Bihar Board Class 12th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 1 कड़बक

Bihar Board Class 12th Hindi Book Solutions

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कड़बक वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ

प्रश्न 1.
जायसी के पिता का नाम था।
(क) शेख ममरेज
(ख) शेख परवेज
(ग) शेख मुहम्मद
(घ) इकबाल
उत्तर-
(क)

प्रश्न 2.
मल्लिक मुहम्मद जायसी का जन्म हुआ था।
(क) 1453 ई. में
(ख) 1445 ई. में
(ग) 1492 ई. में .
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 3.
इनमें से जायसी की कौन-सी रचना है?
(क) छप्पय
(ख) कड़बक
(ग) कवित्त
(घ) पद
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 4.
जायसी का जन्म स्थान था।
(क) बनारस
(ख) दिल्ली
(ग) अजमेरी
(घ) अमेठी
उत्तर-
(घ)

प्रश्न 5.
जायसी थे।
(क) धनवान
(ख) बलवान
(ग) फकीर
(घ) विद्वान
उत्तर-
(ग)

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

प्रश्न 1.
कवि बचपन से ही ……….. और स्वभावतः संत थे।
उत्तर-
मृदुभाषी, मनस्वी

प्रश्न 2.
मल्लिक मुहम्मद जायसी ………. कवि हैं।
उत्तर-
प्रेम की पीर के

प्रश्न 3.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. माता प्रसाद गुप्त आदि विद्वानों द्वारा ……… नाम से ग्रंथ प्रकाशित हुआ।
उत्तर-
जायसी ग्रंथावली

प्रश्न 4.
किसान होते हुए भी ये सदा ………. का जीवन गुजारे।
उत्तर-
फकीरी

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प्रश्न 5.
जायसी के उज्जवल अमर कीर्ति का आधार ……. है।
उत्तर-
पद्मावत

कड़बक अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘पद्मावत’ के कवि का क्या नाम हैं?
उत्तर-
मलिक मुहम्मद जायसी।

प्रश्न 2.
मलिक मुहम्मद जायसी किस शाखा के कवि हैं?
उत्तर-
ज्ञानमार्गी।

प्रश्न 3.
‘फूल मरै पै मरै न वासु’ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
मनुष्य मर जाता है पर उसका कर्म रहता ही है।

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प्रश्न 4.
‘कड़बक’ के कवि हैं :
उत्तर-
जायसी।

कड़बक पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कवि ने अपनी एक आँख की तुलना दर्पण से क्यों की है?
उत्तर-
कवि ने अपनी एक आँख की तुलना दर्पण से इसलिए की है क्योंकि दर्पण स्वच्छ व निर्मल होता है, उसमें मनुष्य की वैसी ही प्रतिछाया दिखती है जैसा वह वास्तव में होता है। कवि स्वयं को दर्पण के समान स्वच्छ व निर्मल भावों से ओत-प्रोत मानता है। उसके हृदय में जरा-सा भी कृत्रिमता नहीं है। उसके इन निर्मल भावों के कारण ही बड़े-बड़े रूपवान लोग उसके चरण पकड़कर लालसा के साथ उसके मुख की ओर निहारते हैं।

प्रश्न 2.
पहले कड़बक में कलंक, काँच और कंचन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
अपनी कविताओं में कवि जायसी ने कलंक, काँच और कंचन आदि शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों की कविता में अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं। कवि ने इन शब्दों के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्ति देने का कार्य किया है।

जिस प्रकार काले धब्बे के कारण चन्द्रमा कलंकित हो गया फिर भी अपनी प्रभा से जग को आलोकित करने का काम करता है। उसकी प्रभा के आगे चन्द्रमा का काला धब्बा ओझल हो जाता है, ठीक उसी प्रकार गुणीजन की कीर्त्तियों के सामने उनके एकाध-दोष लोगों की नजरों से ओझल हो जाते हैं। कंचन शब्द के प्रयोग करने के पीछे कवि की धारणा है कि जिस प्रकार शिव-त्रिशूल द्वारा नष्ट किये जाने पर सुमेरु पर्वत सोने का हो गया ठीक उसी प्रकार सज्जनों की संगति से दुर्जन भी श्रेष्ठ मानव बन जाता है। संपर्क और संसर्ग में ही वह गुण निहित है लेकिन पात्रता भी अनिवार्य है।

