगरेज डॉक्टर कहता है कि किसी नगर में दवाई लदे हुए बीस गधे ले जाने से एक हँसोड़ आदमी को ले जाना अधिक लाभकारी है। डॉक्टर हस्फलेंड ने एक पुस्तक में आयु बढ़ाने का उपाय लिखा है। वह लिखता है कि हँसी बहुत उत्तम चीज है। यह पाचन के लिए है। इससे अच्छी औषधि और नहीं है। एक रोगी ही नहीं, सबके लिए हँसी बहुत काम की वस्तु है। हँसी शरीर के स्वास्थ्य का शुभ संवाद देने वाली है। वह एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है। पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती और अधिक पसीना लाती है।

हँसी एक शक्तिशाली दवा है। एक डॉक्टर कहता है कि वह जीवन की. मीठी मदिरा है। डॉक्टर यूंड कहता है कि आनन्द से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मनुष्य के पास और नहीं है। कारलाइस एक राजकुमार था। वह संसार त्यागी हो गया था। वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो, तुम्हें अच्छा लगेगा। अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ, तुमसे कम घृणा करेगा। एक अनजान को हँसाओ, तुम पर भरोसा करेगा। उदास को हँसाओ, उसका दु:ख घटेगा। निराश को हँसाओ, उसकी आयु बढ़ेगी। एक बालक को हँसाओ, उसके स्वास्थ्य में वृद्धि होगी। वह प्रसन्न और प्यारा बालक बनेगा। पर हमारे जीवन का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं, हमको बहुत काम करने हैं, तथापि उन कामों में, कष्टों में और चिन्ताओं में एक सुन्दर आन्तरिक हँसी बड़ी प्यारी वस्तु भगवान ने दी है।

प्रश्न
(क) हँसी भीतरी आनन्द को कैसे प्रकट करती है?
(ख) पुराने समय में लोगों ने हँसी को महत्त्व क्यों दिया?
(ग) हँसी को एक शक्तिशाली इंजन की तरह क्यों माना गया है?
(घ) हेरीक्लेस और डेमोक्रीटस के उदाहरण से लेखक क्या स्पष्ट करना चाहते हैं?
(ङ) एक अँगरेज डॉक्टर ने क्या कहा है?
(च) डॉक्टर हस्फलेंड ने एक पुस्तक में आयु बढ़ाने का क्या उपाय लिखा है?
(छ) हँसी किस प्रकार एक शक्तिशाली दवा है?
(ज) इस गद्यांश में हँसी का क्या महत्त्व बताया गया है?
(झ) हँसी सभी के लिए उपयोगी किस प्रकार है?
(ञ) मित्र मंडली’ का सविग्रह समास बनायें।
(ट) ‘प्रफुल्लित’ शब्द में प्रयुक्त प्रत्यय अलग कीजिए।
(ठ) ‘तथापि’ का संधि-विच्छेद कीजिए।
उत्तर
(क) हँसी भीतरी आनन्द का बाहरी चिन्ह है। हँसी जीवन में उल्लास, उमंग और प्रसन्नता का संचार करती है।
(ख) पुराने समय में लोगों ने हँसी को महत्त्व इसीलिए दिया कि हँसी अनेक कला-कौशलों से अच्छी है। .
(ग) हँसी को एक शक्तिशाली इंजन की तरह इसीलिए माना गया है क्योंकि उससे शोक और दुःख की दीवारों को ढाया जा सकता है।
(घ) लेखक यही स्पष्ट करना चाहते हैं कि प्रसन्नता आय को बढाती है।
(ङ) एक अँगरेज डॉक्टर ने कहा है कि किसी नगर में दवाई लदे हुए बीस गधे ले जाने से एक हँसोड़ आदमी को ले जाना अधिक लाभकारी है।
(च) उसने लिखा है कि हँसी बहुत उत्तम चीज है। वह पाचन के लिए है। इससे अच्छी औषधि और नहीं है।
(छ) हँसी पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती है और अधिक पसीना लाती है।
(ज) हँसी सर्वोत्तम औषधि है। हँसी प्राणदायक तथा आयु-वर्द्धक है।
(झ) सचमुच हँसी सभी के लिए उपयोगी है। यह उदास और निराश व्यक्ति में प्रसन्नता और आशा का संचार करती है।
(ञ) मित्र-मंडली = मित्रों की मंडली-तत्पुरुष समास।
(ट) इत (प्रत्यय)।
(ठ) तथा + अपि।

प्रश्न 11.
नीचे दिये गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए।

तुम्हें क्या करना चाहिए, इसका ठीक-ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकता। कैसा भी विश्वास-पात्र मित्र हो, तुम्हारे इस काम को वह अपने नहीं दे सकता। कैसा भी विश्वास-पात्र मित्र हो, तुम्हारे इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता। हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुने, बुद्धिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक मानें, पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों से ही हमारी रक्षा व हमारा पतन होगा, हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतंत्रता को दृढ़तापूर्वक बनाये रखना चाहिए। जिस पुरूष की दृष्टि सदा नीची रहती है, उसका सिर कभी ऊपर न होगा। नीची दृष्टि रखने से यद्यपि रास्ते पर रहेंगे, पर इस बात को न देखेंगे कि यह रास्ता कहाँ ले जाता है। चित्त की स्वतंत्रता का मतलब चेष्टी की कठोरता या प्रकृति की उग्रता नहीं है। अपने व्यवहार में कोमल रहो और अपने उद्देश्यों को उच्च रखो. इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो। अपने मन को कभी मरा हुआ न रखों। जो मनुष्य अपना लक्ष्य जितना ही ऊपर रखता है, उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है।

संसार में ऐसे-ऐसे दृढ़ चित्त मनुष्य हो गये हैं जिन्होंने मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी, अपनी आत्मा के विरूद्ध कोई काम नहीं किया। राजा हरिश्चंद्र के ऊपर इतनी-इतनी विपत्तियाँ आयीं, पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। उनकी प्रतिज्ञा यही रही-

“चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जंगत व्यवहार।
पै दृढ़ श्री हरिश्चंद्र कौ, टरै न सत्य विचार।।”

महाराणा प्रताप सिंह जंगल-जंगल मारे-मारे फिरते थे, अपनी स्त्री और बच्चों को भूख से तड़पते देखते थे, परंतु उन्होंने उन लोगों की बात न मानी जिन्होंने उन्हें अधीनतापूर्वकं जीते रहने की सम्मति दी, क्योंकि वे जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिंता जितनी अपने को हो सकती है उतनी दूसरे को नहीं। एक इतिहासकार कहता है-“प्रत्येक मनुष्य का भाग्य उसके हाथ में है। प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन-निर्वाह श्रेष्ठ रीति से कर सकता है। यही मैंने किया है और यदि अवसर मिले तो यही करूँ। इसे चाहे स्वतंत्रता कहो ‘चाहे आत्मा-निर्भरता कहो’ चाहे स्वावलंबन कहो, जो कुछ कहो वही भाव है जिससे मनुष्य और दास में भेद जान पड़ता है, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से राम-लक्ष्मण ने घर से निकल बड़े-बड़े पराक्रमी वीरों पर विजय प्राप्त की यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से कोलंबस ने अमेरिका समान बडा महाद्वीप ढूंढ निकाला। चित्त की इसी वृत्ति के बल पर कुंभनदास ने अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी जाने से इनकार किया और कहा था-

