Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

Bihar Board Class 11 Home Science व्यवस्थापन Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रोटीन उत्तर श्रेणी का होता है –
(क) चावल
(ख) गेहूँ
(ग) दाल
(घ) खिचड़ी
उत्तर:
(घ) खिचड़ी

प्रश्न 2.
आर्द्र ताप द्वारा भोजन पकाने की मुख्य विधियाँ हैं –
(क) 2
(ख) 4
(ग) 6
(घ) 8
उत्तर:
(ख) 4

प्रश्न 3.
भाप द्वारा भोजन पकाने की विधियाँ हैं –
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर:
(ख) तीन

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प्रश्न 4.
नमक में मिलाया जाता है –
(क) सोडियम
(ख) आयोडीन
(ग) खनिज लवण
(घ) विटामिन्स
उत्तर:
(ख) आयोडीन

प्रश्न 5.
पोषण मान में वृद्धि के लिए विधियाँ अपनायी जाती हैं –
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(घ) चार

प्रश्न 6.
आयोडीन की कमी से होता है –
(क) अन्धापन
(ख) एनेमिया
(ग) स्कर्वी
(घ) घेघा
उत्तर:
(घ) घेघा

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
व्यवस्था (Management) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करते हुए कार्यों को सर्वोत्तम ढंग से करना ताकि अधिकतम लक्ष्यों की पूर्ति हो सके, व्यवस्था कहलाती है।

प्रश्न 2.
व्यवस्था करना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
हमारी आवश्यकताएँ असीमित होती हैं और उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साधन सीमित होते हैं। अत: अधिकाधिक लक्ष्यों और आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सीमित साधनों को समुचित रूप से प्रयोग में लाना आवश्यक है। इसलिए व्यवस्थापन आवश्यक है ताकि अधिकाधिक सन्तुष्टि प्राप्त की जा सके।

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प्रश्न 3.
व्यवस्था (Process of Management) की प्रक्रिया के विभिन्न सोपानों या चरणों के नाम लिखें।
उत्तर:
व्यवस्था की प्रक्रिया एक शृंखला है जिसके विभिन्न चरण निम्नलिखित हैं –

  • आयोजन (Planning)।
  • संयोजन अर्थात् संगठन (Organising)
  • क्रियान्वयन एवं नियंत्रण (Implementary and controlling)
  • मूल्यांकन (Evaluation)।

प्रश्न 4.
मूल्यांकन (Evaluation) की कोई दो विधियाँ लिखें।
उत्तर:
1. निरपेक्ष मूल्यांकन (Absolute Evaluation): जब योजना का मूल्यांकन लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही किया जाता है, उसे निरपेक्ष मूल्यांकन कहते हैं।
2. सापेक्ष मूल्यांकन (Relative Evaluation): जब योजना का मूल्यांकन पहले के अनुभवों या किसी अन्य व्यक्ति की उपलब्धियों की तुलना के आधार पर किया जाता है तो उसे सापेक्ष मूल्यांकन कहते हैं। अधिकतर सापेक्ष मूल्यांकन का ही प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 5.
व्यवस्था की प्रक्रिया की श्रृंखला लिखें।
उत्तर:
व्यवस्था की प्रक्रिया की श्रृंखला (Series of process of management)
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प्रश्न 6.
आयोजन (Planning) के चरण लिखें।
उत्तर:
आयोजन के निम्नलिखित चरण हैं :

  •  सबसे पहले दीर्घकालिक व अल्पकालिक लक्ष्यों को निर्धारित कर परिभाषित कर लें।
  • उन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उपलब्ध साधनों पर सोच-विचार कर सूची बना लें।
  • सभी उपलब्ध साधनों का प्रयोग कब व किसके द्वारा किया जाएगा, इस पर विचार-विनिमय कर लें।

प्रश्न 7.
मूल्यांकन (Evaluation) से क्या लाभ हैं ?
उत्तर:
मूल्यांकन से अनेक लाभ हैं –

  • इससे निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति या आपूर्ति का ज्ञान होता है।
  • लक्ष्यों की प्राप्ति की असफलता के कारणों का ज्ञान होता है।
  • भविष्य में बनाई जाने वाली योजनाओं हेतु सहायता मिलती है।
  • उचित मूल्यांकन द्वारा लक्ष्यों की पूर्ति या आपूर्ति से क्रमशः प्राप्त सन्तुष्टि या असन्तुष्टि का अंकन होता है जो नयी सूझ-बूझ एवं कल्पनाओं का आधार ही है।