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यहाँ भी कवि ने गुण-कर्म की विशेषता का वर्णन किया है। ‘काँच’ शब्द की अर्थक्ता भी कवि ने अपनी कविताओं में स्पष्ट करने की चेष्टा की है। बिना घरिया में (सोना गलाने के पात्र को घरिया कहते हैं) गलाए काँच असली स्वर्ण रूप को नहीं प्राप्त कर सकता है ठीक उसी प्रकार इस संसार में किसी मानव को बिना संघर्ष, तपस्या और त्याग के श्रेष्ठमा नहीं प्राप्त हो सकती।

उपरोक्त शब्दों की चर्चा करते हुए कवि ने लोक जगत को यह बताने की चेष्टा की है कि किसी भी जन का अपने लक्ष्य शिखर पर चढ़ने के लिए जीवन रूपी घरिया में स्वयं को तपाना पड़ता है। निखारना पड़ता है। उक्त शब्दों के माध्यम से कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि गुणी होने के लिए सतत संघर्ष और साधना की जरूरत है। यही एक माध्यम है जिसके कारण जीवन रूपी सुमेरू, चाँद या कच्चे सोने को असली रूप दिया जा सकता है। गुणवान व्यक्ति सर्वत्र और सर्वकाल में पूजनीय हैं वंदनीय हैं।

कहने का तात्पर्य है कि एक आँख से अंधे होने पर भी जायसी अपनी काव्य प्रतिभा और कृतित्व के बल पर लोक जगत में सदैव आदर पाते रहेंगे।

प्रश्न 3.
पहले कड़बक में व्यंजित जायसी के आत्मविश्वास का परिचय अपने शब्दों में दें।
उत्तर-
महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी अपनी कुरूपता और एक आँख से अंधे होने पर शोक प्रकट नहीं करते हैं बल्कि आत्मविश्वास के साथ अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर लोकहित की बातें करते हैं। प्राकृतिक प्रतीकों द्वारा जीवन में गुण की महत्ता की विशेषताओं का वर्णन करते हैं।

जिस प्रकार चन्द्रमा काले धब्बे के कारण कलंकित तो हो गया किन्तु अपनी प्रभायुक्त आभा से सारे जग को आलोकित करता है। अत: उसका दोष गुण के आगे ओझल हो जाता है।

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जिस प्रकार बिना आम्र में मंजरियों या डाभ के नहीं आने पर सुबास नहीं पैदा होता है, चाहे सागर का खारापन उसके गुणहीनता का द्योतक है। सुमेरू-पर्वत की यश गाथा भी शिव-त्रिशूल के स्पर्श बिना निरर्थक है। घरिया में तपाए बिना सोना में निखार नहीं आता है ठीक उसी प्रकार कवि का जीवन भी नेत्रहीनता के कारण दोष-भाव उत्पन्न तो करता है किन्तु उसकी काव्य-प्रतिभा के आगे सबकुछ गौण पड़ जाता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि कवि का नेत्र नक्षत्रों के बीच चमकते शुक्र तारा की तरह है। जिसके काव्य का श्रवण कर सभी जन मोहित हो जाते हैं। जिस प्रकार अथाह गहराई और असीम आकार के कारण समुद्र की महत्ता है। चन्द्रमा अपनी प्रभायुक्त आभा के लिए सुखदायी है। सुमेरू पर्वत शिव-त्रिशूल द्वारा आहत होकर स्वर्णमयी रूप को ग्रहण कर लिया है। आम भी डाभ का रूप पाकर सुवासित और समधुर हो गया है। घरिया में तपकर कच्चा सोना भी चमकते सोने का रूप पा लिया है।

