Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions
Bihar Board Class 11th Hindi प्रमुख रचनाकर एवं रचनाएँ
विद्यापति दरभंगा जिले के विसपी ग्राम में महाकवि विद्यापति का जन्म 1380 ई. के आसपास हुआ था। उनके पिता श्रीगणपति ठाकुर मिथिला के तत्कालीन राजदरबार के अत्यंत सम्मानित पंडित थे। विद्यापति का भी उक्त दरबार में ससम्मान प्रवेश हुआ। कीर्तिसिंह के दरबार में तो उन्हें प्रतिष्ठा मिली ही महाराज शिवसिंह एवं उनकी धर्मपत्नी लखिमा देवी के भी वे कृपापात्र थे, जिनकी प्रशंसा उन्होंने अपने अनेक पदों में की है।
विद्यापति की प्रमुख रचनाएँ हैं-‘कीर्तिलता’, ‘कीर्तिपताका’, ‘भू-परिक्रमा’, ‘पुरुष-परीक्षा’, ‘लिखनावली’, ‘शैवसिद्धान्तसार’, ‘गंगावाक्यावली’,’विभागसार’, ‘दानवाक्यावली’, ‘दुर्गाभक्तितरंगिणी’ इत्यादि। ‘कीर्तिलता’ में तिरहुत राजा कीर्तिसिंह की वीरता, उदारता, गुण-ग्राहकता आदि का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया गया है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने ‘कीर्तिलता’ के संबंध में लिखा है, “इस रचना से कवि विद्यापति की प्रबंध-प्रतिभा का पता चलता है। यद्यपि यह काव्य मध्यकालीन ऐतिहासिक कथाकाव्यों की शैली में लिखी गई है, किन्तु कवि ने परिपाटी के प्रतिकूल इसमें अपने संरक्षक नरेश की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा प्रायः नहीं की है। मध्यकालीन कथाकाव्य प्रायः पद्य में लिखे गए हैं।
‘कीर्तिलता’ प्रचलित चरितकाव्यों किंचित् भिन्न शैली में लिखी गई है। इसमें अलंकृत पद्य भी है।” इसमें सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निंदा, नगर-वर्णन, युद्ध-वर्णन जैसे मध्यकालीन कथाकाव्यों की रूढ़ियाँ भी हैं, किन्तु अत्यंत भव्य हैं। कीर्तिपताका’ भी प्रशस्तिमूलक काव्य है, किन्तु इसमें महाराज कीर्तिसिंह के वंशज शिवसिंह महाराज की प्रशंसा है। ‘भू-परिक्रमा’ राजा शिवसिंह की आज्ञा से लिखित भूगोल-संबंधी पुस्तक है।
‘पुरुष-परीक्षा’ में कवि ने दण्डनीति का निरूपण किया है। ‘लिखनवाली’ में चिट्ठी-पत्री लिखने का निदर्शन है। ‘शैवसिद्धान्तसार’ में दान-संबंधी शास्त्र, ‘विभागसार’ संपत्ति के बँटवारे की विविध समस्याओं के समाधान एवं ‘दुर्गाभक्तितरंगिणी’ में दुर्गा की भावपूर्ण भक्ति से संबंधित पद हैं। इनके अतिरिक्त, ‘मंजरी’ नामक एक नाटक की भी रचना उन्होंने की है।
♣ अमीर खुसरो
कवि अमीर खुसरो इस युग के अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। उनके काव्योत्कर्ष का प्रमाण उनकी फारसी रचनाएँ हैं। वे संगीतज्ञ, इतिहासकार, कोशकार, बहुभाषाविद्, सूफी औलिया, कवि बहुत कुछ थे। उनकी हिन्दी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय रही हैं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सखुने अभी तक लोगों की जवान पर हैं। उनके नाम से निम्नलिखित दोहा बहुत प्रसिद्ध है। कहते हैं कि यह दोहा अमीर खुसरो ने हजरत निजामुद्दीन औलिया के देहांत पर कहा था-
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।
उनकी हिन्दी रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व है। उनकी भाषा, हिन्दी की आधुनिक काव्य भाषा के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित होने का संकेत देती है। उनकी व्यक्तित्व और उनकी हिन्दी इस बात को प्रमाणित करती है कि हिन्दी काव्य प्रारंभ से ही मध्य देश की मिली-जुली संस्कृति का चित्र रहा है। उन्होंने ऐसी पंक्तियाँ रची हैं जिनमें फारसी और हिन्दी को एक ही ध्वनि प्रवाह ‘ में गुंफित कर दिया गया है। यह कला संस्कृति-साधक का ही सिद्ध कर सकता है-
जे हाल मिसकी मकन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिजॉब दारम ऐ जाँ न लेहु काहे लगाय छतिया।
शबाने हिजा दराज चूं जुल्फ व रोजे वसलत चूं उम्र को तह।
सखी पिया को जो मैं न देखू तो कैसे का, अंधेरी रतियाँ।
♣ कबीर
सन्त कबीर के जन्म और उनके माता-पिता को लेकर बहुत विवाद है। लेकिन यह स्पष्ट है कि कबीर जुलाहा थे, क्योंकि उन्होंने अपनी कविता में खुद को अनेक बार जुलाहा कहा है।
कबीर का अपना पंथ तथा संप्रदाय क्या था, इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। वे रामानंद के शिष्य के रूप में विख्यात हैं, किन्तु उनके ‘राम’ रामानंद के ‘राम’ नहीं हैं। शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरु कहा जाता है, किन्तु इसकी पुष्टि नहीं होती। संभवत: कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन सबसे किसी-न-किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे।
कबीर के काव्य पर अनेक साधनाओं का प्रभाव है। उनमें वेदांत का अद्वैत, नाथ पंथियों की अंतस्साधनात्मक रहस्य भावना, हठयोग, कुंडलिनी योग, सहज साधना, इस्लाम का एकेश्वरवाद सब कुछ मिलता है।
हठयोग की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग उन्होंने खूब किया है, साथ ही अहिंसा की भावना पर भी बल दिया है। कबीर की वाणी का संग्रह बीजक कहलाता है।
इसके तीन भाग हैं-
- रमैनी
- सबद और
- साखी।
रमैनी और सबद में गेयपद हैं, साखी दोहों में है। रमैनी और सबद ब्रजभाषा में हैं जो तत्कालीन मध्य देश की काव्य भाषा थी।
कबीर ने धार्मिक साधनाओं को आत्मसात अवश्य किया था। किन्तु वे इन साधनाओं को भक्ति की भूमिका या तैयारी मात्र मानते थे। जीवन की सार्थकता वे भक्ति या भगवद् विषयक रति में ही मानते थे। यद्यपि उनके राम निराकार हैं, किन्तु वे मानवीय भावनाओं के आलंबन हैं। इसीलिए कबीर ने निराकार, निर्गुण राम को भी अनेक प्रकार के मानवीय संबंधों में याद किया है। वे ‘भरतार’ हैं, कबीर ‘बहुरिया’ हैं। वे कबीर की माँ हैं-‘हरिजननी मैं बालक तोरा।’ वे पिता भी हैं जिनके साथ कबीर बाजार जाने की जिद करते हैं।
कबीर भक्ति के बिना सारी साधनाओं को व्यर्थ मानते हैं। इसी प्रेम एवं भक्ति के बल पर वे अपने युग के सारे मिथ्याचार, कर्मकांड, अमानवीयता, हिंसा, परपीड़ा को चुनौती देते हैं। वे बाह्य आडंबरों और पाखंड के प्रबल विरोधी थे और इस भावना को उन्होंने बार-बार अपनी कविताओं में मुखारित किया है। वे ऊँच-नीचे, जात-पात, धर्म-संप्रदाय आदि की संकीर्णताओं का आजीवन विरोध करते रहे। उनके काव्य उनके व्यक्तित्व और उनकी साधना में जो अक्खड़पन, निर्भीकता और दो टूकपन है वह भी इसी भक्ति के कारण।
वे पूर्व साधनाओं की पारिभाषिक शब्दावली को अपनाकर भी उसमें नया अर्थ भरते हैं। . कबीर अपने अनुभव को प्रमाण मानते हैं, शास्त्र को नहीं। इस दृष्टि से वे यथार्थबोध के रचनाकार हैं। उनके यहाँ जो व्यंग्य की तीव्रता और धार है वह भी कथनी-करनी के अंतर को देख पाने की क्षमता के कारण। वे परंपरा द्वारा दिए गए समाधान को अस्वीकार करके नए प्रश्न पूछते हैं-‘चलन चलन सब लोग कहते हैं, न जानों बैकुंठ कहाँ है? या न जाने तेरा साहब कैसा है?”