‘मोको कहा सीकरी सो काम।’ ।
इस चित्त वृत्ति के बल पर मनुष्य इसीलिए परिश्रम के साथ दिन काटता है और दरिद्रता के दु:ख को झेलता है। इसी चित्त-वृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों का निवारण करके उन्हें सदा पद-दलित करते हैं। कुमंत्रणाओं का निस्तार करते हैं और शुद्ध चरित्र के लोगों से प्रेम और उनकी रक्षा करते हैं।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) लेखक नीची दृष्टि न रखने की सलाह क्यों देते हैं?
(ग) मन को मरा हुआ रखने का क्या आशय है?
(घ) किसका तीर ऊपर जाता है और क्यों?
(ङ) महाराणा प्रताप ने गुलामी स्वीकार करने की सलाह क्यों नहीं मानी?
(च) कोलंबस और हनुमान ने किस गुण के बल पर महान कार्य किये?
(छ) मनुष्य किस आधार पर प्रलोभनों को पद-दलित कर पाते हैं?
(ज) टेक का पर्यायवाची इसी गद्यांश से ढूँढ़कर लिखिए।
(झ) विश्वासपात्र और पतन का विलोम शब्द ढूँढ़कर लिखिए।
(ञ) सम्मति का उपसर्ग अलग कीजिए।
(ट) आत्मनिर्भरता का पर्यायवाची लिखिए।
(ठ) श्रेष्ठ, उत्तम, दृढ और उच्च में से अलग अर्थ वाले शब्द को चुनकर लिखिए।
उत्तर
(क) आत्मनिर्भरता का महत्त्व।
(ख) नीची दृष्टि रखने से मनुष्य को उन्नति पाने में बाधा होती है।
(ग) मन को उत्साहहीन, निराश, उदास और पराजित बनाये रखना।
(घ) जिसका लक्ष्य जितना ऊँचा होता है, उसका तीर उतना ही ऊपर जाता है क्योंकि लक्ष्य ऊँचा रखने से ही प्रयत्न का अवसर प्राप्त हो पाता है।
(ङ) महाराणा प्रताप जानते थे कि व्यक्ति को अपनी मर्यादा अपने कर्म से बनानी होती है। इसीलिए उन्होंने गुलामी स्वीकार करने की सलाह नहीं मानी।
(च) आत्मनिर्भरता के बल पर।
(छ) स्वावलंबन के आधार पर।
(ज) टेक = प्रतिज्ञा, संकल्प आन।
(झ) विश्वासपात्र = विश्वासघाती। पतन = उत्थान।
(ञ) सम्
(ट) आत्मनिर्भरता = स्वावलंबन, स्वतंत्रता।

12. नीचे दिये गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए

सालों पहले कुशीनगर गया था। वहाँ बुद्ध की लेटी हुई प्रतिमा के पास खड़े होकर एक अलग किस्म का अनुभव हुआ था। उस वक्त तो ठीक-ठीक नहीं समझ पाया था लेकिन बाद में मुझे महसूस हुआ कि वहाँ एक अलग तरह की शांति मिली थी। अब किसी भी बुद्ध प्रतिमा को देखता हूँ तो असीम शांति का अहसास होता है। वहाँ खड़े होकर आपको महसूस होता है कि उन्हें करुण का महासागर क्यों कहा जाता है?

अक्सर सोचता हूँ कि असीम शांति कैसे हासिल हो सकती है? क्या दुख को साधे बिना उसे पाया जा सकता है? आखिर बुद्ध ने जब दुख को साधा तभी तो वह असीम शांति का अनुभव कर सके।

शायद बुद्ध के वजह से ही बौद्ध धर्म या दर्शन ने दुख या मानवीय पीड़ा पर इतना विचार किया। दरअसल, बौद्ध या दर्शन तो पीड़ा और दुख से ही निकल कर. आया था। बुद्ध का पूरा जीवन ही उस दुख और पीड़ा से जूझने में बीता।

बुद्ध ने अपने पूर्वजों की तरह दुख को नकारा नहीं था। जीवन में दुख को स्वीकार करने की वजह से ही वह अपने पार पाने की सोच सके। और उस दुख से पार पाने के लिए तथागत ने किसी चमत्कार या करिश्मे का सहारा नहीं लिया।

सचमुच बुद्ध ने कोई चमत्कार नहीं किया। आमतौर पर धर्म और अध्यात्म की दुनिया तो चमत्कार को एक जरूरी चीज के तौर पर मानती रही है। हाल का उदाहरण मदर टेरेसा का है। मदर को ही कैथोलिक चर्च ने चमत्कार के बिना संत कहाँ माना था?

बुद्ध ही अपने बेटे को खो चुकी और चमत्कार की आस में आयी माँ से कह सकते थे कि जाओ गाँव में किसी घर से एक मुट्ठी चावल ले आओ जहाँ कोई मौत न हुई हो।

अपने बेटे को खो चुकी माँ के लिए उन्होंने कोई चमत्कार नहीं किया था। महज एक उदाहरण से समझा दिया था कि मौत या दुख एक सच्चाई है। उसे कोई चमत्कार बदल नहीं सकते साथ जीने की कोशिश करनी होती है।

इसलिए बुद्ध ही कह सकते थे कि जीवन है तो दुख है। यानी आप दुख से बच ही नहीं सकते। लेकिन यह भी बुद्ध ही कह सकते थे कि जीवन है तो दुख है लेकिन उससे पार पाना ही जीवन है।

उस दुख से पार पाने के लिए बुद्ध किसी भी शरण में जाने को नहीं कहते हैं। वह तो ‘अप्प दीपो भव’ यानी अपने दीपक खुद बनों का मंत्र देते हैं।
मतलब, दुख को भी अपनी निगाहों से देखो। दुख अगर अंधेरा है तो अपने दीपक से उस अंधेरे को हटाओ। किसी और दीपक की रोशनी में न तो अपने दुखों को देखो न ही अपने दुखों को हटाने के लिए दूसरी रोशनी को बाट जोहो। आज बुद्ध पूर्णिमा है। क्या हमें अपने दीपक और उसकी रोशनी में जिंदगी को देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए?
(ख) लेखक को बुद्ध की प्रतिमा के सामने कैसा अनुभव हुआ?
(ग) बुद्ध असीम शांति का अनुभव कब कर सके?
(घ) बद्ध ने अपना परा जीवन किससे जझने में व्यतीत कर दिया?
(ङ) दुख से पार पाने के लिए बुद्ध ने क्या किया?
(च) अपने मरे हुए बेटे को चमत्कार की आशा में आयी माँ को बुद्ध ने क्या कहा?
(छ) बुद्ध ने जीवन किसे माना है?
(ज) इस गद्यांश में दुख से पार पाने का क्या उपाय बताया गया है?
(झ) ‘अप्प दीप्पो भव’ का अर्थ है?.
(ञ) ‘बाट जोहना’ मुहाबरे का वाक्य-प्रयोग द्वारा अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ट) ‘मौत’ के दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
(ठ) ‘चमत्कार’ का संधि-विच्छेद कीजिए।
उत्तर
(क) जीवन में दुख।
(ख) असीम शांति का अनुभव।
(ग) जब से दुख को साधने में सफल हुए।
(घ) दुख और पीड़ा से।।
(ङ) उन्होंने दुख को नकारने की अपेक्षा उसे स्वीकार किया और घोर तपस्या की।
(च) उन्होंने कहा कि जाओ गाँव में किसी घर में एक मुट्ठी चावल ले आओ, जहाँ कोई मौत न हुई हो।
(छ) बुद्ध ने दुख से पार पाने को ही जीवन माना है।
(ज) दुख से पार पाने के लिए दीपक स्वयं बनने का उपाय बताया गया है। (झ) अपना दीपक स्वयं बनों।
(ञ) बाट जोहना (प्रतीक्षा करना) = गोपियाँ निरन्तर कृष्ण आगमन की बाट जोहती रहती थीं।
(ट) मौत = मृत्यु, देयत, देहावसान, निधन, स्वर्गवास।
(ठ) चमत् + कार (व्यंजन संधि)।

2. वर्णनात्मक गद्यांश [8 अंक]

1. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

कहने को चाहे भारत में स्वशासन हो और भारतीयकरण का नाम हो, किंतु वास्तविकता में सब ओर आस्थाहीनता बढ़ती जा रही है। मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों या चर्च में बढ़ती भीड़ और प्रचार माध्यमों द्वारा मेलों और पर्वो के व्यापक कवरेज से आस्था के संदर्भ में कोई भ्रम मत पालिए, क्योंकि यह सब उसी प्रकार भ्रामक है जैसे लगे रहो मुन्ना भाई की गाँधीगीरी।

वास्तविक जीवन में जिस आचरण की अपेक्षा व्यक्ति या समूह से की जाती है उसकी झलक तक पाना मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि गाँधीगीरी की काल्पनिक अवधारणा से महत्त्व पाने के लिए कुछ लोगों की नौटंकी की वाहवाही । प्रचार माध्यमों ने जमकर की, लेकिन अब गाँधी जयंती बीतने के बाद न तो कोई । गुलाब का फूल भेंट करता दिखाई देता है और न ही कोई छूट वाले काउंटरों से गद्यांश (8 अंक) गाँधी टोपी ही खरीदता नजर आता है।