जिस प्रकार दर्पण निर्मल और स्वच्छ होता है-जैसी जिसकी छवि होती है-वैसा ही प्रतिबिम्ब दृष्टिगत होता है। ठीक उसी प्रकार कवि का व्यक्तित्व है। कवि का हृदय स्वच्छ और निर्मल है। उसकी कुरूपता और एक आँख के अंधेपन से कोई प्रभाव नहीं पड़नेवाला। वह अपने लोक मंगलकारी काव्य-सृजनकार सारे जग को मंगलमय बना दिया है। इसी कारण रूपवान भी उसकी प्रशंसा करते हैं और शीश नवाते हैं। उपरोक्त प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अपने आत्मविश्वास का सटीकर चित्रण अपनी कविताओं के द्वारा किया है।

प्रश्न 4.
कवि ने किस रूप में स्वयं को याद रखे जाने की इच्छा व्यक्त की है? उनकी इस इच्छा का मर्म बताएँ।
उत्तर-
कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी स्मृति के रक्षार्थ जो इच्छा प्रकट की है, उसका वर्णन अपनी कविताओं में किया है।

कवि का कहना है कि मैंने जान-बूझकर संगीतमय काव्य की रचना की है ताकि इस प्रबंध के रूप में संसार में मेरी स्मृति बरकरार रहे। इस काव्य-कृति में वर्णित प्रगाढ़ प्रेम सर्वथा नयनों की अश्रुधारा से सिंचित है यानि कठिन विरह प्रधान काव्य है।

दूसरे शब्दों में जायसी ने उस कारण का उल्लेख किया है जिससे प्रेरित होकर उन्होंने लौकिक कथा का आध्यात्मिक विरह और कठोर सूफी साधना के सिद्धान्तों से परिपुष्ट किया है। इसका , कारण उनकी लोकैषणा है। उनकी हार्दिक इच्छा है कि संसार में उनकी मृत्यु के बाद उनकी कीत्ती नष्ट न हो। अगर वह केवल लौकिक कथा-मात्र लिखते तो उससे उनकी कार्ति चिर स्थायी नहीं होती। अपनी कीर्ति चिर स्थायी करने के लिए ही उन्होंने पद्मावती की लौकिक कथा को सूफी साधना का आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर प्रतिष्ठित किया है। लोकैषणा भी मनुष्य की सबसे प्रमुख वृत्ति है।

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प्रश्न 5.
भाव स्पष्ट करें-जौं लहि अंबहि डांभ न होई। तौ लहि सुगंध बसाई न सोई॥
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ कड़बक (1) से उद्धृत की गयी है। इस कविता के रचयिता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। इन पंक्तियों के द्वारा कवि ने अपने विचारों को प्रकट करने का काम किया है। जिस प्रकार आम में नुकीली डाभे (कोयली) नहीं निकलती तबतक उसमें सुगंध नहीं आता यानि आम में सुगन्ध आने के लिए डाभ युक्त मंजरियों का निकलना जरूरी है। डाभ के कारण आम की खुशबू बढ़ जाती है, ठीक उसी प्रकार गुण के बल पर व्यक्ति समाज में आदर पाने का हकदार बन जाता है। उसकी गुणवत्ता उसके व्यक्तित्व में निखार ला देती है।

काव्य शास्त्रीय प्रयोग की दृष्टि से यहाँ पर अत्यन्त तिरस्कृत वाक्यगत वाच्य ध्वनि है। यह ध्वनि प्रयोजनवती लक्षण का आधार लेकर खड़ी होती है। इसमें वाच्यार्थ का सर्वथा त्याग रहता है और एक दूसरा ही अर्थ निकलता है।।

इन पंक्तियों का दूसरा विशेष अर्थ है कि जबतक पुरुष में दोष नहीं होता तबतक उसमें गरिमा नहीं आती है। डाभ-मंजरी आने से पहले आम के वृक्ष में नुकीले टोंसे निकल आते हैं।

प्रश्न 6.
‘रकत कै लेई’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-
कविवर जायसी कहते हैं कि कवि मुहम्मद ने अर्थात् मैंने यह काव्य रचकर सुनाया है। इस काव्य को जिसने भी सुना है उसी को प्रेम की पीड़ा का अनुभव हुआ है। मैंने इस कथा को रक्त रूपी लेई के द्वारा जोड़ा है और इसकी गाढ़ी प्रीति को आँसुओं से भिगोया है। यही सोचकर मैंने इस ग्रन्थ का निर्माण किया है कि जगत में कदाचित, मेरी यही निशानी शेष बची रह जाएगी।

