Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions
Bihar Board Class 11th Hindi काव्य रूप
प्रश्न 1.
प्रबंधकाव्य और मुक्तक काव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, दोनों का अंतर भी रेखांकित कीजिए।
उत्तर-
प्रबंधकाव्य-जिस काव्य में शृंखलाबद्ध रूप से पूर्व और पश्चात् के संदर्मों से जुड़ी हुई कोई कथा प्रस्तुत की गई हो उसे ‘प्रबंधकाव्य’ कहते हैं।
‘प्रबंध’ का अभिप्राय-व्यवस्था। प्रबंधकाव्य में विभिन्न घटनाएँ एक व्यवस्थित रूप से परस्पर जुड़ी होती हैं। विविध पात्रों के चरित्र भी किसी-न-किसी रूप में एक-दूसरे से सुग्रथित तथा प्रभावित प्रतीत होते हैं। आरंभ से अंत तक कोई एक ही विचार या उद्देश्य सिद्ध होता है। प्रकृति, समाज, देश, नगर, आदि का वर्णन का मूल कथा अथवा चरित्र से संबंद्ध होता है।
मुक्तककाव्य-‘मुक्त’ का अभिप्राय है-पहले या बाद के सभी संदर्भो से मुक्ति। जिस कविता, छंद या पद्य का अर्थ बोध अपने-आप में इतना पूर्ण हो कि कोई एक भाव या विचार स्वतः स्पष्ट हो जाए। उसकी स्पष्टता के लिए अन्य संदों को जानने की आवश्यकता न हो। इसमें किसी प्रकार की कथात्मकता, पात्र या चरित्र की विकास-प्रक्रिया का अभाव होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि “एक ऐसा पद्य या कुछ पद्यों का समूह ‘मुक्तक’ कहलाता है जो अपने-आप में पूर्ण अर्थ, भाव या विचार का बोध करा दे।”
प्रबंधकाव्य और मुक्तककाव्य में अंतर-ये दोनों विधाएँ ‘पद्य’-बद्ध होती हैं। दोनों में। भाषा-सौष्ठव, नाद-सौंदर्य, अलंकार-विधान, बिंबात्मक चित्रण तथा प्रतीकात्मक प्रयोग हो सकते हैं।
फिर भी दोनों में कई दृष्टियों से अंतर स्पष्ट है-
- प्रबंधकाव्य’ में कथा-तत्त्व अनिवार्य है। ‘मुक्तककाव्य’ में कथा-तत्त्व का सर्वथा अभाव होता है।
- प्रबंधकाव्य’ में विभिन्न पात्रों के व्यक्तित्व और विचार प्रतिबिंबित होते हैं। ‘मुक्तककाव्य’ में केवल रचनाकार (कवि) निजी अनुभूतियों या विचारों की अभिव्यंजना।
- प्रबंधकाव्य’ का आकार-प्रकार व्यापक होता है। उसमें अलग-अलग शीर्षकों से, या शीर्षक-रहित भी अनेक खंड, अध्याय, सर्ग, परिच्छेद आदि हो सकते हैं। ‘मुक्तककाव्य’ का आकार सीमित रहता है। कई बार केवल एक ही पद्य (छंद) किसी एक भाव को व्यजित कर देता है। वर्तमान युग में ‘गीत’ के रूप में ‘मुक्तक’ काव्य की रचना हो रही है। साथ ही, केवल, चार, तीन, अथवा दो पंक्तियों के मुक्तक भी रचे जाते हैं।
- ‘प्रबंधकाव्य’ में विभिन्न भाव या विचारों की अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने के लिए प्रकृति, समाज, युग आदि का परिवेश पर्याप्त सहायक होता है। ‘मुक्तककाव्य’ में केवल एक ‘भाव’ या ‘विचार’ प्रमुख होता है। उसकी व्यंजना के लिए संकेत रूप में मानव-जीवन या प्रकृति का कोई दृष्टांत, बिंब या प्रतीक आदि अवश्य सहायक होता है।
प्रश्न 2.