परंपरा पर संदेह, यथार्थ-बोध, व्यंग्य, काला-बोध की तीव्रता और गहरी मानवीय करुणा के कारण कबीर आधुनिक भाव-बोध के बहुत निकट लगते हैं। किन्तु कबीर में रहस्य भावना भी है और राम में अनन्य भक्ति तो उनकी मूल भाव-भूमि ही है।
नाद, बिन्दु, कुंडलिनी, षड्चक्रभेदन आदि का बारंबार वर्णन कबीर के काव्य का रहस्यवादी पक्ष है। कबीर में स्वाभाविक रहस्य भावना बहुत मार्मिक रूप से व्यक्त हुई है। ऐसे अवसरों पर वे प्रायः जिज्ञासु होते हैं-
कहो भइया अंबर कासौ लागा।
कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों की उलटबांसियाँ प्रसिद्ध हैं। उलटवासियों का पूर्व रूप हमें सिद्धों गंधा भाषा में मिलता है। उलटबाँसियाँ अनुभूतियों को असामान्य प्रतीकों में प्रकट करती है। व्यस्था को मानने वाले संस्कारों को धक्का देती हैं। इन प्रतीकों का अर्थ खुलने पर ही उलट का समझ में आती हैं।
♣ तुलसीदास
तुलसीदास मध्यकालीन के उन श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं जिनकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है। तुलसी का बचपन घोर दरिद्रता एवं असहायावस्था में बीता था। उन्होंने लिखा है कि माता-पिता ने दुनिया में पैदा करके मुझे त्याग दिया। विधाता ने भी मेरे भाग्य में कोई भलाई नहीं लिखी-
मातु पिता जग जाई तथ्यो, विधि ह न लिखी कछु भाल भलाई।
जैसे कुटिल कीट को पैदा करके छोड़ देते हैं वैसे ही मेरे माँ-बाप ने मुझे त्याग दिया-
तनु जन्यों कुटिल कीट ज्यों तज्यों माता पिता हूँ।
उनके जन्म स्थान के विषय में काफी विवादे हैं। किन्तु अधिकतर विद्वान राजापुर को ही उनका जन्म स्थान मानते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 12 ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं-दोहावली, कवित रामायण (कवितावली); गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञाप्रश्न, विनयपत्रिका रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपिनी, श्रीकृष्णगीतावली। रामचरितमानस तुलसी की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा आधार है। इसकी रचना गोस्वामी जी ने 1754 ई. में प्रारंभ की जैसा कि उनकी इस अर्धाली से प्रकट है-
संवत सोरह सौ इकतीसा। करऊ कथा हरिपद धरि सीसा।।
गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं। उन्हें हिन्दी का जातीय कवि कहा जाता है। उन्होंने मध्य काल में प्रचलित दोनों काव्य. भाषाओं-ब्रजभाषा और अवधी में समान अधिकार से रचना की है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि उनहोंने मध्य काल में व्यवहत प्रायः सभी काव्यरूपों का उपयोग किया है। केवल तुलसीदास की ही रचनाओं को देखकर समझा जा सकता है कि मध्य कालीन हिन्दी साहित्य में किन काव्यरूपों में रचनाएं होती थीं।
उन्होंने वीरगाता काव्य की छप्पय-पद्धति, विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति, गंगा आदि कवियों की कवित्त-सवैया पद्धति, रहीम के समान दोहे और बरवै, जायसी की तरह चौपाई-दोहे के क्रम से प्रबंध काव्य रचे। रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में “हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचनाशैली के ऊपर गोस्वामी जी ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।”
तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में काव्य के लोकमंगलकारी पक्ष पर अधिक बल दिया है। इसी दृष्टि से उन्होंने तत्कालीन सामंतों की लोलुपता पर प्रहार किया है। प्रजा-द्रोही शासक तुलसी की रचनाओं में प्रायः उनके कोपभाजन बनते हैं। उन्होंने अकाल, महामारी के साथ-साथ प्रजा से अधिक कर वसूलने की भी निंदा की। अपने समय की विभिन्न धार्मिक साधनाओं के पाखंड का उद्घाटन किया।
तुलसी की दृष्टि में जो बुरा है, वह कलिकाल का प्रभाव है। यहाँ तक कि यदि लोग वर्णश्रम धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं तो वह भी कलिकाल का प्रभाव है। वे दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित सर्वसुखद रामराज्य का स्वप्न बुनता है। रामराज्य तुलसी की आदर्श व्यवस्था है। इसके नायक एवं व्यवस्था तुलसी के राम हैं।
प्रबंधकार कवि के लिए कथा के उचित अवयवों में अनुपात की जो आवश्यकता पड़ती है, वह तुलसी में प्रचुर मात्रा में थी। कथा में कौन-सा प्रसंग कितनी दूर तक चलना चाहिए, इसकी उन्हें सच्ची पहचान थी। इसके साथ उन्हें कथा के मार्मिक स्थलों की भी पहचान थी। रामचरितमानस या अन्य काव्यों में उन्होंने अधिक विस्तार उन्हीं अंशों को दिया है जो मार्मिक हैं, अर्थात् जिनमें मनुष्य का मन देर तक रम सकता है, जैसे-पुष्पवाटिका प्रसंग, राम-वन-गमन, दशरथ-मरण, भरत की ग्लानि वन-मार्ग, लक्ष्मण शक्ति।
किस स्थिति में पड़ा हुआ पात्र कैसी चेष्टा करेगा-इसे जानने और चित्रित करने में तुलसी अद्वितीय हैं। वे मानव मन के परम कुशल चितेरे हैं। चित्रकूट में राम और भरत मिलन के अपतर पर जो सभा जुड़ती है उसमें राम, भरत, जनक, विश्वामित्र आदि के वक्तव्य मध्य कालीन शालीनता एवं वाक्-विदग्धता का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
तुलसीदास जिस प्रकार ब्रजभाषा और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखते हैं उसी प्रकार प्रबंध और मुक्तक दोनों की रचना में भी कुशल हैं। वस्तुतः तुलसी ने गीतावली, कवितावली आदि में मुक्तकों में कथा कही है। यह विरोधाभाषा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि इन मुक्तकों को एक साथ पढ़िए तो प्रबंध का और अलग-अलग पढ़िए तो वे स्वतंत्र मुक्तकों का आनंद देते हैं। इनमें विनयपत्रिका की स्थिति विशिष्ट हैं।
तुलसी की रचनाओं से जहाँ एक ओर रामभक्ति शाखा की अभूतपूर्व वृद्धि, हुई, वहीं दूसरी ओर यह भी हुआ है कि रामभक्ति शाखा के साहित्य में होने वाले परवर्ती कवि उनके आगे धूमिल पड़ गए। इस प्रकार तुलसी परवर्ती सगुण रामभक्त कवियों का ऐतिहासिक महत्व अधिक, साहित्यिक महत्व अपेक्षाकृत कम।
♣ सूरदास
हिन्दी साहित्य में श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास के बारे में भक्तमाल और चौरासी वैष्णवों की वार्ता से थोड़ा-बहुत जानकारी मिल जाती है। आईने अकबरी और मुंशियात अबुलफजल में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारस के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं। जनश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। भक्तमाल में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा उनकी अंधता का उल्लेख है। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु या स्वामी के रूप में रहते थे। वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उन्हें वहाँ भजन-कीर्तन का कार्य सौंपा।
सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे। उन्होंने अपने को जन्म से आँधर कहा भी है कि किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए। सूर के काव्य में प्रकृति और जीवन का जो सूक्ष्म सौंदर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे।
सूरदास वात्सल्य और श्रृंगार के कवि हैं भारतीय साहित्य क्या संभवतः विश्व साहित्य में कोई कवि वात्सल्य के क्षेत्र में उनके समकक्ष नहीं है। यह उनकी ऐसी विशेषता है कि इसी के आधार पर वे साहित्य क्षेत्र में अत्यंत उच्च स्थान के अधिकारी माने जा सकते हैं। बाल जीवन का ऐसा अनुपम चित्रण महान सहृदय और मानव-प्रेमी व्यक्ति ही कर सकता है। सूरदास ने वात्सल्य और श्रृंगार का वर्णन लोक सामान्य की भावभूमि पर किया है। सूर ने अपनी रचना में प्रकृति और जीवन के कर्म के क्षेत्रों को अचूक कौशल से उतार लिया है। लोक साहित्य की सहज जीवंतता जितनी सूर के साहित्य में मिलती हैं, हिन्दी के किसी कवि में नहीं।
♣ बिहारी
कवि बिहारी का जन्म 1595 ई. में (संवत् 1625 वि.) ग्वालियर में हुआ था। उनके पिता का नाम केशवराय था। उनको एक भाई और एक बहन थी। उनका विवाह मथुरा के किसी माथुर ब्राह्मण की कन्या से हुआ था। बिहारी को कोई संतान न थी, इसलिए अपने भतीजे निरंजन को गोद ले लिया। वे घरबारी चौबे थे। कहा जाता है कि उनके जन्म के 7-8 वर्ष बाद उनके पिता केशवराय ग्वालियर छोड़कर ओरछा चले गए। वहीं बिहारीलाल को सुप्रसिद्ध आचार्य शवदास से कवि-शिक्षा प्राप्त हुई। ओरछा में ही उन्होंने संस्कृत-प्राकृत का अध्ययन किया।
उसके बाद वे आगरा आ गए जहाँ उन्होंने उर्दू-फारसी का ज्ञान प्राप्त किया। यहाँ उन्होंने खानखाना अब्दुर्रहीम की प्रशंसा में कुछ दोहे लिखे जिनपर वे पुरस्कृत हुए। वे शाहजहाँ के तो कृपा र थे ही, जोधपुर और राज्यों के भी आश्रय में रहे थे। जयपुर के राजा जयसिंह और उनकी पत्नी अनंतदेवी के ही प्रिय कवि थे। बिहारी रसिक जीव थे, किन्तु उनकी रसिकता गरिक, जीवन की रसिकानावे विनोदी और व्यंग्यप्रिय जीव थे। 1663 ई. (संवत् 1720 वि.) के आसपास उनका परलोक गमन हुआ।
उनकी कविताओं का एक ही कालजयी संग्रह ‘बिहारी सतसई’ है जिसमें 713 मुक्तक दोहे और सोरठ हैं। दोहों के अनुपात में सोरठे नगण्य हैं। उनके तीन कवित्त भी मिलते हैं। यद्यपि। हारी की इतनी ही रचनाएँ मिलती हैं, किन्तु उनके मार्ग पर चलनेवालों, उनका भावापहरण बालों, उनकी सतसई के एक विशाल समुदाय के लोकप्रियता का पता चलहास कराना है।
करनेवालों, उनकी सतसई के अनेक प्रकार के टीका-ग्रंथकारों, आलोचकों, तुलनात्मक आलोचकों और छिटपुट निबंध-लेखकों का एक विशाल समुदाय है जिससे बिहारी की प्रतिभा, परविर्ती हिन्दी साहित्य पर उनके अप्रतिम प्रभाव एवं उनकी अतुल लोकप्रियता का पता चलता है। ‘बिहारी सतसई’ के सम्यक् अध्ययन के बिना साहित्यकों की जमात में बैठना अपना उपहास कराना है। ‘रामचतिमानस’ के बाद हिन्दी भाषा-भाषियों पर किसी का भी कोई वैसा ही और सम्मोहक प्रभाव पड़ा तो ‘बिहारी सतसई’ का ही। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि अपनी कल्पना की समाहार-शक्ति एवं भाषा की अप्रतिम समास-शक्ति के कारण उन्होंने अपने मुक्तकों को उनके उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया है।