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प्रश्न 8.
व्यवस्था की प्रक्रिया (Process of Management) के मुख्य सोपान आपस में किस प्रकार सम्बन्धित हैं ?
उत्तर:
व्यवस्था की प्रक्रिया के मुख्य सोपान आयोजन, संगठन, क्रियान्वयन एवं नियंत्रण और मूल्यांकन का पारस्परिक सम्बन्ध होता है। यह चारों सोपान एक-दूसरे पर आश्रित हैं। कोई भी एक सोपान दूसरे के बिना अर्थहीन है। व्यवस्थापन की प्रक्रिया एक श्रृंखला के समान है। अतः जब आयोजन प्रारम्भ होता है तो उसके साथ ही व्यवस्थापन भी आरम्भ होता है तथा जब क्रियान्वन भी हो रहा हो तो साथ-साथ मूल्यांकन भी होता रहता है। इन्हीं सोपानों की सहायता से लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।

प्रश्न 9.
व्यवस्था की प्रक्रिया से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
गृह व्यवस्था पारिवारिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से किया गया पारिवारिक साधनों का आयोजन, नियन्त्रण एवं मूल्यांकन है। उपलब्ध साधनों से निर्धारित लक्ष्यों को किस सीमा तक प्राप्त किया जा सकता है, यह अधिकांशतः पति-पत्नी की प्रबन्ध करने की योग्यता, रुचि तथा नेतृत्व करने की क्षमता पर निर्भर करता है। न्यूमैन व समर ने प्रक्रिया शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया है, “क्रियाओं की ऐसी श्रृंखला जो उद्देश्य की ओर अग्रसरित करती है।” इस परिभाषा से स्पष्ट है कि एक प्रक्रिया में दो प्रमुख तत्त्व होते हैं-कुछ लक्ष्यों की उपस्थिति एवं उनका क्रियान्वयन ।।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रबंध की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर:
प्रबंध की आवश्यकता (Need for Management)-प्रबंध आज की मुख्य आवश्यकता बन गई है। सही प्रबंध की अनुपस्थिति में यह असंभव है कि उपलब्ध साधनों का प्रयोग करते हुए हम वांछित लक्ष्य तक पहुँच जाएँ। जैसे-जैसे देश विकास करता है, वैसे-वैसे प्रबंध की आवश्यकता भी बढ़ती चली जाती है। उदाहरण के लिए, औद्योगीकरण के परिणाम से महिलाओं के लिए अधिक व लाभप्रद नौकरियाँ, चुनौतीपूर्ण बाजार, घर के उपकरण, परिवार की अधिक गतिशीलता आदि ने महिलाओं के सामने नए विकल्प खोल दिए हैं।

वे सदा अपने आपको बदलाव व चुनौतीपूर्ण वातावरण में पाती हैं। नए वातावरण के अनुसार, समस्या हल करने के लिए उन्हें कई निर्णय करने पड़ते हैं। केवल प्रबंध के द्वारा ही अच्छा परिवर्तन या विकास लाया जा सकता है। बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाने के लिए माता-पिता को भी प्रबंध करना पड़ता है। लोगों को सामाजिक कारणों के लिए भी प्रबंध की आवश्यकता होती है। कुशल प्रबंध व्यक्ति, परिवार और समाज के कल्याण, प्रसन्नता और ऊँचे स्तर पर आधारित होता है।

प्रश्न 2.
प्रबंध की क्या प्रक्रिया है ?
उत्तर:
प्रबंध की प्रक्रिया (The process of management):
घरेलू प्रबंध निम्नलिखित प्रबंध प्रक्रिया से प्राप्त किया जा सकता है –
यह प्रक्रिया, कई कार्यों के द्वारा सफलता की ओर ले जाने वाली है। ये कार्य भिन्न-भिन्न निर्णयों पर, प्रक्रिया की समझ पर तथा कार्य के प्रकार पर आधारित होते हैं। विभिन्न परिवारों का लक्ष्य भी भिन्न होता है। परिवार को वांछित लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए गृहिणी को प्रबंध की वह प्रक्रिया अपनानी पड़ती है जिसमें परिवार के सदस्यों के विभिन्न कार्यों को इकट्ठा कर एक मंजिल की ओर ले जाना पड़ता है।

प्रबंध प्रक्रिया में निम्नलिखित पांच चरण हैं जो एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं –

  • आयोजन
  • संयोजन
  • क्रियान्वयन
  • नियंत्रण
  • मूल्यांकन।

प्रश्न 3.
क्रियान्वयन (Implementation) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
क्रियान्वयन-क्रियान्वयन का अर्थ है योजना को क्रियाशील बनाना। यह प्रबंध प्रक्रिया का क्रियाक्षेत्र है। जब किसी भी योजना को बना लिया गया है तथा साधन जुटाने का काम आयोजित हो चुका है तो अब इसके क्रियाशील होने का समय है। ऊपर लिखित उदाहरण को लेते हुए विद्यार्थी को समय और पढ़ाई की प्रणाली पूरी करनी होगी। यह भी समीक्षा करनी होगी कि लक्ष्य को पाने के लिए आवश्यक तैयारी हो गई या नहीं।

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प्रश्न 4.
संयोजन का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
संयोजन (Organisation): संयोजन प्रबंध का एक कठिन चरण है। योजना की सफलता या असफलता अधिकतर इसी तथ्य पर आधारित होती है कि संयोजन किस प्रकार है ? साधारण शब्दों में संयोजन का अर्थ कहा जा सकता है, वस्तुओं को ठीक ढंग से व्यवस्थित करना। घर मैं अथवा जहाँ कई योजनाएँ बनाई जाती हैं तथा कई कार्य किए जाते हैं, कार्य को कुशलता से करने के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था आवश्यक है।

संयोजन की प्रक्रिया अर्थात् संयोजित करने का अर्थ है परिवार के सभी सदस्यों के कार्य को आवश्यक साधनों के साथ मिलाकर कार्य सम्पन्न करना। उपलब्ध साधनों को मिलाकर लक्ष्य तक पहुंचाना ही संयोजन का कार्य है। ऊपर लिखित उदाहरण में संयोजन का अर्थ होगा आर्किटेक्चरल पद्धति के लिए सम्पूर्ण सूचना व पाठ्यक्रम को एकत्रित करना। आपं अपने परिवार से या अध्यापक से सारी सूचनाएँ ले सकते हैं ताकि प्रवेश निश्चित हो जाए। सारांश में कुशल संयोजन ही बहुत-सी समस्याओं का हल है तथा इसका कोई भी दूसरा विकल्प नहीं है।

प्रश्न 5.
व्यवस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
व्यवस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ (Meaning and Characteristics of Man agement): व्यवस्था की प्रक्रिया को गृह में, लगभग प्रत्येक देश में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किया जाता है जिसके अंतर्गत मानवीय तथा भौतिक साधनों का प्रयोग करके इच्छित लक्ष्यों तक पहुँचा जाता है। व्यवस्था की प्रक्रिया आयोजन, व्यवस्थापन, क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन का मिश्रण है तथा व्यवस्थापक को इन सभी चरणों से परिचित होना आवश्यक है। गृह व्यवस्था जीवन का प्रशासनिक पक्ष होने के कारण न केवल उपर्युक्त चरणों को बल्कि कार्य को प्रेरित करने वाली, निर्णय करने की प्रक्रिया को भी सम्मिलित करता है।

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प्रश्न 6.
वैकल्पिक समाधानों की खोज का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
वैकल्पिक समाधानों की खोज-व्यवस्थापक को अपने ज्ञान, जानकारियों, अनुभवों तथा सलाहों द्वारा विकल्पों को ढूंढना पड़ता है। जब व्यक्ति विकल्पों की खोज करता है तो सिद्धांततः उसे समस्त संभावनाओं से विज्ञ होना चाहिए, परन्तु अनुभव, समय आदि के सीमित होने के कारण ऐसा बहुत कम होता है। स्थायी व मूल्यवान वस्तुओं को खरीदते समय ही लोग निर्णय करने के इस सोपान की ओर ध्यान देते हैं। चरण (1) में दिए गए छात्रा के उदाहरण को यदि हम आगे बढाएं तो निम्नलिखित कुछ वैकल्पिक हल हो सकते हैं:

  • छात्रा के अभिभावकों को उसकी समस्या से परिचित कराया जाए तथा उसके इलाज के लिए प्रेरित किया जाए।
  • मानवता के नाम पर उसके सहपाठियों से या विद्यालय के विभिन्न छात्र-छात्राओं से चंदा जमा कराया जाए तथा इलाज कराया जाए।
  • छात्रा के निर्धन होने की दशा में प्रधानाध्यापिका द्वारा विद्यालय के छात्रनिधि में से कुछ धन निकलवाकर उसकी सहायता की जाए।
  • इलाज के लिए अध्यापिकाओं द्वारा चंदा एकत्र कर लिया जाए।
  • नजदीक के अस्पताल से स्वयं ही उसका इलाज कराया जाए।