महाकाव्य तथा खंडकाव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए दोनों के अंतर को दर्शाने वाली अलग-अलग विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
महाकाव्य-‘महाकाव्य’ प्रबंध काव्य का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और बहुप्रचलित रूप है। अंग्रेजी में इसे ‘एपिक’ कहा जाता है। संसार का सभी भाषाओं में अत्यंत प्रसिद्ध, गरिमायुक्त और कालजयी महाकाव्यों की परंपरा रही है। संस्कृत और हिन्दी में भी विश्वप्रसिद्ध महाकाव्यों की रचना हुई है। वर्तमान युग में गीता, प्रगीत, नवगीत, आदि मुक्त काव्य-रचना का प्रचलन अधिक होने के कारण महाकाव्य-रचना की प्रवृत्ति कुछ कम हो गई है। “महाकाव्य उस प्रबंधकाव्य को कहते हैं जिसमें किसी महान व्यक्ति को प्रायः समग्र जीवन विकासात्मक चित्रण किसी महान उद्देश्य की दृष्टि से किया गया हो।”
प्राचीन तथा आधुनिक साहित्यशास्त्रियों ने मुख्य रूप से महाकाव्य के निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है
- महाकाव्य का आकार विशाल होता है। वह प्रायः आठ या अधिक सर्गों अर्थात् अध्यायों, खंडों या परिच्छेदों में विभक्त होना चाहिए।
- महाकाव्य की कथा प्रसिद्ध अर्थात् प्राचीन ग्रंथों या इतिहास आदि पर भी आधारित हो सकता है और पूर्णतया कल्पित भी। कभी-कभी महाकाव्य में इतिहास या पुराण आदि ग्रंथों से कोई कथा ग्रहण करके, उसमें कुछ कल्पित प्रसंग भी जोड़ दिए जाते हैं।
- महाकाव्य में मुख्यतया किसी एक महान व्यक्ति के जीवन और व्यक्ति का प्रस्तुतीकरण होता है। कई बार एक-से अधिक महान व्यक्तियों के जीवन को भी प्रस्तुत किया जाता है किन्तु केन्द्रीय पात्र (नायक) कोई एक ही होता है अन्य महत्त्वपूर्ण पात्र प्रतिनायक, सहनायक, खलनायक आदि के रूप में हो सकते हैं। वैसे गौण पात्र तो अनेक होते हैं।
- महाकाव्य में जीवन, जगत, प्रकृति आदि के विविध पहलुओं का विशद वर्णन अपेक्षित है। मानव-जीवन का विकास जिस परिवेश, वातावरण और प्राकृतिक या सामाजिक परिप्रेक्ष्य में होता है उसकी विहंगम झलक महाकाव्य में होनी आवश्यक है।
- महाकाव्य की रचना किसी महान उद्देश्य से की जाती है। सहृदय पाठकों को उसके अध्ययन से कोई महान प्रेरणा, संदेश या आदर्श संप्रेषित हो। उसका मूल मंतव्य लोक-मंगल की साधना में ही निहित रहता है।
- महाकाव्य प्रायः विषयप्रधान होता है, विषयिप्रधान नहीं। हाँ, उसमें कथात्मक पद्य के साथ-साथ भावात्मक पद्य भी हो सकते हैं। छंदों का रूप बीच-बीच में बदलता रहे तो रोचकता
और विविधता बनी रहती है। - महाकाव्य का प्राण-तत्त्व है-हर प्रकार का वैविध्य। मानव-जीवन और जगत के विविध पहलू-सुख, दु:ख, राग-वैराग, युद्ध शांति, द्वंद्व-प्रेम, आशा-निराशा आदि के विरोधाभासी चित्र से उत्साह, कर्मठता आदि का संचार महाकाव्य में हो, क्योंकि जीवन का वास्तविक विकास प्रकृति की गोद में ही होता है।