गाँधी को ‘गौरी’ के रूप में आँकने के सिनेमाई कथानक का कोई स्थायी प्रभाव हो भी नहीं सकता। फिल्म उत्तरी और प्रभाव चला गया। गाँधी को बाह्य आवरण से समझने के कारण वर्षों से हम दो अक्टूबर और तीस जनवरी को कुछ आडंबर अवश्य करते चले आ रहे हैं, लेकिन जिन जीवन-मल्यों के प्रति आस्थावान होने की हम सौगंध खाते हैं और उन्हें आचरण में उतारने का संकल्प व्यक्त करते हैं उसका लेशमात्र प्रभाव भी हमारे आस-पास के जीवन में प्रतीत नहीं होता। जिसे हमने स्वतंत्रता के लिए संग्राम की संज्ञा दी थी उस संपूर्ण प्रयास को गाँधीजी ने स्वराज्य के लिए अभियान की संज्ञा प्रदान की थी।

स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और स्वराज्य के लिए अभियान का अंतर अतीत का संज्ञान रखने वाले ही समझ सकते हैं। विदेशियों के सत्ता में रहने के बावजद हम स्वतंत्र थे, क्योकि हमारी आस्था ‘स्व’ में निरंतर प्रगाढ़ होती जा रही थी। ‘स्व’ में आस्था की प्रगाढ़ता के लिए निरंतर प्रयास होते रहे। इसीलिए गाँधी जी का अभियान स्वराज्य का था. बतंत्रता का नहीं। उसके स्वराज्य की भी एक निश्चित अवधारणा थी। सर्वसाधारण को वह अवधारणा समझ में आ सके, इसलिए उन्होंने कहा था कि हमारा स्वराज्य रामराज्य होगा। ।

जिस सादे जीवन और उच्च विचार को आधार बनाकर वे भारत को आध्यात्मिक गुरु के रूप में विश्व के समक्ष खड़ा करना चाहते थे उस भारत की ‘स्व शासन’ व्यवस्था ने भौतिक भूख की आग को इतना अधिक प्रज्ज्वलित कर दिया है कि अब हमने येन-केन-प्रकारेण सफलता हासिल करने के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने स्थापित मूल्यों को तिलांजलि दे दी है।

1. इस अनुच्छेद का उचित शीर्षक दीजिए।
2. किस बात को नौटंकी कहा गया है और क्यों?
3. दो अक्टूबर और तीस जनवरी किसलिए विशेष है?
4. स्वराज्य और स्वतंत्रता में क्या अंतर है?
5. गाँधी जी कैसा स्वराज्य चाहते थे?
6. स्वशासन व्यवस्था ने. कौन-सी विसंगति दी है?
7. ‘संग्राम’ के लिए किस पर्यायवादी शब्द का प्रयोग हुआ है? “तिलांजलि देना’ मुहावरे का वाक्य में प्रयोग कीजिए। .
उत्तर
(1) शीर्षक : गाँधीगीरी की काल्पनिक अवधारणा अथवा उपेक्षित गाँधी
(2) गाँधीगीरी की काल्पनिक अवधारणा से महत्त्व पाने के लिए कुछ लोगों द्वारा किए गए प्रयास को नौटंकी कहा गया है।
(3) दो अक्टूबर को गाँधी जी के जन्म दिन पर गाँधी जयन्ती मनाई जाती है, तीस जनवरी को उनकी हत्या कर दिए जाने की स्मृति में निर्वाण दिवस मनाया जाता है।
(4) ‘स्वराज्य’ का अर्थ है रामराज्य के आधार पर स्वार्थ एवं अनाचार रहित आदर्श राज्य-व्यवस्था जबकि स्वतन्त्र का अर्थ है अन्य शासन व्यवस्था से मुक्ति, ‘स्व’ अर्थात् स्वयं को, “तन्त्र” अर्थात् शासन-व्यवस्था (प्रणाली) से विमुक्त होना।
(5) गाँधी जी रामराज्य के समान आदर्श स्वराज्य चाहते थे क्योंकि उन्होंने ‘स्वराज्य’ को अभियान की संज्ञा दी थी।
(6) स्वशासन-व्यवस्था ने भौतिक भूख की आग को इतना अधिक प्रज्जवलित कर दिया है कि अब हमने किसी भी प्रकार से सफलता हासिल करने __के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने स्थापित मूल्यों को तिलांजलि दे दी है।
(7) ‘संघर्ष’
(8) क्षणिक सुख की प्राप्ति के लिए हमें नैतिक-मूल्यों को तिलांजलि नहीं देना चाहिए।

2. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए

जिसने अपनी परी जिंदगी देश सेवा में अर्पित कर दी हो. उसके आदर्शों का मूल्यांकन करना आसान है क्या? आप मिलें तो मालूम होगा कि इस वृद्धा की आत्मा समाज को कुछ देने के लिए आज भी कितनी बेचैन है। यही बेचैनी भाभी की जिंदगी है और पागलपन भी। कभी देश के लिए इसी तरह पागल होकर उन्होंने अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया था।

शिव दा बताते हैं कि जब दुर्गा भाभी के पति भगवतीचरण . बोहरा 1930 में रावी तट पर बम विस्फोट में शहीद हो गए, तो भाभी ने डबडबाई आँखों को चुपचाप पोंछ डाला था। उस दिन भैया चंद्रशेखर आजाद ने धैर्य बँधाते हुए कहा था- “भाभी, तुमने देश के लिए अपना सर्वस्व दे दिया है। तुम्हारे प्रति हम अपने कर्तव्य को कभी नहीं भूलेंगे।” भैया आजाद का स्वर सुनकर भाभी के होंठों पर दृढ़ संकल्प की एक रेखा खींच गई थी उस दिन। वे उठ बैठीं। बोली- “पति नहीं रहे, लेकिन दल का काम चलेगा, रुकेगा नहीं। मैं करूँगी।” और भाभी दूने वेग से क्रांति की राह पर चल पड़ी। उनका पुत्र शची तब तीन वर्ष का था, पर उन्होंने उसकी परवाह नहीं की। वे बढ़ती गई, जिस राह पर जाना था उन्हें। रास्ते में दो पल बैठकर कभी सुस्ताया नहीं। दाँव देखकर कहीं ठहरी नहीं। चलती रहीं- निरंतर। जैसे चलना ही उनके लिए जीवन का ध्येय बन गया हो। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को जेल से छुड़ाने के लिए आजाद और उनके साथी जब चले, तो भाभी ने आज़ाद से आग्रह किया-“संघर्ष में मुझे भी चलने दीजिए। यह हक सर्वप्रथम मेरा है।”

आजाद ने इसकी स्वीकृति नहीं दी। यह योजना कामयाब भी नहीं हो पाई। कहा जाता है कि भगत सिंह ने स्वयं इसके लिए मना कर दिया था। भाभी जेल में भगतसिंह से मिलीं। फिर लाहौर से दिल्ली पहुंची। गाँधी जी वहीं .. थे। यह करांची कांग्रेस से पहले की बात है। भगतसिंह की रिहाई के सवाल को लेकर

भाभी गाँधी जी के पास गईं। रात थी कोई साढ़े ग्यारह का वक्त था। बैठक चल रही थी। नेहरू जी वहीं घूम रहे थे। वे सुशीला दीदी और भाभी को लेकर अंदर गए। गाँधी जी ने देखा तो कहा “तुम आ गई हो। अपने को पुलिस को दे दो। मैं छुड़ा लूँगा।” ___गाँधी जी समझे कि वे संकट से मुक्ति पाने आई हैं। भाभी तुरंत बोली-“मैं इसलिए नहीं आई दरअसल, मैं चाहती हूँ कि जहाँ आप अन्य राजनीतिक कैदियों को छुड़ाने की बात कर रहे हैं, वहाँ भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को छुड़ाने की शर्त वाइसराय के सामने रखें।”