प्रश्न 7.
महम्मद यहि कबि जोरि सनावा’-यहाँ कवि ने ‘जोरि’ शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया है?
उत्तर-
‘मुहम्मद यहि कबि जोरि सुनावा’ में ‘जोरि’ शब्द का प्रयोग कवि ने ‘रचकर’ अर्थ में किया है अर्थात् मैंने यह काव्य रचकर सुनाया है। कवि यह कहकर इस तथ्य को उजागर करना चाहता है कि मैंने रत्नसेन, पद्मावती आदि जिन पात्रों को लेकर अपने ग्रन्थ की रचना की है, उनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं था, अपितु उनकी कहानी मात्र प्रचलित रही है।

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प्रश्न 8.
दूसरे कड़बक का भाव-सौन्दर्य स्पष्ट करें।
उत्तर-
दूसरे कड़बक में कवि ने इस तथ्य को उजागर किया है कि उसने रत्नसेन, पद्मावती आदि जिन पात्रों को लेकर अपने ग्रन्थ की रचना की है उनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं था, अपितु उनकी कहानी मात्र प्रचलित रही है। परन्तु इस काव्य को जिसने भी सुना है उसी को प्रेम की पीड़ा का अनुभव हुआ है। कवि ने इस कथा को रक्त-रूपी लेई के द्वारा जोड़ा है और इसकी गाढ़ी प्रीति को आँसुओं से भिगोया है। कवि ने इस काव्य की रचना इसलिए की क्योंकि जगत में उसकी यही निशानी शेष बची रह जाएगी। कवि यह चाहता है कि इस कथा को पढ़कर उसे भी याद कर लिया जाए।

प्रश्न 9.
व्याख्या करें
“धनि सो पुरुख जस कीरति जासू।
फूल मरै पै मरै न बासू ॥”
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ जायसी लिखित कड़बक के द्वितीय भाग से उद्धत की गयी है। उपरोक्त पंक्तियों में कवि का कहना है कि जिस प्रकार पुष्प अपने नश्वर शरीर का त्याग कर देता है किन्तु उसकी सुगन्धित धरती पर परिव्याप्त रहती है, ठीक उसी प्रकार महान व्यक्ति भी इस धाम पर अवतरित होकर अपनी कीर्ति पताका सदा के लिए इस भवन में फहरा जाते हैं। पुष्प सुगन्ध सदृश्य यशस्वी लोगों की भी कीर्तियाँ विनष्ट नहीं होती। बल्कि युग-युगान्तर उनकी लोक हितकारी भावनाएँ जन-जन के कंठ में विराजमान रहती है।

दूसरे अर्थ में पद्मावती की लौकिक कथा को आध्यात्मिक धरातल पर स्थापित करते हुए कवि ने सूफी साधना के मूल-मंत्रां को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया है। इस संसार की नश्वरता की चर्चा लौकिक कथा काव्यों द्वारा प्रस्तुत कर कवि ने अलौकिक जगत से सबको रू-ब-रू कराने का काम किया है। यह जगत तो नश्वर है केवल कीर्तियाँ ही अमर रह जाती हैं। लौकिक जीवन में अमरता प्राप्ति के लिए अलौकिक कर्म द्वारा ही मानव उस सत्ता को प्राप्त कर सकता है।

कड़बक भाषा की बात

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखें
शब्द – पर्यायवाची शब्द
उत्तर-

  • नैन आँख, नेत्र, चक्षु, दृष्टि, लोचन, खिया, अक्षि।
  • आम रसाल, अंब, आंब, आम्र।
  • न्द्रमा शशि, चाँद, अंशुमान, चन्दा, चंदर, चंद।।
  • रक्त खून, रूधिर, लहू, लोहित, शोषित।
  • राजा नरेश, नृप, नृपति, प्रजापति, बादशाह, भूपति, भूप।
  • फूल सुगम, सुकुम, पुष्प, गुल।