- प्राचीन साहित्य शास्त्री महाकाव्य में श्रृंगार, वीर या शांत रस की प्रधानता एवं अन्य रसों की भी सहस्थिति आवश्यक मानते हैं। परंतु आजकल ‘रस’ की अपेक्षा उदात्त भाव, आदर्श विचार और महान उद्दश्य पर बल दिया जाता है।
“खंडकाव्य-‘खंड’ का अभिप्राय है-भाग, अंश, हिस्सा। भारतीय साहित्यशास्त्र में ‘खंडकाव्य’ को ‘एकदेशानुसरी’ कहा गया है। इसमें मूलतः जीवन के किसी एक प्रमुख पहलू या प्रसंग, एक ही विशेष उद्देश्य, एक ही परिवेश, एक ही भाव या विचार का वर्णन या चित्रण होता है।
‘खंडकाव्य’ का भी प्रायः वही विशेषताएँ हैं जो महाकाव्य से जुड़ी हैं। जैसे-प्रसिद्ध या प्रेरक, कथा, उद्दात्त, चरित्र, प्रकृति-चित्रण, विविधता आदि। परंतु इसका क्षेत्र सीमित तथा कथा-विस्तार आशिक रहता है।
महाकाव्य और खंडकाव्य में अन्तर-ये दोनों विधाएँ प्रबंधकाव्य के अंतर्गत आती हैं। दोनों में किसी महान व्यक्ति के उदत्त चरित्र के माध्यम से किसी महान उद्देश्य की सिद्धि रचनाकार की दृष्टि में रहती है। फिर भी दोनों का अंतर स्पष्ट करने वाली प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-
- ‘महाकाव्य’ का फलल पर्याप्त विस्तृत और व्यापक होता है। ‘खंडकाव्य’ सीमित और संक्षिप्त रूप लिए रहता है।
- महाकाव्य’ में कथा-विकास की समग्रता और पूर्णता होती है। ‘खंडकाव्य’ सीमित और संक्षिप्त रूप लिए रहता है।
- ‘महाकाव्य’ में जीवन, जगत और प्रकृति की विविधता समन्वित रहती है। ‘खंडकाव्य’ में जीवन, जगत या समाज के किसी एक विशेष पहलू को केन्द्र में रखकर संबद्ध युग-परिवेश का चित्रण किया जाता है।
- ‘महाकाव्य’ में एक केन्द्रिय पात्र (नायक) होते हुए भी अन्य अनेक पात्र भी किसी-न-किसी रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ‘खंडकाव्य’ में रचनाकार की दृष्टि किसी एक व्यक्ति के चरित्रोंद्धाटन तक सीमित रहती है।
- ‘महाकाव्य’ मुख्यतया ‘विषय-प्रधान’ होता है। खंडकाव्य में विषयगत पक्ष प्रबल होता
प्रश्न 3.
मुक्त काव्य के विविध प्रचलित रूपों की चर्चा करते हुए उन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।।
उत्तर-
मुक्तक काव्य के मुख्य रूप से प्रचलित रूप हैं-
(क) पाठ्य मुक्तक
(ख) गेय-मुक्तक।
(क) पाठ्य-मुक्तक-ऐसी कथा-मुक्त पद्य रचना जिसे पढ़कर या सुनकर ही रसास्वादन होता है। इसे गाया नहीं जा सकता। अत: यह ‘अंगेय’ मुक्तक भी कहलाता है। प्राचीन और मध्यकालीन कवियों द्वारा रचित दोहे, सवैये, कवित्त आदि प्रायः इसी के अन्तर्गत आते हैं।
(ख) गेय मुक्तक-‘गेय’ का अभिप्राय है-गाए जाने योग्य। जो कथा-रहित कविता लय-ताल-सुर आदि के माध्यम से गाई जा सके वह ‘गेय मुक्तक’ कहलाता है। कबीर, तुलसी, मीराबाई, सूरदास, आदि प्राचीन भक्त-कवियों के पद ‘गेय’ कहलाते हैं। इनकी रचना प्रायः विभिन्न राग-रागिनियों के आधार पर हुई है। इसके अतिरिक्त आधुनिक युग में ‘गेय’ मुक्तक के मुख्य रूप से प्रचलित रूप हैं-गीत, प्रगीत, चतुष्पदी, गजल।