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) भाभी के जीवन की बैचेनी क्या है?
(ग) सर्वस्व दाँव पर लगाने का आशय स्पष्ट कीजिए।
(घ) भाभी गाँधी जी से किसलिए मिलीं?
(ङ) आजाद ने भाभी को किस बात की स्वीकृति नहीं दी?
(च) भाभी कभी ढीली नहीं पड़ी- इसके लिए कौन-सा वाक्य प्रयोग किया गया है?
(छ) ‘रिहाई’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ज) ‘कामयाब’ के लिए संस्कृत शब्द लिखिए।
उत्तर
(क) शीर्षक : देश सेवा |
(ख) भाभी समाज को कुछ देने के लिए बेचैन हैं।
(ग) दुर्गा भाभी के पति श्री भगवती चरण बोहरा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बम-विस्फोट में शहीद हो गए, अत्यन्त संघर्षमय जीवन का सामना भाभी ने किया किन्तु निराश नहीं हुईं, हार नहीं मानी। सर्वस्व दाँव पर लगाने का आशय यही है।
(घ) भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु जेल की सजा काट रहे थे। भाभी गाँधी जी से इसलिए मिलने गईं कि वे उन तीनों को छुड़ाने का प्रयास करें।
(ङ) भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को जेल से छुड़ाने के लिए चन्द्रशेखर आज़ाद एवं उनके साथी जब जाने लगे तो भाभी ने भी साथ चलने का आग्रह किया, किन्तु आजाद ने इसकी स्वीकृति नहीं दी।
(च) ‘वे चलती गई, जिस राह पर जाना था उन्हें।’ इस संदर्भ में अन्य वाक्य है,रास्ते में दो पल बैठकर सुस्ताया नहीं, दाँव देखकर कभी ठहरी नहीं, चलती रही- निरंतर!
(छ) रिहाई का आशय है जेल से ‘मुक्त’ होना या ‘मुक्त कराना’ (छुड़ाना)।
(ज) सफल

3. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए

शिक्षा का लक्ष्य है संस्कार देना। मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक विकास में योगदान देना शिक्षा का मुख्य कार्य है। शिक्षित व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहता है। स्वच्छता को जीवन में महत्व देता है और उन सब बुराइयों से दूर रहता है जिनसे स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। रुग्न शरीर के कारण शिक्षा में बाधा पड़ती है।

शिक्षा हमारे ज्ञान का विस्तार करती है। ज्ञान का प्रकाश जिन खिड़कियों से प्रवेश करता है उन्हीं से अज्ञान और रूढ़िवादिता का अंधकार निकल भागता है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपने परिवेश को पहचानने और समझने में सक्षम होता है। विश्व में ज्ञान का जो विशाल भंडार है उसे शिक्षा के माध्यम से ही हम प्राप्त कर सकते हैं। सृष्टि के रहस्यों को खोलने की कुंजी शिक्षा ही है। अशिक्षित व्यक्तियों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं कुरीतियों का शिकार हो सकता है। शिक्षा हमारी भावनाओं का संस्कार भी करती है। साहित्य और कलाओं में हमारी संवेदनशीलता तीव्र होती है। शिक्षा हमारे दृष्टिकोण को उदार बनाती है। समाज मानवीय संबंधों का ताना-बाना है। व्यक्ति और समाज का संबंध अत्यंत गहरा है। व्यक्ति के अभाव में समाज का अस्तित्व ही संभव नहीं और समाज के अभाव में सभ्य मनुष्य की कल्पना कर सकना भी असंभव है। जो संबंध रेत के कणों और रेत के ढेर में होता है वही संबंध व्यक्ति और समाज में होता है।

रेत के कण अपना अलग-अलग अस्तित्व रखते हुए भी रेत के ऐर का निर्माण करते हैं। प्यासा आदमी कुंए के पास जाता है, यह बात निर्विवाद है। परंतु सत्संगति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि आप सज्जनों के पास जाएं और उनकी संगति प्राप्त करें। घर बैठे-बैठे भी आप सत्संगति का आनंद लूट सकते हैं। यह बात पुस्तकों द्वारा संभव है। हर कलाकार और लेखक को जन-साधारण से एक विशेष बुद्धि मिली है। इस बुद्धि का नाम प्रतिभा है। पुस्तक निर्माता अपनी प्रतिभा के बल से जीवन भर से संचित ज्ञान को पुस्तक के रूप में उंडेल देता है। जब हम घर की चारदीवारी में बैठकर किसी पुस्तक का अध्ययन करते हैं तब हम एक अनुभवी और ज्ञानी सज्जन की संगति में बैठकर ज्ञान प्राप्त करते हैं। नित्य नई पुस्तक का अध्ययन हमें नित्य नए सज्जन की संगति दिलाता है। इसलिए विद्वानों ने स्वाध्याय को विशेष महत्व दिया है। घर बैठे-बैठे सत्सगति दिलाना पुस्तकों की सर्वश्रेष्ठ उपयोगिता है।

प्रश्न
(i) घर बैठे-बैठे सत्संगति का लाभ किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है?
(ii) हर पुस्तक में संचित ज्ञान अलग-अलग प्रकार का क्यों होता है?
(iii)पुस्तकों की सर्वश्रेष्ठ उपयोगिता क्या है?
(iv) उचित शीर्षक लिखिए।
(v) लेखक पुस्तकों को उपयोगी कैसे बनाते हैं?
(vi) शिक्षा का लक्ष्य क्या है?
(vii) शिक्षा में बाधा किससे पड़ती है?.
(viii) रूढ़िवादिता कैसे दूर हो सकती है?
उत्तर
(i) घर बैठे-बैठे हम सत्संगति का लाभ पुस्तकों द्वारा प्राप्त कर सकते है।
(ii) हर पुस्तक में संचित ज्ञान अलग-अलग प्रकार का होता है। इसका कारण हर लेखक को जनसाधारण से एक विशेष बुद्धि प्राप्त होती है। वह अपने जीवन के संचित ज्ञान को अपने ढंग से पुस्तक द्वारा प्रकट करता है।
(iii) पुस्तकों की सर्वश्रेष्ठ उपयोगिता सत्संगति का लाभ उपलब्ध कराना है।
(iv) शीर्षक :”शिक्षा का लक्ष्य”
(v) लेखक अपनी विद्वता द्वारा अपने संचित अनुभवों को पुस्तकों के माध्यम से जन-साधारण के लिए उपयोगी बनाते हैं।
(vi) शिक्षा का लक्ष्य शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक विकास द्वारा जनसाधारण में संस्कार का निर्माण (सृष्टि) करना होता है।
(vii) रुग्न शरीर के कारण शिक्षा में बाधा पड़ती है।
(viii) शिक्षा हमारे ज्ञान का विकास तथा विस्तार करती है जिसके द्वारा रुढ़िवादिता दूर हो सकती है।

4. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए:

वर्तमान समाज में सर्वत्र. अव्यवस्था का साम्राज्य फैला हुआ है। विद्यार्थी, राजनेता, सरकारी कर्मचारी, श्रमिक आदि सभी स्वयं को स्वतंत्र भारत का नागरिक मानकर मनमानी कर रहे हैं। शासन में व्याप्त अस्थिरता समाज के अनुशासन को भी प्रभावित कर रही है। यदि किसी को अनुशासन में रहने के लिए कहा जाये तो वह ‘शासन का अनुसरण’ करने की बात कह कर अपनी अनुशासनहीनता पर पर्दा डालने का प्रयास करता है। वास्तव में अनुशासन शब्द का शाब्दिक अर्थ शासन अर्थात् गुरुजनों द्वारा दिखाए गए मार्ग पर नियमबद्ध रूप से चलना है। विद्यार्थी-जीवन में विद्यार्थियों की बुद्धि अपरिष्कृत होती है। अबोधावस्था के कारण उन्हें भले-बुरे की पहचान नहीं होती। ऐसी स्थिति में थोड़ी-सी असावधानी उन्हें अहंकारी बना देती है।

आजकल विद्यार्थियों की पढ़ाई में रुचि नहीं है। वे आधुनिक शिक्षा पद्धति को बेकारों की सेना तैयार करने वाली नीति मानकर इसके प्रति उदासीन हो गए हैं तथा फैशन, सुख-सुविधापूर्ण जीवन जीने के लिए गलत रास्तों पर चलने लगे हैं। वर्तमान जीवन में व्याप्त राजनीतिक दलबंदी भी विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता को प्रोत्साहित करती हैं। राजनीतिक नेता अपने स्वार्थों के लिए विद्यार्थियों को भड़का देते हैं तथा विद्यार्थी वर्ग बुरे-भले की चिंता किए बिना तोड़-फोड़ में लग जाता है। इससे विद्यार्थी का अहंकार आवश्यकता से अधिक बढ़ता जा रहा है और दूसरा उसका ध्यान अधिकार पाने में है, अपना कर्त्तव्य पूरा करने में नहीं।