प्रश्न 7.
निर्णय (Decision) क्या है ?
उत्तर:
मनुष्य के जीवन में अनेक समस्याएँ आती हैं। इनका समाधान करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हो जाता है। ऐसी स्थिति में निर्णय लेना आवश्यक हो जाता है। निकलवडोसी के अनुसार, “निर्णय लेने का अर्थ किसी समस्या के समाधान के लिए या किसी स्थिति से निपटने के लिए कई विकल्पों में से किसी एक का चयन है।” गौसवकँडल के अनुसार “निर्णय लेना कई कार्यविधियों में से किसी एक का चयन है अथवा किसी को भी अंगीकार न करना है।”

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
गृह-व्यवस्था की प्रक्रिया के कौन-से मुख्य तत्त्व हैं ?
उत्तर:
अधिकांश लोग यह समझते हैं कि गृह-प्रबन्ध परिवार की सभी समस्याओं का पका-पकाया हल तैयार कर देता है। यह धारणा गलत है। वस्तुतः वह केवल उस ढाँचे का निर्माण कर देता है जिससे समस्याएँ स्वाभाविक रूप से हल होती चली जाएँ। निकिल तथा जरसी के अनुसार “गृह-प्रबन्ध के अन्तर्गत परिवार के साधनों का नियोजन, नियन्त्रण तथा मूल्यांकन आता है, जिसके द्वारा पारिवारिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।”
गृह-प्रबन्ध के तीन मुख्यं अंग होते हैं –
1. नियोजन
2. नियन्त्रण
3. मूल्यांकन।
ये तीनों प्रक्रियाएँ परस्पर सम्बद्ध होती हैं और इनका उपयोग परिवार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है। ये तीनों मानसिक प्रक्रियाएँ हैं।
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uifraifich gut an unfa (Achievement of family goals) :
(क) नियोजन (Planning): व्यवस्था प्रक्रिया का प्रथम चरण नियोजन है। आज नियोजन से कोई क्षेत्र नहीं बचा है। नियोजन व्यक्तिगत स्तर से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पाया जाता है। घर में गृहिणी सुबह उठते ही दिन भर के कार्यक्रमों की योजना का ध्यान रखती है। वास्तव में “नियोजन किसी भावी कार्य का पर्वानमान है” “किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए क्या विधि हो, आयोजन इसका निश्चय करता है।”

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कून्ज व ओडोनेल के अनुसार “आयोजन किसी व्यक्ति को क्या करना है, उस कार्य को कैसे करना है, उसे कब करना है व उसे कौन करेगा इसका पूर्व निर्धारण है।” नियोजन वर्तमान व भविष्य के बीच की कड़ी है। नियोजन कार्य आरम्भ होने से पहले ही कर लिया जाता है। भविष्य में किए जाने वाले कार्य का यह पूर्वाभ्यास (Mental Rehearsal) है। इससे भावी कार्य की रूपरेखा तैयार हो जाती है।

आयोजन का लक्ष्यों से सीधा सम्बन्ध है। यदि लक्ष्य स्पष्ट हैं तो आयोजन आसान हो जाएगा परन्तु यदि लक्ष्यों को प्राप्त करने के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ एवं अवरोध होते हैं तो आयोजन करने में अधिक कठिनाई होती है। आयोजन निर्माण करने का ही कार्य है। इसमें योजना बनाने वाले को विचारण, स्मरण, निरीक्षण, तर्कता तथा कल्पना आदि मानसिक शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है।

नियोजन में स्मरण-शक्ति के माध्यम से अतीत के अनुभवों का उपयोग किया जाता है, तर्कता के माध्यम से तथ्यों के मध्य सम्बन्धों को देखा जाता है तथा कल्पना के माध्यम से तथ्यों को नवीन सम्बन्धों के संदर्भ में व्यवस्थित किया जाता है। ये मानसिक शक्तियाँ जितनी अधिक विकसित होती हैं, अयोजन उतना ही अधिक यथार्थ एवं सरल होता जाता है।

आयोजन की विधि (Techniques of Planning):
1. पूर्वानुमान (Forecasting): यह भविष्य में सम्भावित परिस्थितियों पर दृष्टिपात है। इसमें पहले अधिकतम जानकारी एकत्रित की जाती है। यह निश्चित करने का प्रयास किया जाता है कि भविष्य में कैसी स्थितियाँ रहने की अधिकतम सम्भावना है।