कभी परंपरा के पार्श्व में चलकर तो कभी उसमें गोते लगाकर बिहारी ने श्रृंगारपरक रचनाएँ की हैं जिनकी लंबी परंपरा उनके काल तक संस्कृत और प्राकृत के गाथा एवं शतक-ग्रंथों के रूप में बन चुकी थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘बिहारी सतसई’ किसी रीति-परंपरा की उपज नहीं है। यह एक विशाल परंपरा के लगभग अतिम छोर पर पड़ती है और अपनी परंपरा को संभवतः अंतिम बिन्दु तक ले जाती है। इतनी दीर्घ परंपरा के अनुयायी कवि में पुरानापन रह ही जाता है। फिर, बिहारी सूक्ति-संग्राहक कवि थे। उन्होंने पुरानी बातों को पॉलिश करके, खराद के, संवार के नया रूप दिया है। इसी कला का चलता नाम ‘मजमून छीन लेना’ हैं। बिहारी सजग कलाकार थे।
शृंगार-रस की अभिव्यंजना में नायक-नायिका के रूप-वर्णन के क्रम में उनकी शोभा, दीप्ति, कांति और माधुर्य का भी चित्र उन्होंने उन नायक-नायिकाओं की अंगिक एवं वाचिक चेष्टाओं के साथ खींचा है। इसी दिशा में काव्य-लक्ष्मी की जैसी भव्यता और कलापटुता बिहारी में दिखाई पड़ती है, जैसी अन्य कवियों के काव्यों में नहीं। यों तो उन्होंने नख-शिख-वर्णन किया है किन्तु नेत्रों का 41 बड़ी रुचि के साथ किया है। श्रृंगार के सीमित क्षेत्र में, वह भी विशेषतः संयोग श्रृंगार के, इतनी दूर तक धावा मारनेवाला और कोई कवि नहीं हुआ।
श्रृंगार के अतिरिक्त उन्होंने भक्ति और नीतिपरक भी कुछ दोहे लिखे हैं जो अपने क्षेत्र में प्रतिमान हैं। कुछ दोहों से उनके ज्योतिष ज्ञान का गांभाय भी प्रकट होता है। उनकी भाषा ब्राजी है जिसपर बुंदेलखंडी और पूर्वी का भी प्रभाव है। पूर्वी शब्दों का पश्चिमी अर्थों में ही प्रयोग उन्होंने किया है। उन्होंने कोई लक्षण ग्रंथ नहीं लिखा, किन्तु उनकी मानसिकता में उसके तत्त्व विद्यमान थे। अतः, वे लक्षण ग्रंथ न लिखकर भी रीतिकाल के आचार्य और सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है। उनके अलंकार प्रायः आवेग-साकर हैं, अत: वे उनके काव्य को ऊर्जास्वल तेज से भर देते हैं। ऊहात्मकाता कहीं-कहीं उनके दोहों को हस्यास्पद भी बना देती है।
♣ रैदास
रैदास रामानंद के शिष्य कहे जाते हैं। उन्होंने अपने पदों में कबीर और सेन का उल्लेख किया है। अनुमानतः 15वीं शदी उनका समय रहा होगा। धन्ना और मीराबाई ने रैदास का उल्लेख आदरपूर्वक किया है। यह भी कहा जाता है कि मीराबाई रैदास की शिष्या थीं। रैदास ने अपने को एकाधिक स्थलों पर चमार जाति का कहा है-‘कह रैदास खलास चमारा’ या ‘ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारा’।
रैदास कोशी के थे। रैदास के पद गुरुग्रंथ साहब में संकलित हैं। कुछ फुटकल पद सतबानी में है। रैदास की भक्ति का ढाँचा निर्गुणवादियों का ही है, किन्तु उनका स्वर कबीर जैसा आक्रामक नहीं। रैदास की कविता की विशेषता उनकी निरीहता है। वे अनन्यता पर बल देते हैं। रैदास में निरीहता के साथ-साथ कुंठाहीनता का भाव द्रष्टव्य है। भक्ति भावना ने उनमें वह बल भर दिया था जिसके आधार पर वे डंके की चोट पर घोषित कर सके-
जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
फिरहिं अजहुँ बानारसी आस-पासा।
आचार सहित बिप्र करहिं डंड उति
तिन तनै रविदास दासानुदासा।
रैदास की भाषा सरल, प्रवाहमयी और गेय है।
♣ गुरु नानक
गुरु नानक का जन्म तलवंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था। इनके पिता का नाम कालूचंद खत्री और माँ का नाम तृप्ता था। इनकी पत्नी का नाम सुलक्षणी था। कहते हैं कि इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु इनका मन भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया। इन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया। गुरु नानक ने व्यापक देशाटन किया और मक्का-मदीना तक की यात्रा की।
कहते हैं कि मुगल-सम्राट बाबर से भी इनकी भेंट हुई थी। यात्रा के दौरान इनके साथी और शिष्य रागी नामक मुस्लिम थे जो इनके द्वारा रचित पदों को गाते थे। गुरु नानक ने पंजाबी के साथ हिन्दी में भी कविताएँ की। इनकी हिन्दी में ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का मेल है। भक्ति और विनय के पद बहुत मार्मिक हैं। उदारता और सहनशीलता इनके व्यक्तित्व और रचना की विशेषता है। इनके दोहों में जीवन के अनुभव उसी प्रकार गुंथे हैं जैसे कबीर की रचनाओं में। आदि गुरुग्रंथ साहब के अंतर्गत ‘पहला’ नामक प्रकरण में इनकी वाणी संकलित है।
उसमें सब्द, सलोल मिलते हैं। गुरु नानक की रचनाएँ हैं- जपुजी, आसादीवार, रहिरास और सोहिला। गुरु नानक की परंपरा में उनके उत्तराधिकारी गुरु कवि हुए। इनमें गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुन, गुरु तेगबहादुर और दसवें गुरु गोविंद सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं।
♣ दादूदयाल
कबीर की तरह दादू के ही जन्म और उनकी जाति के विषय में विवाद और अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ लोग उन्हें गुजराती ब्राह्मण मानते हैं, कुछ लोग मोची या धुनिया। चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी और क्षितिमोहन सेन के अनुसार दादू मुसलमान थे और उनका नाम दाऊद था। रामचंद्र शुक्ल का विचार है कि उनकी बानी में कबीर का नाम बहुत जगह आया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे उन्हीं के मतानुयायी थे। वे आमेर, मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए जयपुर आए। वहीं से नराने नामक स्थान पर उन्होंने शरीर छोड़ा। वह स्थान दादू पंथियों का केन्द्र है। दादू की रचनाओं का संग्रह उनके दो शिष्यों संतदास और जगनदास ने हरडेवानी नाम से किया था। कालांतर में रज्जब ने इसका संकलन अंगवधू नाम से किया।
दादू की कविता जन सामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतएव सरल एवं सहजन है। दादू भी कबीर के समान अनुभव को ही प्रमाण मानते थे। दादू की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम और व्याकुलता का भाव है। कबीर की भांति उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया है। उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ। उनकी भाषा पश्चिमी राजस्थानी से प्रभावित हिन्दी है। उसमें अरबी-फारसी के काफी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है।
♣ सुंदरदास
सुंदरदास 6 वर्ष की आयु में दादू के शिष्य हो गए थे। उनका जन्म जयपुर के निकट द्यौसा नामक स्थान पर हुआ था। दादू की मृत्यु के बाद एक संत जगजीवन के साथ वे 10 वर्ष की आयु में काशी चले आए। वहाँ 30 वर्ष की आयु तक उन्होंने गहन अध्ययन किया। काशी से लौटकर वे राजस्थान में शेखावटी के निकट फतेहपुर नामक स्थान पर गए। वे फारसी भी बहुत अच्छा जानते थे। उनका देहांत सांगानेर में हुआ। – निर्गुण संत कवियों में सुंदरदास सर्वाधिक शास्त्रज्ञ एवं सुशिक्षित थे। कहते हैं कि वे अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुंदर थे।
सुशिक्षित होने के कारण उनकी कविता में कलात्मकता है और भाषा परिमार्जित निर्गुण संतों ने प्राय: गेयपद ओर दोहे ही लिखे हैं। सुंदरदास ने कवित्त और सवैये भी रचे हैं। उनकी काव्यभाषा में अलंकारों का प्रयोग खूब है। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ सुंदरविलास है। काव्य-कला में शिक्षित होने के कारण उनकी रचनाएँ निर्गुण साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं। निर्गुण साधना और भक्ति के अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक व्यवहार, लोकनीति और भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के आचार-व्यवहार पर भी उक्तियाँ कही हैं। लोक धर्म और लोक मर्यादा की उन्होंने अपने काव्य में उपेक्षा नहीं की है।
♣ रज्जब
रज्जब भी दादू के ही शिष्य थे। ये भी राजस्थान के थे। इनकी कविताएँ साफ और सहज हैं। भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अधिक है और इस्लामी साधना के शब्द भी हैं।
निर्गुण संतों की ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्य प्रसिद्ध संत कवि मलूकदास, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी और हरिदास निरंजनी हैं। दयाबाई और सहजोबाई जैसे संत कवियित्रियाँ तथा कबीर के विषय धर्मदास की गणना इसी परंपरा में होती है। इनमें धर्मदास की रचनाओं का संतों में बहुत आदर है। इनकी कविताएँ सरल और प्रेम प्रधान है।
♣ कुतुबुन
कुतुबुन ने मिरगावत रचना 1503-04 ई. में की थी। सोहरावर्दी पंथ के ज्ञात होते हैं। रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ये जौनपुर के बादशाह हुसैन शाह के आश्रित थे। इसमें नायक मृगी रूपी नायिका पर मोहित हो जाता है और उसकी खोज में निकल पड़ता है। अंत में शिकार खेलते समय सिंह द्वारा मारा जाता है। यह रचना अनेक कथानक-रुढ़ियों से युक्त है। भाषा प्रवाहमयी है।
♣ मालिक मुहम्मद जायसी
हिन्दी में सूफी काव्य-परंपरा के श्रेष्ठ कवि मलिक मुहम्मद जायसी है। ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है। जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते थे। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत सम्मान था। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-अखरावट, आखिरी कलाम और पद्मावत। कहते हैं कि एक नवोपलब्ध काव्य कन्हावत भी इनकी रचना है, किन्तु कन्हावत का पाठ प्रामाणिक नहीं लगता। अखरावट में देवनागरी वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर रचना की गई है। आखिरी कलाम में कयामत का वर्णन है। कवि के यश का आधार है पद्मावत। इसकी रचना कवि ने 1520 ई. के आस-पास की थी।