अहं बुरी चीज कही जा सकती है। यह सब में होता है और एक सीमा तक आवश्यक भी है। किंतु आज के विद्यार्थियों में यह इतना बढ़ गया है कि विनय के गुण उनमें नाम मात्र के नहीं रह गए हैं। सदगुरुजनों या बड़ों की बात का विरोध करना उनके जीवन का अंग बन गया है। इन्हीं बातों के कारण विद्यार्थी अपने अधिकारों के बहुत अधिकारी नहीं हैं। उसे भी वह अपना समझने लगे हैं। अधिकार और कर्त्तव्य दोनों एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। स्वस्थ स्थिति वही कही जा सकती है जब दोनों का संतुलन हो। आज का विद्यार्थी अधिकार के प्रति सजग है परंतु वह अपने कर्तव्यों की ओर से विमुख हो गया है। एक सीमा की अति का दूसरे पर भी असर पड़ता है।

प्रश्न
(i) आधुनिक विद्यार्थियों में नम्रता की कमी क्यों होती जा रही है?
(ii) विद्यार्थी प्रायः किसका विरोध करते हैं?
(iii)विद्यार्थी में किसके प्रति सजगता अधिक है?
(iv) उचित शीर्षक दीजिए।
(v) अधिकार और कर्त्तव्य में क्या संबंध है?
(vi) शासन में व्याप्त अस्थिरता किसे प्रभावित कर रही है?
(vii) आधुनिक शिक्षा पद्धति क्या कर रही है?
(viii) नेता किसे और किसलिए भड़काते हैं?
उत्तर
(i) आधुनिक विद्यार्थियों में नम्रता की कमी होने का कारण (1) आवश्यकता से अधिक अहंकार का बढ़ना तथा (2) अधिकार पाने की लालसा का होना है। अपना कर्तव्य पूरा करने के प्रति उनका ध्यान नहीं रहता है।
(ii) विद्यार्थी अपने गुरुजनों या बड़ों की बात का विरोध करते हैं।
(iii) विद्यार्थी अपने अधिकार के प्रति सर्वाधिक सजग है।
(iv) शीर्षक : “आधुनिक शिक्षा का स्वरूप” .
(v) अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से जुड़े रहते हैं; दोनों में संतुलन को ही स्वस्थ स्थिति कहा जा सकता है।
(vi) शासन में व्याप्त अस्थिरता समाज के अनुशासन को प्रभावित कर रही है।
(vii) आधुनिक शिक्षा पद्धति बेकारों की सेना तैयार कर रही है।
(viii) राजनीतिक नेता अपने स्वार्थों के लिए विद्यार्थियों को भड़का देते हैं।

5. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए:

ताजमहल भारत का ही नहीं, संसार भर का लोकप्रिय आकर्षण केन्द्र है। कला-संस्कृति के अखंड प्रेमी शाहजहाँ ने इस भवन को अपनी प्रिय बेगम मुमताज की याद में बनवाया था। इसका निर्माण संगमरमर के श्वेत पत्थरों से किया गया।

ताजमहल के निर्माण में जो जन-धन-श्रम लगा, उसके आँकड़े चौंका देने वाले हैं। इसका निर्माण सत्रह वर्ष की अवधि में हआ था बीस हजार श्रमिक कारीगर्ग ने अपने जी-तोड़ परिश्रम से इसे बनाया। इसके अद्वितीय शिल्प तथा तकनीक के लिए विदेश के भी कई इंजीनियरों को आमंत्रित किया गया। संगमरमर के श्वेत पत्थरों तथा संगमूसा के काले पत्थरों से निर्मित इस महल पर उस समय सात करोड़ रुपये खर्च हुए थे।

ताजमहल यमुना के किनारे पर स्थित है इसकी वास्तुकला संसार-भर में बेजोड़ है। इसका प्रवेश-द्वार लाल पत्थर का बना हुआ है, जिस पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं। यमुना के किनारे की एक तरफ को छोड़कर शेष तीनों दिशाओं में सुंदर, व्यवस्थित उपवन है जिन पर बैठकर दर्शक ताजमहल की सुंदरता को नयन भरकर निहारते हैं। महल के प्रवेश-द्वार से आगे चलकर मार्ग में दोनों ओर वृक्षों की कतारें हैं और जल के फव्वारे हैं, जो सहज ही अपनी झीनी-झीनी फुहारों से पर्यटकों को आनंदित कर देते हैं। वहीं निर्मल जल के सरोवर हैं, जिनमें सुंदर सुवर्णमय मछलियाँ तैरती रहती हैं उन्हीं सरोवरों के सामने सीमेंट के बड़े-बड़े बैंच हैं, जिनपर बैठकर सरोवर और महल दोनो के अनुपम सौंदर्य को निहारा जा सकता है।

ताजहमल का संपूर्ण भवन जिस धरती पर अवस्थित है, उसके नीचे संगमरमर का विशाल चबूतरा है, जिसके चारों कोनों पर श्वेत पत्थरों की ऊँची-ऊँची चार मीनारें है। इन मीनारें के ठीक मध्य ताजमहल का गुंबद है, जिसकी ऊँचाई लगभग 280 फुट है। यह गुंबद विश्व का सबसे ऊँचा और भव्य गुंबद है। इसके चारों ओर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं। मीनारों पर भी पच्चीकारी का महीन काम हुआ है।

मुख्य गुंबद के नीचे शाहजहाँ और मुमताज की प्रतीक-समाधियाँ हैं। वास्तविक समाधियाँ नीचे के तहखाने में हैं, जहाँ घोर अंधकार छाया रहता है। दर्शक मोमबत्ती या माचिस की तीली की सहायता से उनके दर्शन कर पाते हैं। सुनते हैं कि प्रथम वर्षा जब होती है, तो पानी की कुछ बूंदें समाधि के ठीक ऊपर गिरती हैं, मानों वर्षा उनके अखंड प्रेम को श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर रही हो। चंद्रमा की श्वेत चाँदनी में ताजमहल का गौर-सौंदर्य और निरख उठता है। इस प्रकार ताजमहल जहाँ अखंड प्रेम का प्रतीक है, वहाँ मुगलीय कला का उत्कृष्ट नमूना भी है।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) ताजमहल किस पत्थर से निर्मित हुआ है?
(ग) शाहजहाँ के लिए किस विशेषण का प्रयोग किया गया है?
(घ) ताजमहल के निर्माण में कितना समय और धन गया?
(ङ) सुवर्णमय शब्द का अर्थ लिखें।
(च) गुंबद का आशय क्या है?
(छ) “मीनारों पर पच्चीकारी का महीन काम हुआ है।’ इस वाक्य से क्या अर्थ निकालेंगे।
(ज) “प्रतीक-समाधियाँ’ से क्या तात्पर्य है?
(झ) ‘ताजमहल अखंड प्रेम का प्रतीक है’-से आप क्या समझते हैं?
(ञ) ‘अनुपम’ में कौन-सा समास है?
उत्तर
(क) अखंड प्रेम का प्रतीक-ताजमहल।
(ख) ताजमहल सुंदर सफेद संगमरमर के पत्थरों से बनाया गया है।
(ग) कला-संस्कृति का अखंड प्रेमी।
(घ) ताजमहल के निर्माण में सत्रह वर्ष का समय और सात करोड़ रुपये लगे।
(ड) सोने के रंग का; सोने में ढला हुआ।
(च) गोलाकार छत वाली इमारत।
(छ) ताजमहल के बड़े-बड़े खंभों पर बहुत छोटे-छोटे और साफ-सुथरे फूल पत्ते उकेरे गए हैं। ..
(ज) समाधियों की स्मृति दिलाने के लिए बनाई गई अवास्तविक समाधियाँ।
(झ) ताजमहल शाहजहाँ और उनकी पत्नी मुमताज के अमर प्रेम की याद दिलाता है।
(ञ) नव-तत्पुरुष।

6. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए:

वर्षा ऋतु का नाम आते ही मन-मयूर नाच उठता है। भयंकर गर्मी से राहत . मिलती है। ठंडी फुहारों से स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती है। सभी ऋतुओं में मनमोहक वर्षा ऋतु है। गर्मी की तपन के बाद वर्षा के फुहारों का आगमन बड़ा आनंददायी होता है। पशु-पक्षी और मानव ही नहीं, पेड़-पौधों पर भी इस ऋतु का प्रभाव पड़ता हैं ऐसा लगता है मानो वीरान व बंजर जमीन पर रंग बिरंगे फूल खिले उठे हो।