2. लक्ष्य बनाना (Developing objective): पहले लक्ष्य स्पष्ट रूप से निर्धारित कर लिया जाता है। लक्ष्य स्पष्ट होने पर ही अग्रसर हुआ जा सकता है।

3. कार्यक्रम (Programme): लक्ष्य तक क्रमिक अवस्थाओं में कैसे पहुँचा जाए यह निश्चित किया जाता है। कार्यक्रम का अर्थ है कार्यों का वह क्रम जिससे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। इसमें यह स्पष्ट किया जाता है कि कार्य को करने में समय, शक्ति, धन व अन्य साधनों का कितना उपयोग करना होगा।

4. समय-तालिका (Scheduling): यह कार्यक्रम में निर्धारित क्रियाओं को करने का समय-क्रम है। कार्यक्रम में परिस्थितियों के अनुसार संशोधन किया जा सकता है।

5. बजट बनाना (Budgeting): यह नियोजन का आर्थिक पक्ष है। गृह प्रबन्ध के संदर्भ में यह चरण सभी गतिविधियों में आवश्यक नहीं है परन्तु धन से सम्बन्धित सभी लक्ष्यों के आयोजन का यह महत्त्वपूर्ण अंग है।

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6. कार्यविधि (Developing procedures): कार्यविधि यह निर्धारित करती है कि किसी कार्य को सफलता से सम्पन्न करने के लिए कौन-सी विधि उचित रहेगी। यह कार्य को सबसे कुशलतापूर्वक करने की विधि की खोज है।

7. नीतियों का विकास (Developing policies): नीति किसी कार्य को एक विशिष् प्रकार से करने का निर्देश है । लक्ष्यों का निर्धारण करने के उपरान्त ही नीतियों का निर्धारण सम्भट है. चूँकि नीति उस लक्ष्य तक पहुँचने का माध्यम है। संक्षेप में नियोजन के विभिन्न चरणों को निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किया उ सकता है

आयोजन की क्रिया – निश्चित करती है –

  • पूर्वानुमान – सम्भावित स्थितियों का अनुभव
  • लक्ष्य बनाना – प्राप्त किए जाने वाले परिणाम
  • कार्यक्रम बनाना – किए जाने वाले कार्यों का क्रम
  • समय तालिका बनाना – कार्यों का समय क्रम
  • बजट बनाना – आवश्यक आर्थिक साधन
  • कार्यविधि विकसित – करना कार्य सरलीकरण आदि
  • नीतियों का विकास – इस सम्बन्ध में लिए गए निर्णय

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1. लम्बी अवधि की योजनाएँ (Long term Planning): ये स्वभाविक रूप से दीर्घकालिक व अधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रहती हैं। एक परिवार द्वारा बनाई गई एक दस वर्षीय बचत योजना इसका उदाहरण है। ऐसी योजनाओं में लचीलापन भी होना चाहिए ताकि उनमें आवश्यकतानुसार संशोधन किया जा सके।

2. अल्प अवधि की योजनाएँ (Short term planning): यह अपेक्षाकृत कम महत्त्व व कम अवधि तक चलने वाली क्रियाओं का आयोजन है। इसमें कार्यों की दैनिक, साप्ताहिक अथवा मासिक सूची बनाना सम्मिलित है। ये लघु योजनाएँ दीर्घकालिक योजनाओं के ही अंग हैं। उन्हें क्रमिक रूप से प्राप्त करने का साधन हैं परन्तु सभी लघु योजनाएँ प्रत्यक्ष रूप से लम्बी अवधि की योजनाओं से सम्बन्धित नहीं होती।

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(ख) नियन्त्रण (Controlling): किसी कार्य के सम्बन्ध में योजना बनाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि जब योजना कार्यान्वित की जाए तो यह देखना भी अनिवार्य है कि पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार कार्य हो रहा है अथवा नहीं। यदि नहों, तो इस प्रकार के निर्देश अथवा सुझाव दिए जाएँ कि कार्य योजनानुकूल हो सके।

नियन्त्रण की प्रमुख तीन अवस्थाएँ हैं :