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प्रश्न 2.
पहले कड़बक में कवि ने अपने लिए किन उपमानों की चर्चा की है, उन्हें लिखें।
उत्तर-
पहले कड़बक में कवि ने चाँद, सूक, अम्ब, समुद्र, सुमेरू, घरी, दर्पण आदि उपमानों का प्रयोग अपने लिए किए हैं।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के मानक रूप लिखें
उत्तर-

  • शब्द – मानक रूप
  • त्रिरसूल – त्रिशूल
  • दरपन – दर्पण
  • निरमल – निर्मल
  • पानि – पानी
  • नखत – नख
  • प्रेम – पेम
  • रकत – रक्त
  • कीरति – कीर्ति

प्रश्न 4.
दोनों कड़बक के रस और काव्य गुण क्या हैं?
उत्तर-
जायसी के दोनों कड़बकों में शांत रस का प्रयोग हुआ है। दोनों कड़बकों में माधुर्य गुण है।

प्रश्न 5.
पहले कड़बकों से संज्ञा पदों को चुनें।
उत्तर-
संज्ञा पद-नयन, कवि, मुहम्मद, चाँद, जंग, विधि, अवतार, सूक, नख, अम्ब, डाभ, . सुगंध, समुद्र, पानी, सुमेरु, तिरसूल, कंचन, गिरि, आकाश, धरी, काँच, कंचन, दरपन, पाउ, मुख।

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प्रश्न 6.
दूसरे कड़बक से सर्वनाम पदों को चुनें।
उत्तर-
यह, सो, अस, यह, मकु, सो, कहाँ, अब, अस, कँह, जेई, कोई, जस, कई, जरा, जो।

कड़बक कवि परिचय मलिक मुहम्मद जायसी (1492-1548)

कवि-परिचय-
मलिक मुहम्मद जायसी निर्गुण धारा की प्रेममार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। जायसी जाति के मुसलमान होते हुए भी साहित्य में सुर और तुलसी के समान ही महत्व रखते हैं। इसका कारण जायसी की भारतीय संस्कृति में निष्ठा, धर्म के प्रति आस्था एवं हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के समन्वय पर बल देना है। उनका जन्म रायबरेली जिले के जायस नामक ग्राम में सन् 1492 ई. में हुआ था। इसलिए वे जायसी नाम से प्रसिद्ध हुए। चेचक के प्रकोप ने जायसी को कुरूप बना दिया था। उनकी कुरूपता को देखकर दिल्ली का पठान बादशाह हँस पड़ा था। तब जायसी ने उसको संबोधित करते हुए कहा-

मोहि का हँसित कि हँसित कोहारहिं।

अर्थात् मुझ पर क्या हँसते हो, मेरे उस बनाने वाले कुम्हार पर हँसो। जायसी उच्च कोटि के विद्वान थे। इस विद्वता का कारण उनका बहुश्रुत होना था। वे ज्योतिष विद्या, वेदांत एवं हठयोग में निपुण थे। उनकी रचनाओं को देखने से विदित होता है कि जायसी के ऊपर तत्कालीन मत-मतांतरों का भी प्रभाव था। अमेठी के राजा के दरबार में उनका बड़ा सम्मान था। उनकी मृत्यु सन् 1542 ई. में हुई।

रचनाएँ-जायसी की तीन प्रमुख रचनाएँ उपलब्ध हैं-

  • पद्मावत,
  • अखरावट,
  • आखिरी कलाम।

काव्यगत विशेषताएँ-जायसी के काव्य में भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों का सफल निर्वाह है। उनके काव्य का मुख्य रस शृंगार है। उन्होंने शृंगार रस के दोनों पक्षों का अद्भुत चित्रण किया है।