वैशाख और ज्येष्ठ मास के भयंकर आगमन के बाद आषाढ़ मास में मोरों की कूक से अहसास होता है कि बरसात की ऋतु आने वाली है। तब तक गर्मी से मन व्यथित हो चुका होता है। वर्षा शुरू होते ही खेत-खलिहानों में हरियाली शुरू हो जाती है। लोग धान की बुआई में व्यस्त हो जाते हैं। मोर जी भरकर नृत्य करते हैं। कोयल की कूक बड़ी सुहानी लगती है। बच्चे उत्साह से भर जाते हैं। नंगे बदन वर्षा में भींगते हुए इधर-उधर भागना बड़ा अच्छा लगता है।

अच्छी बरसात हो तो नर-नारियाँ झूठ उठते हैं। खेतों में लबालब भरे पानी में धान की बुआई, खेतों की जुताई। किसानों का मन मुदित हो उठता है। ऐसा लगता है सारी प्रकृति एक नए अवतार में प्रकट हुई है। सब कुछ वर्षा में धुलकर नया-नया सा लगता है। अच्छी बरसात से धरती में पानी का स्तर बढ़ जाता है। सूखे कुएँ दोबारा पानी से भर जाते हैं। तालाबों और जोहड़ों में बतख और पशु नहाते नज़र आते हैं।

एक तरफ वर्षा ऋत प्रसन्नतादायी अनभति देती है। दूसरी तरफ इस ऋत में कुछ समस्याएँ भी खड़ी हो जाती हैं। महानगरों में सीवर जाम हो जाते हैं, जिसके कारण सड़कों पर नदी का-सा दृश्य दिखाई देता है। यातायात-व्यवस्था चौपट हो जाती है। नदियों में बाढ आ जाती है, जिससे गाँव के गाँव बरबाद हो जाते हैं। जान-माल की बहुत हानि होती है। रास्ते बंद हो जाते हैं अत्यंत परेशानी पैदा होती है। गरीबों में तो वर्षा कहर बनकर आती है। जीवन नारकीय हो जाता है। चारों तरफ कीचड़ ही कीचड़ मकानों की छतें गिर जाती है। झोंपड़ियों की हालत ऐसी हो जाती है मानों वर्षों से वीरान पड़ी हों।

वर्षा ऋतु के जाने के बाद भी हालात सहज नहीं हो पाते एक अजीब-सी बदबू चारों तरफ फैल जाती है। मच्छरों की भरमार हो जाती है। इस प्रकार वर्षा ऋतु खुशियों के साथ गमों का साया भी लेकर आती है।

प्रश्न
( क ) इस गद्यांश का उचित शीर्षक दें।
(ख) मन-मयूर क्यों नाच उठता है?
(ग) स्वर्गिक आनंद की अनुभूति का क्या अर्थ है?
(घ) वर्षा ऋतु किन-किन महीनों में आती है?
(ङ) मन मुदित हो उठना से क्या तात्पर्य है?
(च) वर्षा के बाद प्रकृति का नया रूप कैसे प्रकट होता है?
(छ) अनुभूति शब्द का अर्थ स्पष्ट करें।
(ज) यातायात-व्यवस्था कैसे चौपट हो जाती है?
(झ) गमों का साया से क्या तात्पर्य है?
(ञ) “मन-मयूर’ का विग्रह करके समास का नाम लिखिए।
(ट) ‘मोर’ का तत्सम् शब्द लिखिए।
उत्तर
(क) वर्षा ऋतु का जन-जीवन पर प्रभाव।
(ख) भयंकर गर्मों के बाद जब वर्षा की फुहारें पड़ती हैं तो तन-मन को प्रसन्न कर देती हैं। ठंडी-ठंडी हवाओं से मन नाच उठता है।।
(ग) स्वर्गिक आनंद की अति से अर्थ है-स्वर्ग का आनंद अनुभव होना। अत्यंत खुशी का अनुभव करना।
(घ) वर्षा ऋतु के मुख्य महीने – आषाढ़, श्रावण और भादो।
(ङ) मन मुदित से तात्पर्य है कि मन में अत्यंत खुशी का अनुभव होना। जब मनचाहो बात होती है तो स्वाभाविक रूप से मन प्रसन्न हो उठता है।
(च) वर्षा के बाद प्रकृति का वातावरण बड़ा सुहावना हो जाता है। वर्षा के कारण सब कुछ धुला-धुला सा लगता है। ऐसा लगता है प्रकृति ने वर्षा के माध्यम से हर वस्तु की सफाई कर दी हो। .
(छ) अनुभूति शब्द का अर्थ है- अनुभव होगा, महसूस होना।
(ज) वर्षा के कारण सीवर-व्यवस्था जाम हो जाती है। सब ओर पानी भर जाता है। यातायात व्यवस्था चौपट हो जाती है।
(झ) ‘गमों का साया- से तात्पर्य है-‘दुःख भरा समय आना’।
(ट) मन रूपी मयूर : कर्मधारय समास

7. निम्नलिखित. गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए:

मनुष्य की पूरी जाति, मनुष्य का पूरा जीवन, मनुष्य की पूरी सभ्यता और संस्कृति अधूरी है क्योंकि नारो ने उस संस्कृति के निर्माण में कोई भी दान, कोई भी कंट्रीब्यूशन नहीं किया। नारी कर भी नहीं सकती थी। पुरुष ने उसे करने का कोई मौका भी नहीं किया। हजारों वर्षों तक स्त्री पुरुष से नीचे और छोटी और हीन समझी जाती रही है। कुछ तो देश ऐसे थे जैसे चीन में हजारों वर्ष तक यह माना जाता रहा कि स्त्रियों के भीतर कोई आत्मा नहीं होती। इतना ही नहीं, स्त्रियों की गिनती जड़ पदार्थों के साथ की जाती थी। आज से सौ बरस पहले चीन में अपनी पत्नी की हत्या पर किसी पुरुष को, किसी पति को कोद भी दंड नहीं दिया जाता था क्योंकि पत्नी अपनी संपदा थी। वह उसे जीवित रखे या मार डाले, इससे कानून का और राज्य का कोई संबंध नहीं।

भारत में भी स्त्री को पुरुषों की समानता में कोई अवसर और जीने का मौका नहीं मिला। पश्चिम में भी वही बात थी। चूँकि सारे शास्त्र और सारी सभ्यता और सारी शिक्षा पुरुषों ने निर्मित की है इसलिए पुरुषों ने अपने आप को बिना किसी से पूछे श्रेष्ठ मान लिया है, स्त्री को श्रेष्ठता देने का कोई कारण नहीं। स्वभावतः इसके घातक परिणाम हुए।

सबसे बड़ा घातक परिणाम तो यह हुआ कि स्त्रियों के जो भी गुण थे वे संभ्यता के विकास में सहयोगी न हो सके। सभ्यता अकेले पुरुषों ने विकसित की। अकेले पुरुष के हाथ से जो सभ्यता विकसित होगी उसका अंतिम परिणाम युद्ध के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता। अकंले पुरुष के गुणों पर जो जीवन निर्मित होगा वह जीवन हिंसा के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जा सकता। पुरुषों की प्रवृत्ति में, पुरुष के चित्त में ही हिंसा का, क्रोध का, युद्ध का कोई अनिवार्य हिस्सा है।