(अ) बल देना (Energizing): कार्य को प्रारम्भ करके उसे बनाए रखना व्यवस्थापन की एक महत्त्वपूर्ण अवस्था है। व्यक्तियों में योजना को प्रारम्भ करके कार्य करने की योग्यता व प्रेरणा में भिन्नता पायी जाती है। यदि लक्ष्य अपेक्षाकृत अल्प अवधि के हैं तो उन्हें प्राप्त करने की इच्छा अधिक तीव्र रहती है। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति स्वस्थ व प्रसन्नचित्त है तो वह किसी योजना के क्रियान्वयन में अधिक रुचि लेगा। पारिवारिक योजनाओं में परिवार के सदस्यों को प्रेरित करना भी इस चरण का एक भाग है। उत्प्रेरण वह क्रिया है जिसके द्वारा व्यवस्थापक दूसरे सदस्यों को आवश्यक कार्य में सहयोग करने हेतु प्रेरित एवं प्रोत्साहित करता है।

(ब) निरीक्षण (Checking): समय-समय पर क्रियान्वित योजना का निरीक्षण करते रहने से योजना पर नियन्त्रण-सा बना रहता है। यदि कार्य की प्रगति सन्तोषजनक नहीं है तो कार्य विधि में कुछ परिवर्तन करने पड़ेंगे। नियन्त्रण में लचीला दृष्टिकोण लेकर चलना होता है। इसके अतिरिक्त कार्य के प्रति जागरूकता व अनुशासन के साथ ही लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। कार्य क्रियान्वयन करते समय नेतृत्व देने वाला व्यक्ति नियोजन तथा नियन्त्रण करता है परन्तु हमे परिवार के अन्य सदस्यों के सहयोग से।

निरीक्षण करते समय ध्यान को आकर्षित करने के लिए प्रविधियों (Devices) का होना आवश्यक है। उदाहरण-घड़ी ऐसे व्यक्ति के लिए बिल्कुल ही अनावश्यक सिद्ध होगी जिसे यह ज्ञात नहीं है कि आलू को पकाने के लिए सामान्यतः कितना समय चाहिए।

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(स) समायोजन (Adjusting): यदि आवश्यक हो तो योजना का समायोजन करना पड़ता है। उदाहरण-समय न मिलने पर उबले आलुओं की सब्जी न बनाकर परांठे बना दिए। परिस्थिति बदल जाने पर नवीन निर्णय लेने पड़ते हैं। कभी-कभी स्थितियाँ यथावत् रहती हैं, परन्तु योजना में भी दोष हो सकता है। तब योजना में सुधार कर अपने निर्णयों में परिवर्तन करता पड़ता है।

योजना को व्यावहारिक बनाने में निर्देशन व मार्गदर्शन की भी आवश्यकता होती है। कुशल निर्देशन द्वारा स्वयं व दूसरों से अपेक्षाओं के अनुरूप काम लिया जाता है। कार्य की प्रकृति को समझना होता है। उसे पूर्ण करने की विधियाँ भी ज्ञात होनी चाहिए। परिवार के सदस्यों में नई स्फूर्ति भी जागृत करनी होती है ताकि कार्य ठीक से हो सके। परिवार के छोटे सदस्यों के लिए मार्ग-दर्शन भी आवश्यक हो जाता है।

नियन्त्रण की सफलता कई बातों पर निर्भर करती है:
1. उपयुक्त निरीक्षण-निरीक्षण दो प्रकार से किया जा सकता है :
(अ) निर्देशन द्वारा (By Direction): सभी प्रकार के आवश्यक निर्देश दिए जाना आवश्यक है ताकि वांछित परिणाम प्राप्त हो सके।
(ब) मार्गदर्शन द्वारा (By Guidance): मार्गदर्शन में कार्य के परिणाम की अपेक्षा व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों के विकास का प्रमुख उद्देश्य होता है।
कुछ स्थितियों में यात्रिक उपकरणों द्वार माप सम्भव है। यदि रसोई में वैज्ञानिक तुला अथवा साधारण तराजू है तो भोज्य विधि में पदार्थ सही मात्रा में लिये जा सकते हैं।
2. निरीक्षण में शीघ्रता।
3. नए निर्णय-निरीक्षण करने पर यदि दोष दिखाई देते हैं तो शीघ्र निर्णय लेकर उन्हें दूर किया जाना चाहिए।
4. नियन्त्रण में लचीलापन-योजना के लक्ष्यों में तथा नियन्त्रण की विधियों में वांछनीय परिवर्तन करने की सम्भावना बनी रहनी चाहिए।
5. अनुशासन।
6. उचित नेतृत्व।