पद्मावत प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध काव्य है। यह दोहा-चौपाई में। निबंध मसनवी शैली में लिखा गया है। पद्मावत की काव्य-भूमिका विशद एवं उदात्त है। कवि ने प्रारंभ में ही प्रकट कर दिया है कि जीवन और जगत को देखने वाली उसकी दृष्टि व्यापक और परस्पर विरोध को आँकने वाली है। कवि अल्लाह को इस विविधतामय सृष्टि का कर्ता कहता है-
कीन्हेसि नाग मुखहि विष बसा। कीन्हेसि मंत्र हरह जेहिं डसा।
कीन्हेसि अमिट जिअन जेहि पाएँ। कीन्हेसि विष जो मीचु तेहि खाएँ।
कीन्हेसि अखि मीठि रस भरी। कन्हिएसि करइ बेलि बहु फरी।
उपर्युक्त पंक्तियों में जायसी वस्तुओं का परस्पर-विरोध देख-दिखा रहे हैं। उनकी दी सामाजिक विषमता की ओर भी जाती है-
कीन्हेसि कोई भखारि कोई धनी। कीन्हेसि संपति बिपति पुन धनी।
काहू भोग भुगुति सुख सारा। कहा काहू भूख भवन दुख भारा॥
जायसी इन सबको अल्लाह का ही किया हुआ मानते थे।
पद्मावत की कथा चित्तौड़ के शासक रतनसेन और सिंहल देश की राजकन्या पद्मिन’ की प्रेम कहानी पर आधारित है। इसमें कवि ने कौशलपूर्वक कल्पना एवं ऐतिहासिकता का श्रण कर दिया है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण और विजय ऐतिहासिक टना है। रतनसेन अपनी विवाहित पत्नी नागमती को छोड़कर पद्मिनी की खोज में योगी होकर . पड़ता है। पद्मिनी से उसका विवाह होता है। राघवचेतन नामक पंडित पद्मिनी के रूप की प्रशंसा अलाउद्दीन से करता है। अलाउद्दीन छल से रतनसेन को पकड़कर दिल्ली से जाता है। गोरा-बादल वीरतापूर्वक रतनसेन को छुड़ा लेते हैं। बाद में तरनसेन एक अन्य राजा देवपाल से लड़ाई में मारा जाता है। पद्मिनी और नागमती राजा के शव को लेकर सती हो जाती है। अलाउद्दीन जब चित्तौड़ पहुँचता है उसे उसकी राख मिलती है।
जायसी ने इस प्रेम कथा को आधिकारिक एवं आनुषंगिक कथाओं के ताने-बाने में बहुत जतन से बाँधा है। पद्मावत आद्यंत ‘मानुष-प्रेम’ अर्थात् मानवीय प्रेम की महिमा व्यजित करता है। हीरामन शुक शुरू में कहता है-
मानुस प्रेम भउँ बैकुठी। नाहिं त काह छार भरि मूठी।
रचना के अंत में छार भरि मूठि आती है। अलाउद्दीन पद्मिनी के सती होने के बाद चित्तौड़ पहुँचता है तो यहाँ राख ही मिलती है-
छार उठाइ लीन्हि एक मूठी। दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी।
कवि ने कौशल से यह मार्मिक व्यंजना की है कि जो पद्मिनी रतनसेन के लिए ‘पारस रूप’ है वही अलाउद्दीन जैसे के लिए मुट्ठी भर धूल। मध्यकालीन रोमांचक आख्यानों का कथानक प्रायः बिखर जाता है, किन्तु पद्मावत का कथानक सुगठित है।
पद्मावत विशुद्ध अवधी में रचित काव्य है। इनमें रामचरितमानस की भांति अनेक क्षेत्रों की भाषाओं का मेल नहीं है। इसलिए विशुद्ध अवधी का जो सहज और चलना रूप पद्मावत में मिलता है, मानस में नहीं। इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग भी बहुत कम या नहीं के बराबर है। जायसी का प्रिय अलंकार हेतूत्प्रेक्षा है जैसे
पिउ सो कहहु संदेसड़ा, हे भौंरा हे काग।
सो धनि बिरहे जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग॥
♣ मंझन
मंझन ने 1545 ई. में मधुमालती की रचना की। मधुमालती में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में भेज देती हैं और वही नायक नायिका को देखता है। इसमें मनोहर और मधुमालती की प्रेम कथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की प्रेम कथा चलती है। इसमें प्रेम का बहुत ऊँचा आदर्श सामने रखा गया है। सूफी काव्यों में नायक की प्रायः दो पलियाँ होती हैं, किन्तु इसमें मनोहर प्रेमा से बहन का संबंध स्थापित करता है।
इनके अतिरिक्त सूफी काव्य परंपरा के अन्य उल्लेखनीय कवि और काव्य इस प्रकार हैं-उसमान ने 1613 ई. में चित्रावली की रचना की। शेख नबी ने 1619 ई. में ज्ञानद्वीवीय नामक काव्य लिखा। कासिम शाह ने 1731 ई. में हंस जवाहिर रचा। नूरमुहम्मद ने 1744 ई. में इंद्रावती और 1764 ई. में अनुराग बाँसुरी लिखी। अनुराग बाँसुरी में शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर रूपक बाँधा गया है। इन्होंने चौपाइयों के बीच में दोहे न रखकर बरवै रखे हैं।
♣ नाभादास
रामानंद के शिष्यों में से एक अनंतानंद थे। उनके शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। ये 1575 ६. के. आस-पास वर्तमान थे। उनकी चार रचनाओं का पता चलता है। उन्हें कृष्णदास पयहारी के शिष्य प्रसिद्ध भक्त नाभादास थे। नाभादास की रचना भक्तमाल का हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक महत्व है। इसकी रचना नाभादास ने 1585 ई. के आस-पास की। इसकी टीका प्रियादास ने 1712 ई. में लिखी। इसमें 200 भक्तों के चरित 316 छप्पयों में वर्णित हैं। इसका उद्देश्य तो जनता में भक्ति का प्रचार था, किन्तु आधुनिक इतिहासकारों के लिए यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का महत्वपूर्ण आधार-ग्रंथ सिद्ध हुआ है।
इस ग्रंथ से रामानंद, कबीर, तुलसी, सूर, गोरा आदि के विषय में अनेक तथ्यों का भी पता चल जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे पता तो अचूक तौर पर लग ही जाता है कि वर्णित भक्तों एवं भक्त-कवियों की कवि जन सामान्य में कैसी थी और जिस समाज में भक्तों कवियों, महापुरुषों के जीवन वृत्त के विषय में इतना कम ज्ञात हो, उसमें इतना पता लग जाना भी बहुत काम की बात है।
रामभक्ति शाखा के कुछ अन्य उल्लेखनीय कवि प्राणनंद चौहान (17वीं शती) एवं हृदय .. राम (17वीं शती) हैं। प्राणनंद चौहान ने सन् 1610 ई. में रामायण महानाटक लिखा। हृदय ने 1613 ई. में भाषा अनुगान्नाटक लिखा।
रामचंद्रिका को ध्यान में रखें तो केशवदास रामभक्ति शाखा के कवि ठहरते हैं, यद्यपि साहित्य के इतिहास की दृष्टि से केशवदास का अधिक महत्व उनके आचार्यत्व में है। रामचंद्रिका के संवाद बहुत नाटकीय हैं और उसमें विविध छंदों का प्रयोग किया गया है। केशवदास ने रामचंद्रिका की रचना 1601 ई. में की थी।
♣ नंददास
नंददास 16वीं शती के अंतिम चरण में विद्यमान थे। इनके विषय में भक्तमाल में लिखा है-‘चंद्रहास-अग्रज सुहृदय परम प्रेम-पथ में पगे।’ इनके काव्य के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है-‘और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया।’ इससे प्रकट होता है कि इनके काव्य का कला पक्ष महत्वपूर्ण है। इनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-रामपंचाध्यायी, सिद्धांत पंचाध्यायी, भागवत दशम स्कंध, रुक्मिणीमंगल, रूपमंजरी, रसमंजरी, दानलीला, मानलीला आदि। इनके यश का आधार रासपंचाध्यायी है। रासपंचाध्यायी भागवत के रासपंचाध्यायी के अंश पर आधारित है। यह रोला छंद में रचित है। कृष्ण की रास लीला का वर्णन इस काव्य में कोमल एवं सानुप्रास पदावली में किया गया है, जो संगीतात्मकता से युक्त है, जैसे-
ताही छन उडुराज उदित रस-रास-सहायक,
कुंकुम-मंडित-बदल प्रिया जनु नागरि नायक।
कोमल किरन अरुन मानो बन व्यापि रही यों,
मनसिज खेल्यो फागु घुमड़ि घुरि रह्यो गुलाल ज्यों।
अष्टछाप के शेष कवियों ने भी लीला गान के पद कहे हैं जो प्रधानतः शृंगारी हैं। राधा और कृष्ण के रूप में एवं शृंगार के साथ-साथ उनके चरित्र का गुणगान इन कवियों का विषय रहा है।
कृष्णदास (16वीं शती) वल्लभाचार्य के कृपा-पात्र थे और मंदिर के प्रधान हो गए थे। इनका रचना हुआ जुगमान चरित्र नामक ग्रंथ मिलता है। परमानंद दास (16वीं शती) के 835 पद परमानंद सागर में संकलित है। इनकी कविताएँ सरसता के कारण प्रसिद्ध हैं। कुंभनदास परमानंददास के समकालीन थे। ये अत्यंत स्वाभिमानी भक्त थे। इन्होंने फतेहपुर सीकरी के राजसम्मान से खिन्न होकर कहा था-
संतन को कहा सीकरी सो काम।
कुंभनदास का कोई ग्रंथ नहीं मिलता, फुटकल पद ही मिलते हैं। चतुर्भुजदास. कुंभनदास के पुत्र थे। इनकी तीन कृतियाँ मिलती हैं-द्वादश यश, भक्तिप्रताप, हितजू को मंगल। छीतस्वामी 16वीं शती के उत्तरार्द्ध में वर्तमान थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता. फुटंकल पद ही मिलते हैं। गोविंद स्वामी के रचनाकाल 1543 ई. ओर 1568 ई. के बीच रहा होगा। कहा जाता है कि इनका गाना सुनने के लिए कभी-कभी तानसेन भी आते थे। इनका भी कोई ग्रंथ नहीं मिलता।
♣ मीराबाई
मीराबाई के बारे में अनेक किंवदंतियाँ गढ़ ली गई हैं। ये महाराणा सांगा की पुत्र-वधू और महाराणा कुमार भोजराज की पत्नी थीं। कहा जाता है कि विवाह के कुछ वर्षों के बाद जब इनके पति का देहांत हो गया तो ये साधु-संतों के बीच भजन-कीर्तन करने लगीं। इस पर इनके परिवार के लोग, विशेषकर, देवर राणा विक्रमादित्य बहुत रूष्ट हुए। उन्होंने इन्हें नाना प्रकार की यातनाएँ दीं। इन्हें विष तक दिया गया। खिन्न होकर इन्होंने राजकुल छोड़ दिया। इनकी मृत्यु द्वारिका में हुई।
मीरा का सामान्य लोगों के बीच उठना-बैठना उस सामाजिक व्यवस्था को असाह्य था जिसमें नारी पति के मरने पर या तो सती हो सकती थी या घर की चहारदीवारी के भीतर वैधव्य झेलने के लिए अभिशप्त थी। मीरा को भक्त होने के लिए लोक-लाज छोड़नी पड़ी। लोक-लाज तजन की बात मीरा की कविताओं में बार-बार आती है। मीरा ने अपने इष्टदेव गिरधर नागर को जो रूप चित्रित किया है, वह अत्यंत मोहक हैं। मीरा के यहाँ विरह वेदना उनका यथार्थ है तो कृष्ण मिलन उनका स्वप्न। मीरा के जीवन के यथार्थ की प्रतिनिधि पंक्ति हैं-‘अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेलि बोई।’ और उनके स्वप्न की प्रतिनिधि पंक्ति है-“सावन माँ उमग्यो म्हारो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री।” मीरा के काव्य में मध्य कालीन नारी का जीवन बिंबित है।