जायसी संयोग श्रृंगार के चित्रण की अपेक्षा वियोग श्रृंगार के चित्रण में अधिक सफल रहे हैं। नागमती का विरह वर्णन बड़ा ही अद्भुत है। उनके विरह में व्यापकता, मार्मिकता तथा गंभीरता का उत्कृष्ट वर्णन है। प्रेममार्गी शाखा में प्रेम की पीड़ा को अधिक महत्व दिया जाता है। जायसी ने उसी पीड़ा का वर्णन नागमती के विरह वर्णन के माध्यम से किया है। शृंगार रस के साथ-साथ करुण रस, वात्सल्य रस, भयानक रस एवं अद्भुत रस आदि का प्रसंगानुकूल चित्रण है।

कड़बक कविता का सारांश

यहाँ प्रस्तुत दोनों ‘कड़बक’ मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ के क्रमशः प्रारम्भिक और अन्तिम छंदों से लिए गए हैं। – प्रारंभिक स्तुति खंड से उद्धृत प्रथम कड़बक में कवि और काव्य की विशेषताएँ निरूपित करते हुए दोनों के बीच एक अद्वैत की व्यंजना की गई है। इसमें कवि एक विनम्र स्वाभिमान से अपनी रूपहीनता और एक आँख के अंधेपन को प्राकृतिक दृष्टांतों द्वारा महिमामंडित करते हुए रूप को गौण तथा गुणों को महत्वपूर्ण बताते हुए हमारा ध्यान आकर्षित किया है। कवि ने इस तथ्य को प्रस्तुत किया है कि उसके इन्हीं गुणों के कारण ही ‘पद्मावत’ जैसे मोहक काव्य की रचना संभव हो सकी।।

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द्वितीय कड़बक उपसंहार खंड से उद्धृत है, जिसमें कवि द्वारा अपने काव्य और उसकी कथा सृष्टि का वर्णन है। वे बताते हैं कि उन्होंने इसे गाढ़ी प्रीति के नयन जल में भिगोई हुई रक्त की लेई लगाकर जोड़ा है इसी क्रम में वे आगे कहते हैं कि अब न वह राजा रत्नसेन है और न वह रूपवती रानी पद्मावती है, न वह बुद्धिमान सुआ है और न राघवचेतन या अलाउद्दीन है ! इनमें से किसी के न होने पर भी उनके यश के रूप में कहानी शेष रह गई है। फूल झड़कर नष्ट हो जाता है, पर उसकी खुशबू रह जाती है। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि एक दिन उसके न रहने पर उसकी कीर्ति सुगन्ध की तरह पीछे रह जाएगी। इस कहानी का पाठक उसे दो शब्दों में याद करेगा। कवि का अपने कलेजे के खून से रचे इस काव्य के प्रति यह आत्मविश्वास अत्यन्त सार्थक और बहुमूल्य है।

कविता का भावार्थ

कड़बक-1
एक नैन कबि मुहमद गुनी। सोई बिमोहा जेईं कवि सुनी।
चाँद जइस जग विधि औतारा। दीन्ह कलंक कीन्ह उजिआरा।
जग सूझा एकई नैनाहाँ। उवा सूक अस नखतन्ह माहाँ।
जौं लहि अंबहि डाभ न होई। तौ लहि सुगंध बसाई न सोई।
कीन्ह समुद्र पानि जौं खारा। तौ अति भएउ असूझ अपारा।
जौं सुमेरु तिरसूल बिनासा। भा कंचनगिरि लाग अकासा।
जौं लहि घरी कलंक न पर। काँच होई नहिं कंचन करा।
एक नैन जस दरपन औ तेहि निरमल भाउ।
सब रूपवंत गहि मुख जोवहिं कइ चाउ।।

भावार्थ-गुणवान मुहम्मद कवि का एक ही नेत्र था। किन्तु फिर भी उनकी कवि-वाणी में वह प्रभाव था कि जिसने भी सुनी वही विभुग्ध हो गया। जिस प्रकार विधाता ने संसार में सदोष, किन्तु प्रभायुक्त चन्द्रमा को बनाया है, उसी प्रकार जायसी जी की कीर्ति उज्जवल थी किन्तु उनमें अंग-भंग दोष था। जायसी जी समदर्शी थे क्योंकि उन्होंने संसार को सदैव एक ही आँख से देखा। उनका वह नेत्र अन्य मनुष्यों के नेत्रों से उसी प्रकार अपेक्षाकृत तेज युक्त था। जिस प्रकार कि तारागण के बीच में उदित हुआ शुक्रतारा। जब तक आम्र फल में डाभ काला धब्बा (कोइलिया) नहीं होता तबतक वह मधुर सौरभ से सुवासित नहीं होता। समुद्र का पानी खारयुक्त होने के कारण ही वह अगाध और अपार है।