नीत्से ने आज से कुछ ही वर्षों पहले यह घोषणा की कि बुद्ध और क्राइस्ट स्त्रैण रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने करुणा और प्रेम की इतनी बातें कहीं हैं, वे बाते पुरुषों के गुण नहीं हैं। नीत्से ने क्राइस्ट को और बुद्ध को स्त्रैण, स्त्रियों जैसा कहा है। एक अर्थ में शायद उसने ठीक ही बात कही है। वह इस अर्थ में कि जीवन में जो भी कोमल गुण हैं, जीवन के जो भी माधुर्य से भरे सौंदर्य, शिव की कल्पना और भावना है वह स्त्री का अनिवार्य स्वभाव है। मनुष्य की सभ्यता माधुर्य और प्रेम और सौंदर्य से नहीं भर सकी, क्रूर और परुष हो गई, कठोर और हिंसक हो गई और अंतिम परिणामों में केवल युद्ध लाती रही।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) लेखक ने मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति को अधूरा क्यों कहा है?
(ग) नारी ने संस्कृति के निर्माण में अपना योगदान क्यों नहीं दिया?
(घ) चीन में नारी के प्रति कैसी दृष्टि थी?
(ङ) भारत में पुरुषों को नारी से श्रेष्ठ क्यों मान लिया गया?
(च) पुरुष-प्रधान समाज का क्या कुपरिणाम हुआ?
(छ) पुरुषों द्वारा विकसित समाज युद्धों की ओर क्यों ले जाता है?
(ज) क्राइस्ट और बुद्ध को स्त्रैण क्यों कहा गया?
(झ) स्त्रियों में कौन-से गुण प्रमुख होते हैं?
(ञ) इस पाठ से संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के दो-दो शब्द छाँटिए।
(ट) इस पाठ से एक सरल, संयुक्त तथा मिश्र वाक्य छाँटिए।
(ठ) विशेषण-विशेष्य के चार युग्म इस पाठ में से छाँटिए।
(ड) मनुष्य, समानता तथा चित्त के दो-दो पर्यायवाची लिखिए।
उत्तर
(क) पुरुष द्वारा निर्मित अधूरी संस्कृति।
(ख) लेखक ने मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति को अधूरा इसलिए कहा है क्योंकि यह केवल परुषों द्वारा निर्मित है। इसके निर्माण में स्त्रियों ने अपना योगदान नहीं दिय
(ग) नारी ने संस्कृति के निर्माण में अपना योगदान इसलिए नहीं दिया क्योंकि उसे पुरुषों ने मौका नहीं दिया। कहीं उसे हीन समझा गया तो कहीं जड़ पदार्थ समझा गया। उसे पुरुष के समान नहीं माना गया।
(घ) चीन में हजारों वर्षों तक नारी की गिनती जड़ पदार्थों में होती रही। पुरुष मानता था कि उसमें आत्मा नहीं होती। इसलिए वह पत्नी को अपनी संपत्ति मानता था। यदि वह उसे मार डालता था तो भी डित नहीं होता था।
(ड़) भारत में भी सारी संस्कृति और सभ्यता का निर्माण पुरुषों ने अपने हाथों से किया, इसलिए उसने पुरुषों को ही अधिक महत्व दिया। नारी को नीच माना गया।
(च) .पुरुष-प्रधान समाज होने का सीधा दुष्परिणाम यह हुआ कि समाज में एक-पर-एक अनेक युद्ध हुए। सारी सभ्यता क्रोध और हिंसा से भर गई।
(छ) पुरुषों के व्यक्तित्व में हिंसा, क्रोध और युद्ध का अनिवार्य तत्त्व है। इसलिए उनके द्वारा निर्मित् संस्कृति युद्धमय ही होगी।
(ज) क्राइस्ट और बुद्ध- दोनों ने अहिंसा, करुणा, सेवा और प्रेम के कोमल भावों को बहुत अधिक महत्व दिया। ये भाव नारी-स्वभाव के गुण हैं। इसलिए नीत्से ने उन्हें स्त्रैण अर्थात् स्त्रियों जैसा. ठीक ही कहा है।
(झ) स्त्रियों में प्रेम, सौंदर्य और मधुरता जैसे कोमल गुण होते हैं। (ब) संस्कृत-परिणाम, सभ्यता। उर्दू- मौका, सिवाय। अंग्रेजी- कंट्रीब्यूशन, क्राइस्ट। (ट) सरल-पुरुष ने उसे करने का कोई मौका भी नहीं दिया। संयुक्त वाक्य?
मिश्र- चूँकि सारे शास्त्र और सारी सभ्यता पुरुषों ने निर्मित की है इसलिए पुरुषों ने अपने आप को बिना किसी से पूछे श्रेष्ठ मान लिया है।
(ठ) 1. घातक परिणाम
2. जड़ पदार्थ
3. कोमल गुण
4. अनिवार्य स्वभाव
(ड) मनुष्य – मानव, मनुज।
समानता- एकता, समता।
चित्त- हृदय, दिल, मन।

8. नीचे दिये गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए:

जुलूस शहर की मुख्य सड़कों से गुजरता हुआ चला जा रहा था। दोनों ओर छतों पर, छज्जों पर, जंगलों पर, वृक्षों पर दर्शकों की दीवारें-सी खड़ी थीं। बीरबल सिंह को आज उनके चेहरों पर एक नयी स्फूर्ति एक नया उत्साह, एक नया गर्व झलकता हुआ मालूम होता था। स्फूर्ति थी वृद्धों के चहरों पर, उत्साह युवकों के और गर्व रमणियों के। यह स्वराज के पथ पर चलने का उत्साह था। अब उनकी यात्रा का लक्ष्य अज्ञात न था, पथभ्रष्टों की भांति इधर-उधर भटकना न था, दलितों की भांति सिर झुका कर रोना न था। स्वाधीनता का सुनहरा शिखर सुदूर दलितों की भाति सिर झुका कर रोना न था। स्वाधीनता का सुनहरा शिखर सुदूर आकाश में चमक रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि लोगों के बीच के नालों और जंगलों की परवाह नहीं है। सब उस सुनहले लक्ष्य पर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे हैं।

ग्यारह बजते-बजते जलस नदी के किनारे जा पहुँचा. जनाजा उतारा गया और लोग शव को गंगा-स्नान कराने के लिए ले चले। उनके शीतल, शांत, पीले मस्तक पर लाठी की चोट साफ नजर आ रही थी। रक्त जमकर काला हो गया था। सिर के बड़े-बड़े बाल खून जम जाने से किसी चित्रकार की तूलिका की भांति चिमट गये थे। कई हजार आदमी इस शहीद के अंतिम दर्शनों के लिए खड़े थे लाठी की चोट उनहें भी नजर आयी। उनकी आत्मा ने जोर से धिक्कारा। वह शव की ओर न ताक सके। मुँह फेर लिया। जिस मनुष्य के दर्शन के लिए, जिसके चरणों की रज मस्तक पर लगाने के लिए लाखों आदमी विकल हो रहे हैं, उसका मैंने इतना अपमान किया। उनकी आत्मा इस समय स्वीकार कर रही थी कि उस निर्दय प्रहार में कर्तव्य के भाव का लेश भी न था, केवल स्वार्थ करने की लिप्सा थी। हजारों आँखें क्रोध से भरी हुई उनकी ओर देख रही थी, पर वह सामने ताकने का साहस न कर सकते थे।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) जुलूस में उत्साह क्यों था?
(ग) बीरबल सिंह चोट के निशान की ओर ताक क्यों नहीं पा रहे थे?
(घ) बीरबल सिंह को किस बात का पश्चाताप हो रहा था?
(ङ) “लिप्सा’ का अर्थ लिखिए।
(च) ‘पथभ्रष्ट’ का सविग्रह समास बनाएँ।
(छ) ‘पथभ्रष्ट’ का सविग्रह समास बनाएँ।
(ज) मदद और खून के लिए तत्सम शब्द लिखिए।
उत्तर
(क) जुलूस या बीरबल सिंह का हृदय-परिवर्तन।
(ख) स्वराज के लिए गौरवमय बलिदान के कारण जलस में उत्साह था।
(ग) बीरबल सिंह ने ही चोट मारी थी। इसी अपराध बोध के कारण वे उधर ताक नहीं पा रहे थे।
(घ) बीरबल सिंह ने ही शहीद को लाठी से मारा था, जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गयी थी। इसी अपराध बोध का पश्चाताप उसे हो रहा था।
(ङ) लिप्सा = लोभ, लालच।
(च) कारनामा करना, अपने पद और शक्ति का प्रभाव दिखाना।
(छ) पथभ्रष्ट = पथ से भ्रष्ट-तत्पुरुष समास।
(ज) मदद = सहायता। खून = रक्त।

9. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उससे संबंधित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए:

आज के युग में कम्प्यूटर का आविष्कार एक वरदान की तरह हुआ है। कम्प्यूटर दुनिया के जटिल से जटिल और श्रमसाध्य कार्यों को चुटकी बजाते ही हल कर देता है। कम्प्यूटर भविष्यवाणी तक कर सकता है, मनोरंजन करा सकता है, आदमी के शरीर का विश्लेषण और अध्ययन कर सकता है तथा दुनिया की किसी भी जानकारी को पकड़ सकता है। कम्न्यूटर सूचनाओं को ही संचार के क्षेत्र में आयीन्न का वास्तविक कारण माना जा सकता है। यह एक ऐसा इलेक्टानिक उपकरण है, जिसमें सूचनाओं का चुम्बकीय टेप भरा जाता है। इसमें चिप पर कार्यक्रम तैयार किये जाते हैं। चिप आदमी के नाखूनों के बराबर होते हैं। इस पर पैकेज तैयार होते हैं, जिसके माध्यम से कम्प्यूटर कार्य करता है।