(ग) मूल्यांकन (Evaluation): मूल्यांकन में सम्पूर्ण योजना व उसके कार्यान्वयन का पुनरीक्षण है। यहाँ यह देखा जाता है कि योजना में अपेक्षित सफलता मिली है या नहीं। यदि नहीं मिली है तो उसके कारणों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
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  1. आगामी समस्या हेतु-निर्णय
  2. सफलता का मूल्यांकन-लक्ष्य
  3. योजना के क्रियान्वयन का नियन्त्रण-क्रिया
  4. समस्या-आयोजन

लेविन के अनुसार मूल्यांकन के चार प्रयोजन होते हैं –

  1. यह देखना कि कितनी उपलब्धि हो चुकी है।
  2. आगामी योजना हेतु आधार का कार्य करना।
  3. पूरी योजना को संशोधित करने हेतु आधार का कार्य करना।
  4. नवीन सूत्र प्राप्त करना।

मूल्यांकन किसका-मूल्यांकन के दो प्रमुख तत्त्व हैं –

  1. स्वयं का मूल्यांकन (Self evaluation)।
  2. व्यवस्था प्रक्रिया का मूल्यांकन (Evaluation of the process of management)।

1. स्वयं का मूल्यांकन-शिक्षा उद्योग अथवा व्यवसाय में मूल्यांकन अपेक्षाकृत सरल है। यहाँ चूंकि एक समूह रहता है, अत: उपलब्धि के आधार पर तुलनात्मक विवेचना सम्भव है। परिवार में स्थिति भिन्न है। परिवार छोटा समूह है और उसमें भी गहकार्य करने वाली ज्यादा अकेली गृहिणी होती है। गृहिणी को स्वयं ही मूल्यांकन करना होगा। परिवार के सदस्य भी एक-दूसरे की उपलब्धियों का निष्पक्ष विवेचन कर सकते हैं। दूसरी गृहिणियों की कार्यावधि तथा उपलब्धियों का निरीक्षण कर अथवा उनकी चर्चा कर गृहिणी तुलनात्मक मापदण्ड बना सकती है जिसके आधार पर मूल्यांकन सम्भव है।

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2. स्व मूल्यांकन-यहाँ गृहिणी स्वयं से एक प्रश्न पूछ सकती है “यदि मुझे यही कार्य पुनः करना पड़ा तो मैं अधिक सफलता प्राप्त करने के लिए क्या परिवर्तन करूँगा?”

3. एक डायरी रखना-इसमें गृहिणी प्रतिदिन की उपलब्धियों का विवरण लिख सकती है। उसे अपनी उपलब्धियाँ देखकर सन्तोष होगा। साथ ही यह भी ज्ञात होगा कि यहाँ कार्य क्षमता के अनुरूप नहीं हो पाए हैं।

(अ) सापेक्ष मूल्यांकन (Relative Evaluation): सापेक्ष मूल्यांकन में पूरी हो चुकी योजना के प्राप्त लक्ष्यों की तुलना किसी आधार से की जाती है अर्थात् योजना की समाप्ति पर लक्ष्यों की प्राप्ति किस अंश तक हुई है इसकी तुलनात्मक विवेचना की जाती है, जैसे-अन्य परिवारों द्वारा प्राप्त लक्ष्य, पिछली योजनाओं में प्राप्त लक्ष्य आदि।
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(ब) निरपेक्ष मूल्यांकन (Absolute Evaluation): इससे प्राप्त लक्ष्यों की तुलना नहीं. की जाती बिना तुलना के ही यह पता लगाया जाता है कि योजना किस सीमा तक सफल रही परन्तु वास्तव में निरपेक्ष मूल्यांकन असम्भव-सा ही है। जब भी गृह-प्रबन्धकर्ता किसी कार्य को अच्छा अथवा बुरा बताता है तो उसके मस्तिष्क में उस कार्य के परिणाम का चित्र अवश्य होता है। यदि कार्य उस विचार से कम हो तो प्रगति को मन्द तथा यदि कार्य सोचे हुए परिणाम से ज्यादा हो तो उसे लक्ष्य प्राप्ति में सफलता समझा जाता है।

प्रश्न 2.
निर्णय-प्रक्रिया को विस्तार से लिखें।
उत्तर:
निर्णय-प्रक्रिया के निम्नलिखित पाँच प्रमुख सोपान हैं :
1. समस्या की व्याख्या (Definition of Problem):
इसमें किसी समस्या के रूप व उसके महत्त्व को स्पष्टतः समझ लेना चाहिए। कई बार स्थिति को ठीक से समझे बिना ही निर्णय ले लिये जाते हैं। ऐसे निर्णय बाद में हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। इस समस्या के मूल में निहित तत्त्वों को पहचान लेना सदा आसान नहीं होता है। कई बार ऐसी समस्या पर विचार करना होता है जिसके विषय में उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं होता।