सारे सुमेरु पर्वत के स्वर्णमय होने का एकमात्र यही कारण है कि वह शिव-त्रिशूल द्वारा नष्ट किया गया, जिसके स्पर्श से वह सोने का हो गया। जब तक घरिया अर्थात् सोना गलाने के पात्र में कच्चा सोना गलाया नहीं जाता तबतक वह स्वर्ण कला से युक्त अर्थात् चमकदार नहीं होता। जायसी अपने संबंध में गर्व से लिखते हुए कहते हैं कि वे एक नेत्र के रहते हुए भी दर्पण के समान निर्मल और उज्जवल भाव वाले हैं। समस्त रूपवान व्यक्ति उनका पैर पकड़कर अधिक उत्साह से उनके मुख की ओर देखा करते हैं। यानि उन्हें नमन करते हैं।

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नोट-कहते हैं कि जायसी बायीं आँख के अन्धे थे। यह एक अंग-दोष था, किन्तु जायसी जी ऐसा मानने से इनकार करते हैं।” जग सूझा एनै कई नाहाँ। उआ सूक जस नखतन्ह माहा’। आदि अनेक उक्तियों से वह अपने पक्ष की पुष्टि करते हैं। आशय है-अंगहीन होने पर भी गुणी व्यक्ति पूजनीय होता है।

कड़बक-2
मुहमद यहि कबि जोरि सुनावा। सुना जो पेम पीर गा पावा।
जोरी लाइ रकत कै लेई। गाढ़ी प्रीति नैन जल भेई।
औ मन जानि कबित उस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा।
कहाँ सो रतन सेनि अस राजा। कहाँ सुवा असि बुधि उपराजा।
कहाँ अलाउद्दीन सुलतानू। कहँ राघौ जेई कीन्ह बखानू।
कहँ सुरूप मदुमावति रानी। कोइ न रहा जग रही कहानी।
धनि सो पुरुख जस कीरति जासू। फूल मरै पै मरै न बासू।
केइँ न जगत बेंचा केई न लीन्ह जस मोल।
जो यह पढे कहानी हम सँवरै दुइ बोल॥

भावार्थ-‘मुहम्मद जायसी कहते हैं कि मैंने इस कथा को जोड़कर सुनाया है और जिसने भी इसे सुना उसे प्रेम की पीड़ा प्राप्त हो गयी। इस कविता को मैंने रक्त की लेई लगाकर जोड़ा है और गाढ़ी प्रीति को आँसुओं से भिगो-भिगोकर गीली किया है। मैंने यह विचार करके निर्माण किया है कि यह शायद मेरे मरने के बाद संसार में मेरी यादगार के रूप में रहे। वह राजा रत्नसेन अब कहाँ? कहाँ है वह सुआ जिसने राजा रत्नसेन के मन में ऐसी बुद्धि उत्पन्न की? कहाँ है सुलतान आलाउद्दीन और कहाँ है वह राघव चेतन जिसने अलाउद्दीन के सामने पद्मावती का रूप वर्णन किया।

कहाँ है वह लावण्यवती ललना रानी पद्मावती। कोई भी इस संसार में नहीं रहा, केवल उनकी कहानी बाकी बची है। धन्य वही है जिसकी कीर्ति और प्रतिष्ठा स्थिर है। पुष्प के रूप में उसका शरीर भले ही नष्ट हो जाए परन्तु, उसकी कीर्ति रूपी सुगन्ध नष्ट नहीं होती। संसार में ऐसे कितने हैं जिन्होंने अपनी कीर्ति बेची न हो और ऐसे कितने हैं जिन्होंने कीर्ति मोल न ली हो? जो इस कहानी को पढ़ेगा दो शब्दों में हमें याद करेगा।

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