कम्प्यूटर में टेलीविजन की तरह ही एक स्क्रीन होती है उससे जुड़ा हार्डवेयर होता है और उसी से जडा टाइपराइटर की तरह ही अंकित अक्षरों वाला एक उपकरण होता है जिसे ‘की बोर्ड’ कहते हैं। कम्प्यूटर में मेमोरी अर्थात स्मृति की व्यवस्था होती है। कम्प्यूटर की मेमोरी में सूचनाओं को सुरक्षित रखा जाता है। इसमें एक प्रिंटर भी होता है, जिसके द्वारा सूचनाएँ मुद्रित की जाती हैं।

किसी भी सूचना को की बोर्ड के माध्यम से स्क्रीन पर देखकर अंकित किया जाता है तथा हार्डवेयर द्वारा फ्लापी पर उसे सुरक्षित किया जाता है। फ्लापी पोस्टकार्ड से भी छोटी एक वस्तु है जिसपर सूचनाएँ अंकित हो जाती है, उसी तरह फ्लापी में सूचनाएँ टेप हो जाती है। उस फ्लापी में अंकित सूचनाओं को कभी भी विश्लेषित किया जा सकता है। कम्प्यूटर से जुड़े प्रिंटर के द्वारा उसे प्रिंट किया जा सकता है।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) कम्प्यूटर आज के युग में वरदान है। कैसे?
(ग) कम्प्यूटर क्या-क्या कार्य कर सकता है?
(घ) कम्प्यूटर कैसे कार्य करता है?
(ङ) कम्प्यूटर में सूचनाएँ कैसे भरी जाती है?
(च) फ्लापी क्या होती हैं?
(छ) चिप क्या है?
(ज) ‘श्रमसाध्य’ का अर्थ लिखिए।
उत्तर
(क) कम्प्यू टर।
(ख) कम्प्यूटर कठिन-से-कठिन और श्रमसाध्य कार्यो को अत्यन्त सरलता से कुछ ही क्षणों में संपन्न कर देता है।
(ग) कम्प्यूटर हर तरह का कार्य कर सकता है। जैसे- भविष्यवाणी, छपाई, गणित के कठिन प्रश्न, जासूसी, वैज्ञानिक अनुसंधानों में सहायता, मनारंजन आदि।
(घ) कम्प्यूटर में चुंबकीय टेप भरा जाता है, जिसमें चिप पर कार्यक्रम तैयार किये जाते हैं। इस पर पैकेज तैयार होते हैं, जिसके माध्यम से कम्प्यूटर कार्य करता है।
(ङ) कम्प्यूटर में एक स्क्रीन होता है जो एक हार्डवेयर से जुड़ा होता है और उसी से एक की बोर्ड जुड़ा होता है जिस पर अक्षर अंकित होते हैं। इसी की-बोर्ड की सहायता से इसकी स्मृति में सूचनाएँ भरी जाती हैं।
(च) फ्लापी पोस्टकार्ड से भी छोटी एक वस्तु है जिस पर सूचनाओं को कभी भी विश्लेषित किया जा सकता है।
(छ) चिप आदमी के नाखूनों के बराबर होते हैं जिन पर पैकेज तैयार होते हैं। इसी के माध्यम से कम्प्यूटर कार्य करता है।
(ज) श्रमसाध्य = कठिन परिश्रम।

10. नीचे दिये गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए

एक समय था जब पानी सब जगह मिल जाता था। इसीलिए इसे कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था। लेकिन तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या और जीवन शैली में आये परिवर्तन के कारण जल अब दर्लभ हो गया है। इसी दर्लभता के कारण जल का आर्थिक मूल्य बहुत बढ़ गया है। अब तक जल की प्रमुख माँग फसलों की सिंचाई के लिए होती थी। लेकिन अब उद्योगों और घरेलू उपयोग के लिए भी जल की बहुत आवश्यकता है। इसीलिए जल अब एक बहुमूल्य संसाधन बन गया है। नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में पीने के पानी की मांग बिल्कल अलग-अलग तरह की होती है। आइए, सबसे पहले नगरीय क्षेत्रों में जल की समस्या का अध्ययन करें।

नगरीय क्षेत्रों में सामान्यतः जल का एक ही स्रोत होता है और उसी से सभी की आवश्यकताएं पूरी होती हैं। नगरीय क्षेत्रों में जल, झीलों या कृत्रिम जलाशयों या नदियों के तल में गहरे खोदे गये कुओं या नलकूपों से लाकर इकट्ठा किया जाता है। कभी-कभी जल के लिए इन सभी स्रोतों का उपयोग किया जाता है। इस स्रोतों को लेकर पहले उसमें क्लोरीन जैसे रसायन मिलाकर उसे स्वच्छ किया जाता है। इसके बाद वह पीने के लिए सुरक्षित बन जाता है। ऐसा सुरक्षित जल नगर की सम्पूर्ण जनसंख्या को अनेक बीमारियों से बचाता है। नगरों में जल की भारी मात्रा में आवश्यकता होती है क्योंकि जल को पीने के साथ-साथ सभी घरेलू कामों में उपयोग होता है। बहुत सारा जल तो सीवर में जल-मल बहाने में लग जाता है। जैसे-जैसे नगरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे वहाँ पानी की कमी के कारण झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों को प्रायः बिना साफ किया हुआ गंदा पानी ही पीना पड़ता है। इसी कारण वहाँ प्रायः बिना साफ किया हुआ गंदा पानी ही पीना पड़ता है। इसी कारण वहाँ प्रायः महामारियाँ फैल जाती है। नगरों में उद्योग के लिए भी जल की भारी मात्रा में आवश्यकता होती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में पीने के पानी की आपूर्ति में कई दोष पाये जाते हैं। वहाँ पीने के सुरक्षित पानी का कोई स्रोत नहीं होता है। प्रायः जल के एक स्रोत का ही अनेक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है। उसी में बरतन साफ होते हैं, आदमी और जानवर एक साथ नहाते हैं, कपड़े धोये जाते हैं और गंदगी भी. बहायी जाती है। इसके अतिरिक्त भूमिगत जल कभी खारा होता है और कभी उसका रासायनिक संघटन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इस पानी को स्वच्छ करके मानवीय उपयोग के लायक बनाने की कोई व्यवस्था भी नहीं होती।

प्रश्न
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) पहले सब जगह सुलभ जल अब दुर्लभ क्यों हो गया है?
(ग) जल एक बहुमूल्य संसाधन क्यों बन गया है?
(घ) नगरों में पेयजल की व्यवस्था किस प्रकार की जाती है?
(ङ) नगरों की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में बीमारी का क्या कारण है?
(च) ग्रामीण क्षेत्र में पीने के पानी का अभाव क्यों है?
(छ) दुर्लभ और स्वच्छ का विलोम शब्द बनाएँ?
(ज) नगरीय और मानवीय शब्दों से प्रत्यय अलग कीजिए?
उत्तर-
(क) पेय जल की माँग या पेय जल की आवश्यकता।
(ख) तीव्रगति से बढ़ती जनसंख्या और जीवन शैली में बदलाव के कारण।
(ग) घरेलू उपयोग के साथ-साथ उद्योगों के लिए जल एक बहुमूल्य संसाधन बन गया है।
(घ) नगरों में विभिन्न जलाशयों में एकत्रित जल को जल संयंत्रों से इकट्ठा करके उसमें अनेक पदार्थों को डालकर उसे स्वच्छ किया जाता है।
(ङ) नगरों की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में बीमारी का प्रमुख कारण है-स्वच्छ जल नहीं मिल पाना।
(च) ग्रामीण क्षेत्रों में जल का प्रायः एक ही स्रोत होता है, उसी में गंदगी साफ करना, पशु नहलाना, कपड़ा धोना तथा पीना सब होता है।
(छ) दुर्लभ = सुलभ। स्वच्छ = अस्वच्छ।
(ज) नगरीय = ईय। मानवीय = ईय।

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