मीरा भक्त कवयित्री है। उनकी व्याकुलता एवं वेदना उनकी कविता में निश्छल अभिव्यक्ति पाती है। मीरा की कविता के रूप, रस और ध्वनि के प्रभावशाली बिम्ब हैं। वे अपनी कविता में वेदना को श्रोताओं और पाठकों के अनुभव को माध्यम से संप्रेषित करती हैं ‘घायल की गति घायल जाणै और न जाणै कोय’ का यही अभिप्राय है।
मीरा के काव्य पर निर्गुण-सदुण दोनों साधनाओं का प्रभाव है। नाथ मत का भी प्रभाव दिखाई पड़ता है। उन्होंने रामकथा से संबंधित कुछ गेयपद भी लिखें हैं।
♣ रसखान
इनका वृत्तांत दो सौ बाबन वैष्णवों की वार्ता में मिलता है और उससे प्रकट होता है कि ये लौकिक प्रेम से कृष्ण-प्रेम की ओर उन्मुख हुए। इनकी प्रसिद्ध कृति प्रेम वाटिका रचनाकाल 1641 ई. है। कहते हैं कि ये गोसाईं विट्ठलनाथ के शिष्य थे।
रसखान ने कृष्ण का लीलागान सवैयो में किया है। रसखान को सवैया छंद सिद्ध था। जितने सरस, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि के हों। ब्रजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है।
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितांबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भावतों सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।
कृष्णभक्त कवियों की सुदीर्घ परंपरा है। स्वामी हरिदास, हरीराम व्यास, सुखदास, लालदास, नरोत्तमदास आदि अन्य कृष्णभक्त कवि हैं। इनमें नरोत्तमदास का सुदामाचरित अपनी मार्मिकता और सहज प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय है।
♣ रहीम
सम्राट अकबर के प्रसिद्ध मनापति बैरम खाँ के पुत्र रहीम (अब्दुरहीम खान खाना) थे। इनकी गणना कृष्णभक्त कवियों में की जाती है। रहीम ने बरवै नायिका भेद भी लिखा है, जो निश्चित रूप से रीतिकाव्य की कोटि में रखा जाएगा, किन्तु रहीम को भक्त हृदय मिला था। उनके भक्तिपरक दोहे उनके व्यक्ति और रचनाकार का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके मित्र तुलसी ने बरवै रामायण की रचना रहीम के बरवै काव्य से उत्साहित होकर की।
रहीम अरबा, फारसी, संस्कृत आदि कोई भाषाओं के जानकार थे। वे बहुत उदार, दानी और करुणावान थे। अंत में उनकी मुगल दरबार से नहीं पटी और जनश्रुति के अनुसार उनके अंतिम दिन तंगी में गुजरे। रहीम की अन्य रचनाएँ हैं-रहीम दोहावली या सतसई, श्रृंगार सोरठा, मदनाष्टकं, रासपंचाध्यायी। उन्होंने खेल कौतुकम् नामक ज्योतिष का ग्रंथ भी रचा है, जिसकी भाषा संस्कृति-फारसी मिश्रित है। रहीम ने तुलसी के समान अवधि और ब्रज दोनों में अधिकारपूर्वक काव्य-रचना की है।
रहीम के भक्ति और नीति के दोहे आज भी लोगों की जबान पर हैं।
♣ केशवदास
केशव ओरछा महाराजा रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह के सभा-कवि थे। यहाँ इनका बहुत सम्मान था। केशवदास द्वारा रचित सात ग्रंथ मिलते हैं-कविप्रिया, रसिकप्रिया, वीरसिंह देवचरित, विज्ञान गीता, रतन बावनी और जहाँगीर-जस चंद्रिका। कविप्रिया और रसिकप्रिया काव्यशास्त्रीय पुस्तकें हैं।
केशवदास का उल्लेख रामभक्ति शाखा के प्रसंग में हो चुका है। उन्होंने ‘रामकथा’ का वर्णन रामचंद्रिका में किया है। केशव का महत्व इस बात में है कि उन्होंने पहली बार काव्यांगों।
सम्म पर हिन्दी में विचार किया। इसके पूर्व कृपाराम, मोहनलाल मिश्र, करनेस आदि के रस, शृंगार और अलंकार पर अलग-अलग पुस्तकें लिखी थी, पर एक साथ सभी काव्यांगों का परिचय नहीं दिया था। केशव ने यही किया और इसीलिए वे हिन्दी के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। वे काव्य में अलंकार को अधिक महत्व देते थे।
केशव हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं किन्तु रीतियों की परंपरा चिंतामणि (जन्म 1609 ई.) से चली। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ कविकुल कल्पतरू है। इस काल के अन्य प्रसिद्ध आचार्य कवि हैं भिखारीदास (18वीं शती, ग्रंथ काव्य निर्णय), तोष (1634 ई. ग्रंथ सुधानिधि), कुलपति (1670 ई. ग्रंथ रस रहस्य) सुखदेव मिश्र (1673 ई. ग्रंथ रसार्णव) आदि हैं। इनके उपजीव्य संस्कृति ग्रंथ काव्य प्रकाश, साहित्यदर्पण, रसमंजरी, चंद्रालोक और कुवलयानंद हैं।
♣ देव
देव अनेक आश्रयदाताओं के यहाँ रहे और उनकी रुचि के अनुकूल रचनाएँ की। इनके रचे ग्रंथों की संख्या काफी है, उनमें कुछ इस प्रकार हैं : भावविलास, भवानीविलास, रसविलास, सुखसागर तरंग, अष्टयाम, प्रेमचंद्रिका, काव्यरसायन।
देव रीति काल के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। इनकी तुलना बिहारी से की गई है। देव ने भी लक्षण-ग्रंथ लिखे हैं। अतः इन्हें भी रीति काल के आचार्य कवियों की कोटि में रखी जा सकती है। किन्तु देव मूलत: आचार्य नहीं, कवि ही थे।
देव में मौलिक रचनाकार की प्रतिभा और सहृदयता प्रचुर मात्रा में थी। लोकप्रियता की दृष्टि से वे बिहारी से बहुत पीछे नहीं हैं। देव की काव्य-भूमि बिहारी से कहीं अधिक व्यापक है। इन्होंने प्रकृति के क्रियाकलाप को देखकर अनेक उत्तम रूप बाँधे हैं
डार दुम पालना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छवि भारी दे।
पवन झुलावै, केकी-कीर बहराबैं देव,
कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।
पूरित पराग सों उतारो करे राई लोन,
कंज कली नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक वसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी है।
देव में उत्कृष्ट बिंब विधान पाया जाता है।
जैसे बड़े-बड़े नैनन सों आँसू-भरि-भरि ढरि
गोरो गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात।
देव काव्य कला के कुशल कवि हैं, किन्तु चमत्कार या काव्य रूढ़ियों के आधार पर रचना करने की प्रवृत्ति उनमें बिहारी की अपेक्षा कम है। इसीलिए उनमें चमत्कृत करने की अपेक्षा रमाने की प्रवृत्ति अधिक है।
♣ भूषण
भूषण रीति काल के दो प्रसिद्ध कवियों-चिंतामणि और मतिराम के सगे भाई थे। चित्रगुट के सोलंकी राजा रूद्र ने इन्हें ‘कवि भूषण’ कहा। फिर ये इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। वास्तविक नाम कुछ और रहा होगा। ये वीर रस के कवि थे। इन्होंने रीति काल की परंपरा में एक अलंकार ग्रंथ शिवराज भूषण भी लिखा है। इनके जो ग्रंथ मिलते हैं, वे इस प्रकार हैं-शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दसक।
रीति कालीन कविता का प्रधान स्वर श्रृंगार का है। भूषण का स्वर वीरता का है। इसलिए ये रीति काल के विशिष्ट कवि हैं, लेकिन भूषण के महत्व पर विचार करते समय कुछ और बातों की ओर ध्यान जाता है। रीति काल में कुछ अन्य कवियों ने भी वीरता की कविताएँ लिखी हैं, किन्तु उनको भूषण जैसी प्रसिद्धि नहीं मिली। इसका प्रमुख कारण यह है कि काव्योत्कर्ष की दृष्टि से वे इस क्षेत्र में भूषण जैसे कवि नहीं हैं।
भूषण ने अपनी काव्य पंक्तियों में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किया है, जैसे-अफजल खाँ का शिवाजी द्वारा मारा जाना, दारा की औरंगजेब द्वारा हत्या, सूरत पर शिवाजी का अधिकार, खजुवा का युद्ध, शिवाजी का औरंगजेब के दरबार में जाना आदि। उनका एक प्रसिद्ध कवित्त इस प्रकार हैं-
इंद्र जिमि जंभ पर, बाडव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं।
पौन बारिवाह पर, संभु रतनिआह पर,
ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज है।
दावा द्रुम दंड पर, चीता मृग झुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों म्लेच्छ वंस पर सेर सिवराज हैं।
♣ मतिराम
मतिराम रीति काल के प्रसिद्ध आचार्य कवि हैं। उनके ग्रंथों के नाम हैं-छंदसार, रसराज, साहित्य सार, श्रृंगार और ललित ललाम। रासराज और ललित ललाम उनके यश के आधार ग्रंथ हैं।
मतिराम रीति काल में भाषा की प्रवाहमयता और भाव की सहजता के प्रतिमान हैं। उनकी शैली इतनी सहज है कि उनकी कविता अन्य रीति कालीन कवियों से अलग लगती है। वे रीति काल में व्याप्त चमत्कारिकता से लगभग अछूते रचनाकार हैं उनकी भाव योजना बिलकुल सीधी होती है। वे बात को घुमाकर कहने में विश्वास नहीं करते। वे काव्य रूढ़ियों का कम-से-कम प्रयोग करते हैं। लक्षण ग्रंथों के रचयिता होने के बावजूद उनके काव्य में अलंकृत पद्योजना बहुत कम मिलती है। उनकी काव्यगत सहजता का एक उदाहरण है
क्यों इन आँखिन सो निहसंक है मोहन को तन पानिप पीजै।
नेकु निहारे कलंक लगै, यही गाँव बसे कहु कैसे के जीजै॥
होत रहे मन यों, मतिराम कहू बन जाय बड़ो तप कीजै।
है वनमाल हिए लगिए अरू द्वै मुरली अधरा-रस पीजै।
♣ पद्माकर
पद्माकर का जन्म बाँदा में हुआ था। ये रीति काल के अत्यंत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कवि थे। ये अनेक गुणग्राहकों के द्वारा सम्मानित किए गए। सुगरा, सतारा, जयपुर, ग्वालियर के दरबारों में इनका आदर हुआ। बाँदा और अवध के नवाबों के सेना अधिकारी हिम्मत बहादुर के नाम पर इन्होंने हिम्मत बहादुर बिरूदावली लिखी। इनके द्वारा रचित कुछ अन्य ग्रंथ इस प्रकार हैं-जगविनोद, पद्माभरण, प्रबोध पचासा, राम रसायन, गंगा लहरी। जगविनोद लक्षण ग्रंथ है।
पद्माकर भी मतिराम के समान भाषा और भाव की प्रवाहमयी सहजता के कारण लोकप्रिय हैं, किन्तु पद्माकर की कविता शृंगार भक्ति और वीरता तीनों भूमियों पर समान अधिकार के साथ रस का संचार करती है। विभिन्न भावों के अनुरूप भाषा को सहज तौर पर ढाल लेने में ये सिद्ध थे। शुक्ल जी के शब्दों में, “इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए।
भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी तुलसीदास में दिखाई पड़ती है। पद्माकर के काव्य में कहीं-कहीं विदग्धता भी मिली है लेकिन वह कविता के केन्द्रीय भाव में ढल जाती है। पद्माकर में बिहारी की तरह समुचित बाह्य चेष्टाओं की योजना द्वारा आंतरिक भाव को व्यजित करने की प्रतिभा थी। इनमें चमत्कार प्रियता नहीं कि बराबर मिलती है।”
पद्माकर की वीर रस की कविताओं में भूषण की तरह ही वीरोचित ओज तो है, किन्तु भाषा व्यवस्थित बनी रहती है। पद्माकर की गंगा लहरी में एक शांति चाहने वाले मन की और गंगा के महात्म्य पर अटूट श्रद्धा दिखलाई पड़ती है। पद्माकर के काव्य में बुंदेलखंड की प्रकृति का सजीव चित्रण हुआ है। पद्माकर के काव्य की विशेषता भावों को व्यजित करने में समर्थ सजीव चित्र खींच देने में है। नीचे दिए हुए सवैए से इस कथन की पुष्टि हो जाएगी-
फागु की भीर अभरिन में गहि गोबिंदै लै गई भीतर गोरी,
भाई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीनि पितंबर कम्मर तें सु विदा दई मीडि कपोलन रोगी,
नैन नचाय कही मुसुकाय ‘लला फिरि आइयो खेलन होरी’।
♣ गुरु गोविंद सिंह
गुरु गोविंद सिंह का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे मध्यकालीन सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना के प्रतीक थे। वे योद्धा, संत, राजनीतिक, कवि, प्रशासक सब कुछ थे। गुरु गोविंद सिंह द्वारा रचित अनेक ग्रंथ बताए जाते हैं। इनकी रचनाओं के संग्रह का नाम दशम ग्रंथ है। इसमें 16 रचनाएँ संकलित हैं। इन्होंने पंजाबी, फारसी और हिन्दी (ब्रजभाषा) में काव्य रचना की है। इनका संप्रदाय देखते हुए इन्हें निर्गुण कवि होना चाहिए, किन्तु इन्होंने देवी-देवताओं ओर सगुण रूप से संबंधित रचनाएँ भी की हैं। चंडीचरित्र इनकी विशिष्ट साहित्यिक रचना है।
इसकी शैली ओजस्विनी है। गुरु जी की रचनाओं में वीर रस प्रधान है, यद्यपि इनकी मुख्य भूमि भक्ति है। चौबीस अवतार नामक रचना में श्रृंगार का भी पर्याप्त रंग दिखलाई पड़ता है। गुरु जी काव्यरीति के मर्मज्ञ थे। रीति काल में इनका व्यक्तित्व और कृतित्व अनुपम है। हिन्दी में भक्तजनों का भक्ति काव्य तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, किन्तु वीरजनों द्वारा रचित वीर काव्य नहीं मिलता। इस दृष्टि से गुरु गोविंद सिंह के काव्य का विशिष्ट महत्त्व है-
बीरबली सरदार दयैत सु क्रोध के म्यान तै खड्ग निकारौ।
एक दयो तन चंडि प्रचंड कै दूसर के हरि के सिर झारौ।
चंडि सम्हारि तबै बलु धारि लयौ गहि नारि धरा पर मारी।
ज्यों धुबिया सरिता-तट जाइक लै पट को पट साथ पछारौ।
♣ मुंशी सदासुख लाल ‘नियाज’
मुंशी सदासुख लाल ‘नियाज’ दिल्ली के रहने वाले थे और उर्दू-फारसी के प्रसिद्ध लेखक थे। इन्होंने सुखसागर लिखा था और एक ज्ञानोपदेश वाली पुस्तक जिसका उल्लेख हो चुका है। इनकी भाषा सहज एवं प्रवाहमयी है। कथा वाचकों, पंडितों और साधु-संतों में प्रचलित शैली का प्रभाव इनकी खड़ी बोली के गद्य पर है, किन्तु इससे भाषा की सहजता पर आँच नहीं आयी है।
♣ इंशाअल्ला खाँ
इंशाअल्ला खाँ उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे। इन्होंने उदयभान चरित या रानी केतकी की कहानी खड़ी बोली गद्य में लिखी। इनकी भाषा काफी अलंकृत, चुटीली और मुहावरेदार है। बात यह है कि उन दिनों कहानी कहने या किस्सागोई की कला काफी प्रचलित थी। इंशाअल्ला खाँ के गद्य पर इस किस्सागोई की शैली का प्रभाव है। गद्य के बीच-बीच में पद्य जैसी तुकबंदी उन दिनों के उर्दू गद्य लेखन में मिलती है। वह लल्लूलाल के यहाँ भी है और इंशाअल्ला खाँ के यहाँ भी। उदाहरण के लिए यह पंक्ति-यह कैसी चाहत जिसमें लहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।
♣ सदलमिश्र
सदलमिश्र लल्लूलाल जी की तरह फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए खड़ी बोली गद्य की पुस्तक तैयार की। इनकी पुस्तक का नाम है नासिकेतोपाख्यान। इनकी भाषा में पूरबीपन है। ये आरा (बिहार) के रहने वाले थे। इनकी भाषा व्यवहारोपयोगी है।
खड़ी बोली गद्य के इन चारों प्रारंभिक लेखकों में मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’ का गद्य अधिक व्यवस्थित और व्यवहारोपयोगी है। रामप्रसाद निरंजनी के भाषा योग वशिष्ठ की ही परंपरा में उनका गद्य है।
गद्य का विकास करने में ईसाई मिशनरियों का भी बहुत बड़ा हाथ है। गद्य के विकास में छापाखानों (प्रेस) की बहुत बड़ी भूमिका है ! छापाखानों के बिना इतनी अधिक संख्या में पुस्तकें मुद्रित नहीं हो सकती थी।
अंग्रेजी की शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ हिन्दी, उर्दू की भी पढ़ाई की व्यवस्था सरकार ने की। इसके लिए पुसतकों के प्रकाशन की भी व्यवस्था हुई। 1833 ई. के आसपास आगरा में स्कूल बुक सोसाइटी की स्थापना हुई, जिसने कथासार नामक पुस्तक प्रकाशित कराई। 1840 ई. में भूगोलसार और 1847 ई. में रसायन प्रकाश छपा। इस तरह हिन्दी गद्य में पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।
♣ भारतेन्दु हरिश्चंद्र
जीवन के अल्प काल में ही भारतेन्दु ने साहित्य की बहुत बड़ी सेवा की। उनकी रचनाओं की संख्या काफी है। उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं को समृद्ध किया और अनेक विधाओं का प्रवर्तन किया। वे हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक हैं। 18 वर्ष की आयु में ही उन्होंने बंगाल से विद्यासुंदर नाटक का हिन्दी में अनुवाद किया। 1868 ई. उन्होंने कविवचन सुधा नाम पत्रिका निकाली। इसमें साहित्यिक रचनाएँ तो होती थी, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विचार और टिप्पणियाँ भी होती थीं।
इसी पत्रिका में उन्होंने विलायती कपड़ों के बहिष्कार की अपील और ग्राम-गीतों के संकलन की योजना प्रकाशित की थी। 1873 ई. में उन्होंने हरिश्चन्द्र मैगजीन नामक मासिक पत्रिका निकाली। इस पत्रिका का प्रकाशन कितना महत्वपूर्ण है– यह इसी से समझा जा सकता है कि स्वयं भारतेन्दु के अनुसार- हिन्दी नई चाल में ढली’ (1873 ई.)। बाद में इस पत्रिका का नाम उन्होंने हरिश्चन्द्र चंद्रिका कर दिया। 1874 ई. में उन्होंने स्त्री-शिक्षा के लिए बालाबोधिनी नामक पत्रिका निकाली। भारतेन्दु ने सबसे अधिक संख्या में नाटक लिखे और अनुवाद किया। उनके मौलिक नाटक इस प्रकार हैं-वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषमौषधम्, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी, प्रेम जोगनी और सती प्रताप।
अनूदित नाटक-विद्यासुंदर, पाखंड-बिडंबन, धनंजय-विजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस, सत्य हरिश्चन्द्र और भारत-जननी।
बादशाह दर्पण, कश्मीर कुसुम उनके इतिहासिक ग्रंथ है। कुछ आप-बीती कुछ जग-बीती कहानी है। कविताएँ भारतेन्दु ने ब्रजभाषा में लिखी, जिनका उल्लेख यथास्थान किया गया है। भारतेन्दु ने यात्रा-वर्णन भी लिखा है। उन्होंने सुदूर देहाती क्षेत्रों की यात्रा बैलगाड़ी से की। कहते हैं कि 1865 ई. में उन्होंने जगन्नाथ पुरी की जो यात्रा की उसका उनके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उनका परिचय बंगाल के नए साहित्यिक आंदोलन से हुआ।
♣ प्रताप नारायण मिश्र
प्रताप नारायण मिश्र अत्यंत विनोदी कवि थे। वे ब्राह्मण नामक पत्रिका निकालते थे। उनका मनमौजीपन उनकी रचनाओं, विशेषतः निबंधों में दिखाई पड़ता है। उन्होंने कुछ गंभीर निबंध भी लिखे हैं। उन्होंने कलिकौतुक रूपक, संगीत शाकुंतल, भारत दुर्दशा, हठी हम्मीर, गोसंकट, कलिप्रभाव, जुआरी-खुआरी नाटक लिखें। उन्होंने दैनिक जीवन की घटनाओं पर और नए फैशन पर अनेक कविताएँ लिखीं। उनकी कविताओं का महत्वपूर्ण अंश वह है, जिसमें उन्होंने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं का नए बोध के साथ चित्रण किया है। कविताओं के लिए आल्हा, लावनी जैसी लोक प्रचलित काव्य शैलियों का उपयोग भी किया है।
♣ बालकृष्ण भट्ट
बालकृष्ण भट्ट जी हिन्दी प्रदीप नामक पत्र निकालते थे। वे निबंधकार, समीक्षक और नाटककार थे। उन्होंने कलिराज की सभा, रेल का विकेट खेल, बाल विवाह, चंद्रसेन आदि नाटकों की रचना की। भट्ट जी ने कुछ बंगला नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया।
♣ उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’
उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ काव्य और जीवन दोनों क्षेत्रों में भारतेन्दु को अपना आदर्श मानते थे। वे कलात्मक एवं अलंकृत गद्य लिखते थे। आनंद कादंबिनी नाम की पत्रिका गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट।
निकालते थे। बाद में नागरी नीरद नामक पत्र भी निकाला। प्रेमधन जी निबंधकार, नाटककार, कवि एवं समीक्षक एक साथ थे। भारत सौभाग्य, प्रयाग रामगमन उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। प्रेमधन ने जीर्ण जनपद नामक एक काव्य लिखा है जिसमें ग्रामीण जीवन का यथार्थवादी चित्रण है।
♣ मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव जिला झाँसी (उत्तर प्रदेश) में 3 अगस्त 1886 को हुआ था। उनके पिता रामचरणजी वैष्णव थे। वे कविता के बड़े प्रेमी थे। ‘कनकलता’ नाम से वह स्वयं भी कविताएँ लिखा करते थे। इस तरह कविता का संस्कार मैथिलीशरण गुप्तजी विरासत में अपने पिता से ही प्राप्त हो गया था। उस समय हिन्दी साहित्य में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का वर्चस्व बना हुआ था। गुप्तजी की प्रतिभा को देखकर द्विवेदीजी ने उन्हें प्रोत्साहित किया। गुप्तजी ने द्विवेदीयुगीन भावगत एवं शिल्पगत प्रवृत्तियों को आत्मसात् कर अपने काव्य को उन्हीं साँचों में ढाला। किन्तु, उनकी काव्ययात्रा स्थिर नहीं, बल्कि पर्याप्त गतिशील एवं वेगवती रही। उनमें अभियोजन की अद्भुत क्षमता थी।