गीत-गाई जाने वाली पद्य-रचना ‘गीत’ कहलाती है। इसमें प्रथम एक संक्षिप्त पक्ति ‘स्वामी’ के रूप में होती है। अन्य छह, आठ, या अधिक पंक्तियाँ उससे कुछ बड़ी किन्तु उसी जैसे अत्यानुप्रास (तुक-विन्यास) से युक्त होती है। अनेक समीक्षक प्राचीन कवियों के पदों को भी ‘गीत’ ही मानते हैं। परंतु उनकी रचना विभिन्न राग-रागनियों के आधार पर होने के कारण उन्हें ‘पद’ या ‘शब्द’ (शब्द या सबद) कहा जाता है। इनका मुख्य विषय भक्ति, प्रभु-प्रेम अथवा विषय-भावना है।
आधुनिक युग में ‘गीत’ विषयवस्तु की दृष्टि से विविधता से युक्त है। इसमें सौंदर्य, प्रेम, . प्रकृति-चित्रण, सुख-दु:ख आदि रागात्मक अनुभृतियों के अतिरिक्त राष्ट्रीयता, सामाजिक भावना, मानवीय स्थितियों का यथार्थ चित्र आदि कुछ भी हो सकता है।
कुछ उदाहरण से ‘गीत’ का स्वरूप स्पष्ट समझा जा सकता है-
(क) हरि अपने आँगन कछु गावत।
तनक-तनक चरननि सौ नाचक, मनहीं मनहिं रिझावत।
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सुर स्याम के बाल-चरित, नित-नित ही देखत भावत। (सूरदास)
(ख) आए महंत वसंत।
मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला,
बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला,
चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत।
आए महंत वसंत।
(ग) जो तुम आ जाते एक बार।
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग।
गाता प्राणों का तार-तार
आँसू लेते वे पद प्रखार।
जो तुम आ जाते एक बार। (महादेवी वर्मा)
प्रगीत-‘गीतकाव्य’ के ही एक अन्य नाम ‘प्रगीत’ है। इसमें तुक-प्रयोग कहीं निकट, कहीं दूर हो सकता है। अत: गीत की भांति इसको गाया जाना आवश्यक नहीं। अंग्रेजी में इसे ‘लिरिक’ कहते हैं। मुक्त छंद में रचित होने पर भी प्रगीत में एक आंतरिक भाव-लय अवश्य होती है। जैसे-
वे तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
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बढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप (निराला)
चतुष्पदी-‘चतुष्पदी’ का अभिप्राय है-चार पैरों (चरणों अर्थात् पंक्तियों) वाली छोटी-सी पद्य-रचना। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की चतुष्पदियाँ प्रसिद्ध है जिन्हें उन्होंने ‘चौपादे’ कहा है।
जब कलेजा ही तुम्हारे है नहीं,
तब सकोगे किस तरह तुम प्यार करा।
सिर जले ! वह सुख तुम्हें जो मिल सका,
वार अपने को छुरे की वार पर।
गजल-फारसी और उर्दू कविता में ‘गजल’ का विशेष प्रचलन रहा है। इसे ‘गीत’ से इसलिए अलग माना जा सकता है क्योंकि इसमें पहली दो पंक्तियों के ही अत्यानुप्रास को आगे चौथी, छठी, आठवी आदि पंक्ति में दोहराया जाता है। इसमें भाव-तारतम्य आवश्यक नहीं। हर दो पंक्तियों में कोई अलग अनुभूति, भावना, जीवन-अनुभव की कोई विशेष बात हो सकती है। हिन्दी में दुष्यंत कुमार, शमशेर सिंह, आदि की तरह आजकल अनेक कवि ‘गजल’ के माध्यम से भाव-व्यंजना कर रहे हैं। जैसे-
आखिरी यह गीत बस हम गा रहे हैं।
मत बुलाना मौत ! अब हम जा रहे हैं।
अब न कोई चाह हमको जिंदगी की,
एक धड़कन है, उसे दोहरा रहे हैं।