परिणामतः इसमें अस्पष्टता रह जाती है। जिस समस्या को हल करने के लिये निर्णय लिए जाते हैं वह समस्या परिवार के सभी सदस्यों के मस्तिष्क में स्पष्ट होनी चाहिए। समस्या की जड़ तक जाए बिना उसे ठीक से समझा नहीं जा सकता, न ही उचित समाधान खोजा जा सकता है।

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2. विभिन्न सम्भावित हलों की खोज (Search for Altermate Solutions): विभिन्न विकल्प तथा उनके परिणामों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। विकल्प को ढूँढ़ने की सभी सम्भावनाओं पर विचार करना चाहिए।
उदाहरण-यदि गृहिणी बीमार पड़ जाती है तो घर की देखभाल –

  • या तो पति करेगा।
  • नौकर ढूँढना।
  • महिला सम्बन्धी को कुछ दिन के लिए बुलाना।

इनमें से कौन-सा विकल्प सही है, यह परिस्थिति के अनुसार परिवार को निश्चित करना होगा। अनेक विकल्प होने के कारण निर्णय लेने में गड़बड़ी की सम्भावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति के पास समय और अनुभव सीमित होते हैं।

3. विभिन्न सम्भावित हलों पर चिन्तन (Thinking about alternate solution): इस विषय पर गहराई से विचार करना चाहिए। प्रत्येक विकल्प के अच्छे-बुरे परिणाम क्या हो सकते हैं, इनको सूचीबद्ध भी किया जा सकता है। अच्छा विकल्प वह है जिससे परिवार के अल्पकालीन लक्ष्य पूरे करने में सहायता मिले व दीर्घकालीन लक्ष्यों पर भी विपरीत प्रभाव न पड़े। ‘प्रत्येक विकल्प के परिणाम अनिश्चित भविष्य के गर्त में निहित होते हैं।

भविष्य आंशिक रूप से इसलिए अनिश्चित होता है क्योंकि उसे बाहरी परिवर्तन प्रभावित करते हैं। उनके सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाना प्रायः असम्भव है। इसके अतिरिक्त वह इसलिए भी अनिश्चित होता है क्योंकि भविष्य में विकल्प के प्रति व्यक्ति की भावना में परिवर्तन आ सकता है। इस सोपान को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए कल्पना-शक्ति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

4. उपयुक्त हल का चयन (Selection of possible solution)-अपने सम्भावित विकल्पों में से एक को चुन लेना चाहिए जिससे सबसे अधिक वांछित परिणामों की आशा हो। इसके अतिरिक्त अपनी आवश्यकताओं, लक्ष्यों एवं उपलब्ध साधनों के आधार पर सर्वोत्तम विकल्प का चयन किया जाता है।

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5. निर्णय के परिणामों का स्वीकारण (Acceptance of results of decisions)-जो निर्णय लिये जाते हैं वे सदा आकर्षक नहीं दिखते । कभी-कभी यह होता है कि न चुने हुए विकल्पों में कुछ तत्त्व बड़े आकर्षक लगते हैं। ऐसी स्थिति में निर्णय लेने वाले व्यक्ति को परेशानी अनुभव हो सकती है परन्तु सभी स्थितियों में निर्णयों के परिणाम जो भी हों, उनका स्वीकारण आवश्यक है।

प्रश्न 3.
टोस्टर खरीदने के लिए निर्णय प्रक्रिया के सोपान विस्तार से लिखें।
उत्तर:
टोस्टर खरीदने के लिए निर्णय प्रक्रिया के सोपान –
1. सूचना एकत्रित करना (Obtain Information):
(क) ब्रांड्स का मिलना (Brands available)
(ख) गारंटी (Guarantee)
(ग) मानकीकरण चिह्न (Standardization mark)
(घ) कीमत (Cost)
(ङ) वोल्टेज (Voltage)
2. धनात्मक व ऋणात्मक प्रभाव-प्रत्येक विकल्प का मूल्यांकन करना तथा विभिन्न सम्भावित हलों की खोज।
3. विभिन्न सम्भावित हलों पर चिन्तन।
4. उपयुक्त हल का चयन।
5. सबसे अच्छी ब्रांड का चयन और खरीदना।

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