यही कारण है कि द्विवेदी-युग से छायावाद और छायावादोत्तर काल तक वे हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रभावशाली रूप में क्रियाशील रहे। उनका भावक्षेत्र अत्यंत व्यापक रहा है। उनमें संकीर्णता कभी नहीं दिखाई पड़ी। उनकी प्रमुख प्रबंध -काव्य-रचनाएँ हैं-साकेत, जय भारत, रंग में भंग, जयद्रथ-वध, शकुंतला, किसान, पंचवटी, सैरंध्री, हिडिंबा, युद्ध, यशोधरा, सिद्धराज, नहुष, अर्जुन और विर्सजन, काबा और कर्बला, गुरु तेगबहादुर, अजित और विष्णुप्रिया। विषय की दृष्टि से इनमें कुछ पौराणिक हैं तो कुछ ऐतिहासिक और सामाजिक।
‘स्वस्ति और संकेत’ उनकी फुटकर कविताओं का नवीनतम संग्रह है जो उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ है। गुप्तजी सच्चे अर्थ में भारतीय संस्कृति के कवि अर्थात् राष्ट्रकवि हैं। राम के अनन्य भक्त होते हुए भी मैथिलीशरण गुप्त धर्म के क्षेत्र में बड़े उदार रहे हैं। उनकी जिस लेखनी से ‘पंचवटी’ और ‘साकेत’ की रचना हुई, उसी से अनघ, यशोधरा और कुणालगीत की भी, उनकी जिस लेखनी ने सिक्खों की शक्ति का हमें परिचय देने के लिए गुरुकुल की गाथा गाई, उसी ने इस्लाम धर्म में चरित्र की महानता और सहनशीलता के महत्त्व को हमें समझाने के लिए ‘कर्बला’ की कहानी भी सुनाई।
इस तरह उनकी राष्ट्रीयता क्रमशः उदार होती हुई विश्व मानवतावादी होती गई है। राजनीति में गुप्तजी गाँधीजी से प्रभावित रहे हैं। करुणा के चित्रण में गुप्तजी अद्वितीय हैं। उनका काव्य कहीं भी अश्लील नहीं होने पाया है। खड़ी बोली हिन्दी के परिमार्जन और उसे काव्योपयुक्त बनाने में गुप्तजी की साधना अप्रतिम है। उन्होंने अनेक छंदों और अलंकारों का प्रयोग अपनी कविताओं में किया है। इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी काव्य के निर्माता और प्रयोक्ता-दोनों ही रूपों में गुप्तजी का महत्वपूर्ण स्थान है।
♣ जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद का जन्म 1889 ई. में वाराणसी में हुआ। उनका परिवार शैव था किन्तु उनके यहाँ सुरती बनाने का काम चलता था। इसलिए आज तक उस परिवार को ‘सुंघनी साहु का परिवार’ कहा जाता है। दुर्भाग्यवश प्रसादजी की बाल्यावस्था में ही उनके माता-पिता स्वर्गवासी हो गए। परिवार का भारत प्रसादजी पर आ जाने के कारण आठवें वर्ग तक की ही शिक्षा उन्हें मिल सकी। किन्तु उनके पुस्तकालय और उनकी रचनाओं से उनके अध्ययन की व्यापकता और गहनता का पता चलता है। उन्होंने गद्य-पद्य-दोनों में समान दक्षता के साथ रचनाएँ की हैं।
क्या कविता और क्या नाटक, क्या कथा और क्या निबंध-सभी विधाओं में हमें उनकी अप्रतिम प्रतिभा दिखाई पड़ती है। उनकी काव्य-रचनाएँ हैं-‘चित्राधार’, ‘काननकुसुम’, ‘प्रेमपथिक’, ‘करुणालय’, ‘झरना’, ‘आँसु’, ‘लहर’ और ‘कामायनी’। कामायनी उनकी कालजयी काव्यकृति . है। वे मूलतः प्रेम और सौंदर्य के कवि थे। जीवन के प्रेमविलासमय मधुर पक्ष की ओर उनकी विशेष प्रवृत्ति है जिसका प्रसार प्रियतम के संयोग-वियोगवली रहस्यभावना तक दिखाई पड़ता है।
शारीरिक प्रेम-व्यापारों और चेष्टाओं, रंगरेलियों और अठखेलियों, उनकी वेदनाजन्य कसक और टीस आदि की ओर उनकी विशेष दृष्टि रहती थी। आचार्य शुक्ल ने इस संदर्भ में लिखा है, “इसी मधुमयी प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति के अनंत क्षेत्र में भी बल्लरियों के दान, कलिकाओं की मंद मुस्कान, सुमनों के मधुपात्र, मँडराते मिलिंदों के गुंजार, सौरभहर समीर की लपक-झपक, पराग-मकरंद की लूट, उषा के कपोलों पर लज्जा और लाली, आकाश और पृथ्वी के अनुरागमय परिरंभ, रजनी के आँसू से भीगे अंबरी, चंद्रमुख पर शरद्घन के सरकते अवगुंठन, मधुमास की मधुवर्षा और झूमती मादकता पर उनकी दृष्टि विशेष रूप से जमती दिखाई पड़ती है।
“प्रसादजी की प्रारंभिक कुछ कविताओं में परम्परा की छाप है। उनकी भाषा भी ब्रजभाषा है। किन्तु, अपनी काव्ययात्रा में उन्होंने तत्सम प्रधान खड़ी बोली को ही अपनी कोमल अनुभूतियों के अनुरूप सँवार लिया। उनका देहावसान राजयक्ष्मा के कारण 1937 ई. में हो गया।
♣ सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 1896 ई. में मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) जिले के महिषादल में हुआ था। उनके बचपन का नाम सूचकुमार था। अपनी पत्नी मनोहरा देवी की प्रेरणा से वे हिन्दी की ओर प्रवृत्त हुए। उनकी स्कूली शिक्षा नौवें वर्ग तक ही हुई, किन्तु स्वाध्याय के बल पर उन्होंने हिन्दी, बँगला, संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का गहन अनुशीलन किया था। उनमें अप्रितिम काव्य-प्रतिभा थी। इसी प्रतिभा के बल पर उनकी गणना छायावाद के चार महान उन्नायकों (प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी) में होती है।
फिर भी, वे सदा से विद्रोही और स्वच्छंद प्रवृत्ति के कवि थे। उन्होंने कविता, उपन्यास, कहानी, रेखाचित्र और आलोचनात्मक निबंध की विधाओं में महत्त्वपूर्ण रचनाएँ की हैं। उनकी पुस्तकाकार काव्य कृतियाँ हैं-परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना और गीतगुंज। इन कविता-पुस्तकों की कई कविताएँ इनके ‘राग-विराग’ में संकलित हैं। निराला ने जहाँ एक ओर शृंगारिक और भक्तिपूर्ण रचनाएँ की हैं तो दूसरी ओर पौरुष और राष्ट्रप्रेम से परिपूर्ण कविताएँ भी।
कबीर के समान ही उनमें अखंड आत्म-विश्वास, रूढ़ियों के प्रति आक्रामक भाव, क्रांतिदर्शिता, अक्खड़पन और फक्कड़पन पाया जाता है। इसलिए, उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से सामाजिक विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं पर करारा व्यंग्य किया है। वस्तुतः निराला ओज और पौरुष के कवि हैं। उन्हें हिन्दी में मुक्त छंद का प्रथम प्रयोक्ता कवि कहा जाता है। यह सच है क्योंकि हिन्दी कविता में उनका पदार्पण मुक्त कविता के साथ ही हुआ था। भारतीय वेदांतदर्शन, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रभाव उनकी कविताओं में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। एक ओर वे “तुम्हीं गाती हो अपना गान, व्यर्थ मैं पाता हूँ सम्मान” जैसी आध्यात्मिक भावभरी पंक्तियाँ लिखते हैं तो दूसरी ओर-
“विजय-वन-वल्लरी पर
सोती थी सोहाग भरी स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल कोमल तनु-तरुणी-जुही की कली
दृग बंद किए शिथिल पत्रांक में वासंती निशा”
जैसी शृंगारिक पंक्तियाँ भी जिनमें यौवन का उद्दाम प्रवाह तथा ऊष्मा मुखरित है। किन्तु, वस्तुतः निराला ओज और पौरुष के कवि हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ की निम्नलिखित ओजगुण-संपन्न और समस्त पद-शैय्या (शब्द-विन्यास) देखिए-
वारित सौमित्र भल्लपति-अगणित-मल्ल-रोध,
गर्जित-प्रलयाब्लि-क्षुब्ध-हनुमत्-केवल-प्रबोध,
उद्गीरित-वाहि-भीम-पर्वत-कपि चतुः प्रहर,
जानकी-भीरु-उर-आशाभर-रावण-संवर।
लौटे युगदल। राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल,
बिध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।
संक्षेप में, उत्कृष्ट मानवतावादी दृष्टिकोण, उत्कट राष्ट्रीय चेतना, मनोमुग्धकारिणी भंगारप्रियता तथा उच्च कोटि का बौद्धिकतायुक्त दार्शनिक चिंतन निराला के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। कहीं-कहीं भाषा क्लिष्ट किन्तु स्निग्ध एवं मंगलमयी है। निरालाजी का स्वर्गवास 1961 ई. में हुआ।
♣ सुमित्रानंदन पंत
छायावाद के चार स्तंभों में से एक कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा जिले के कोसानी नामक ग्राम में सन् 1900 ई. में हुआ था। जन्म के तुरन्त बाद माता का स्वर्गवास हो जाने के कारण बचपन मातृस्नेह से वंचित हो गया। पिता का दिया हुआ नाम था-गोसाईदत्त पंत, परन्तु बाद में पंतजी ने स्वयं अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख दिया और इसी नाम से कवि रूप में असीम प्रसिद्धि पायी।
पंतजी का जन्म तो अल्मोड़ा और कोसानी की प्राकृतिक सुषुमा की गोद में हुआ ही था, उनमें प्रकृति और सौन्दर्य के प्रति गहरी संवेदनशीलता जन्मजात थी। सातवें वर्ग से ही उनका काव्यात्मक रुझान स्पष्ट होने लगा था। वैसे पंतजी का काव्यारंभ आमतौर पर सन् 1918 ई. के बाद से ही माना जाता है, परन्तु स्वयं पंतजी ने 1907 से 1918 ई. तक के काल को अपने कवि-जीवन का आरंभिक काल माना है।
घर के धार्मिक वातावरण, बाहरी प्राकृतिक घटनाओं, और सरस्वती, अल्मोड़ा अखबार, बैंकटेश्वर सामाचार आदि पत्र-पत्रिकाओं ने पंतजी में ऐसी काव्यात्मक रूचि पैदा कर दी कि एक दिन उन्होंने हिन्दी कविता की दिशा ही बदल दी।
सन् 1918 ई. में पंतजी अपने मंझले भाई के साथ बनारस आ गए थे। बनारस के जयनारायण हाई स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने स्वाध्याय और लेखन दोनों को ऊँचाई ओर विस्तृति दी। सन् 1919 ई. में पंतजी ने बनारस से मैट्रिक पास कर म्योर कॉलेज प्रयाग में नामांकन कराया। लेकिन सन् 1912 के सत्याग्रह आंदोलन में बड़े भाई के कहने पर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया।
पंतजी स्वभाव से ही कवि हृदय जीव थे। कॉलेज छोड़ने के बावजूद अपनी स्वाभाविक सुकुमारता के चलते वे सक्रिय राजनीति में भाग तो नहीं ले सके, किन्तु इसका लाभ स्वाध्याय और काव्य-सृजन में अवश्य उठाया। उनके हिन्दी काव्यगत में प्रवेश के साथ ही छायावाद का आरंभ होता है। उसके चार प्रमुख स्तंभों में एक प्रमुख स्तंभ उन्हें भी माना जाता है।
पंतजी के कवि-जीवन में अनेक मोड़ आते रहे हैं, पर उनके वास्तविक जीवन में विशेष जटिल तथा निर्णायक मोड़ प्रायः नहीं आए हैं। स्वभाव से सुकुमार पंतजी शारीरिक स्तर पर अत्यंत कोमल गात वाले व्यक्ति थे। वे आजन्म कुँवारे रहे। ऐसा कहा जाता है कि कवि सम्मेलनों में जब वे अपनी कविताओं का पाठ करते थे तो स्रोताओं में मुग्धता की स्थिति बन जाती थी।
पंतजी सन् 1950 ई. में ऑल इंडिया रेडियो के परामर्शदाता बने थे, जहाँ लगभग सात वर्षों तक रहे। लेकिन मूलरूप से वे एक मुक्त मन कवि थे। लगभग सन् 1920 ई. से ही काव्य रचना आरंभ कर सन् 1964 ई. (लोकायतन) तक हिन्दी कविता के भंडार को अपनी रचनाओं से भरते रहे। उनके ‘कला और बूढा चाँद’ तथा ‘चिदंबरा’ नाम कविता-संग्रहों पर क्रमशः साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिले थे।
♣ महादेवी वर्मा
छायावाद के चार महान कवि हैं-प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी जिनमें महादेवी का जन्म 1907 ई. में हुआ था। इनमें संबंध में शंभुनाथ सिंह ने लिखा है-“महादेवी छायावाद के कवियों में औरों से भिन्न अपना एक विशिष्ट और निराला स्थान रखती हैं। इस विशिष्टता के दो कारण हैं। एक तो उनका कोमल-हृदय नारी होना, दूसरा अंग्रेजी और बंगला के रोमांटिक और रहस्यवादी काव्य से प्रभावित होना।
इन दोनों कारणों से इन्हें एक ओर तो अपने आध्यात्मिक प्रियतम को पुरुष मानकर स्वाभाविक रूप में अपनी स्त्रीजनोचित प्रणयानुभूतियों को निवेदित करने की सुविधा मिली, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और दर्शन तथा संत-युग के रहस्यवादी काव्य के अध्ययन और दर्शन तथा अपने पूर्ववर्ती तथा समकालीन छायावादी कवियों के काव्य से निकट परिचय होने के फलस्वरूप उनकी काव्याभिव्यंजना और बौद्धिक चेतना शत-प्रतिशत भारतीय परंपरा के अनुरूप बनी रही।
“इसीलिए, अव्यक्त प्रियतम की उनकी रहस्यमयी अनुभूतियाँ निर्गुणियों की अनुभूति के समीप दिखाई पड़ती हैं। अलौकिक प्रियतम के प्रति गूढ और तीव्र विरहानुभूति के कारण वे ‘आधुनिक मीरा’ कही जाती हैं। उन्होंने बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया था और उसके दुःखवाद से वे बहुत प्रभावित थीं। इसीलिए, उन्होंने लिखा है-“मुझे दुःख के दोनों रूप प्रिय हैं, एक वह जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार के एक अविच्छन्न बंधनों में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बंधन में पड़े हुए असीम चेतन का क्रंदन है।
“सच्चाई यह है कि उनके काव्य में दूसरे प्रकार का दुःख ही अधिक मुखरित सुनाई पड़ता है। चाहे जो हो, वेदनामयी अनुभूतियों गीतात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिन्दी की आधुनिक कविता में महादेवी सचमुच अप्रतिम हैं। इसीलिए, इस संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-“गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध प्रांजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगी। जगह-जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।” महादेवी का निधन 1987 ई. में हुआ।
♣ रामधारी सिंह ‘दिनकर’
हिन्दी के स्वनामधन्य कवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म मुंगेर (वर्तमान बेगूसराय) (बिहार) के सिमरिया गाँव में 1908 ई. में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में पाने के बाद उन्होंने 1928 ई. में रेलवे उच्च विद्यालय, मोकामा से मैट्रिक की परीक्षा पास की। अपनी उच्चतर शिक्षा के लिए वे पटना आए और 1932 ई. में पटना कॉलेज से बी. ए. ऑनर्स (इतिहास) किया। उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं-
जनसंपर्क विभाग में सब-रजिस्ट्रार (1934-43 ई.), उपनिवेशक (1947-50 ई.) लंगट सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर (बिहार) में स्नातकोत्तर हिन्दी-विभागाध्यक्ष (1952-58 ई.), राष्ट्रभाषा आयोग, संगीत नाटक अकादमी और आकाशवाणी की परामर्शदात्री समिति के सदस्य, पद्मभूषण (1959 ई.) भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति (1964 ई.) इत्यादि। उनका निधन मद्रास के एक अस्पताल में 1974 ई. में हो गया।
दिनकरजी की प्रकाशित काव्यकृतियाँ हैं-प्राणभंग, रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, नीलकुसुम, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व, द्वंद्व गीत, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, दिल्ली, नीम के पत्ते, सीपी. और शंख, नए सुभाषित, मृत्तितिलक और आत्मा की आँखें।
दिनकर की काव्यगत विशेषताओं को रेखांकित करते हुए डॉ. विश्वंभर मानव ने लिखा है कि दिनकर के काव्य की पहली विशेषता है-ओज। यह ओज राष्ट्रीय चेतना और मानवता के उद्धार की भावना से युक्त होकर स्पृहणीय बन गया है। इनकी प्रारंभिक कृतियाँ ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ हैं जिनमें समय की पुकार है। इन दो कृतियों ने वस्तुतः राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों मे पांचजन्य फूंकने का काम किया। वस्तुतः दिनकर जनकवि हैं। उनके ओज का स्वाभाविक पर्यवसान गाँधी-दर्शन में हुआ जिसका सुपरिणाम ‘बापू’ रचना है।
परशुराम की प्रतीक्षा’ की वीररसात्मक कविताएँ भारत पर चीनी आक्रमण के समय लिखी गई थीं। देशभक्ति से भरी इन कविताओं ने पाठकों में ओज और उत्साह भर दिया था। दिनकर के काव्य की दूसरी विशेषता कोमलता है। जिसका एक छोर ‘रसवंती’ में और दूसरा ‘उर्वशी’ में दिखाई पड़ता है। रसवंती में यौवन, सौंदर्य और विरह-व्यथापूर्ण सुंदर-सुंदर गीत हैं। वस्तुतः दिनकर की अक्षय काव्यकीर्ति का आधार उनकी दो कृतियाँ हैं-कुरुक्षेत्र और उर्वशी। ‘कुरुक्षेत्र’ में युद्ध की भयंकर समस्या का विवेचन-विश्लेषण है। दिनकर ने अपने इस चिंतन के लिए महाभारत के एक प्रसंग को चुना है।
‘कुरुक्षेत्र’ का वास्तविक महत्त्व सीमित कथानक के भीतर देशकालातीत विस्तृत समस्या पर चिंतन और उसका समाधान है। उर्वशी गाँच अंकोंवाला एक लंबा काव्य-रूपक है। इसका केन्द्रीय भाव प्रेम है। शृंगार की ऐसी पूर्ण और रसमयी अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है। यह समर्थ प्राणियों का प्रेम है। पुरुरवा और उर्वशी का प्रणय-व्यापार प्रकृति के रम्य वातावरण में चलता है। इस प्रेम की विशेषता यह है कि यह केवल शरीर तक सीमित न रहकर मन और आत्मा के उत्तुंग शिखरों का भी स्पर्श करता चलता है। सचमुच नर और नारी के संयोग के ये क्षण अपनी पवित्रता, चित्रमयता और रसात्मकता में अनुपम हैं।
समग्रतः दिनकर की कविता हृदय के तारों को झंकृत करती है। उसमें भारतीय संस्कृति और ‘ सभ्यता का स्वर है। अतीत को देखकर उसे वर्तमान में उतार देना कवि-प्रतिभा का प्रमाण है। अंतर्वेदना के अंकन में दिनकर सचमुच अप्रतिम हैं। उनका देहावसान 1974 ई. में हुआ।
♣ नागार्जुन
कविवर बाबा नागार्जुन का जन्म सन् 1911 ई. में हुआ था। ये दरभंगा जिला के तरौनी ग्राम में साहित्य साधना में कार्यरत रहे हैं। छायावादी काल से साहित्यिक प्रवृत्तियों की एक विशिष्ट भंगिमा लेकर मंच पर उदित हुए जिस कवि को पाठकों ने देर से पहचाना, आज हम उसे ही ‘नागार्जुन’ नाम से पुकारते हैं। इन्होंने हिन्दी, संस्कृत, पाली और मैथिली साहित्यिक मंच से साहित्य-सृजन का कार्य किया।
आधुनिक हिन्दी साहित्यों में नागार्जुन महत्तर क्रांतिदर्शी कवि के रूप में सर्वाधिक विख्यात है। उनके द्वारा अनेक भाषाओं को मौलिक साहित्य प्राप्त हो चुका है। हिन्दी काव्यधारा में मौलिक ग्रंथों की सूची युगधारा, शपथ, प्रेत का बयान, खून और शोले, चनाजोर गरम आदि हैं। मैथिली में चित्रा और विशाखा से सभी परिचित हैं। पारो, बलचनमा, नवतुरिया जहाँ इनके मैथिली उपन्यास हैं, वहाँ हिन्दी में भी रतिनाथ की चाची, नई पौधा, बाबा बटसेरनाथ, बरुण के बेटे, दुशमोचन, कुभीपाक आदि सामने आ चुके हैं।
‘धर्मालोक शतकम्’ सिंहली लिपी में संस्कृत का एक काव्य-ग्रंथ है। देश दशकम्’, ‘कृषक-दशकम्’, ‘श्रमिक दशकम्’, आदि में इनकी संस्कृत कविताएँ प्रकाशित हैं। अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने नारी की मार्मिक कहानी, समाज की अन्धता, स्याह सफेद चेहरों के रंग के प्रति तीखे व्यंग्य की झड़ी और ‘कुंभीपाक’ बदलते चरण के साथ इन्होंने अपना स्वर मिलाया, साथ ही सत्य के वाचन के साथ इनकलाब के नारों को संगति दी है। यही वे साधक हैं जिसके व्यक्तित्व और साहित्य में कोई भेद नहीं लक्षित होता और उनके कवि-व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है।
बाबा नागार्जुन अत्याधुनिक युग के क्रांतिदर्शी महाकवि हैं। संस्कृत, हिन्दी, पाली और मैथिली साहित्य में गम्भीर स्वाध्याय से उन्होंने मौलिकता की मुहर लगायी है। मौलिकता की मुहर लगा देने को पाठक-संसार अमरत्व के विशेषण से विभूषित कर देता है।
नागार्जुन गद्य और पद्य दोनों में समान गति से लिखने वाले साहित्यकार हैं। वे जितने प्रसिद्ध कवि हैं उतने ही विख्यात आंचलिक उपन्यासकार भी हैं। ‘नई पौधा’, बाबा बटेसर नाथ’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘हरिक जयंती’ और ‘जमुनिया’ उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं जिनमें मिथिला का जीवन कदम-कदम पर साकार हो उठा है।
उनके कविता संग्रह में ‘युगधारा’, ‘प्यासी पथराई आँखें, ‘हजार-हजार बाँहों वाली’, ‘तालाब की मछलियाँ’, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने’, ‘रत्नगर्भ’, ‘ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तुम क्या’, ‘सतरंगे पंखों वाली’, ‘तुमने कहा था’, ‘पुराने जूतियों का कोस’, ‘हरिजन गाथा’, और ‘भस्मांकुर’ .(खण्डकाव्य) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
नागार्जुन क्रांतिकारी विचारधारा के कवि हैं। इनकी साहित्य तथा राजनीति में समान रुचि तथा गति है। वे भारत की जनता और माटी से जुड़े कवि हैं। उनकी संवेदनशीलता में कबीर की-सी सहजता है। उनकी कविता में कबीर तथा भारतेन्दु की-सी व्यंग्य-भंगिमा है। बाबा नागार्जुन का निधन सन् 1989 में हुआ।